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फ़ेसबुक/नरेंद्र मोदी

मोदी, सँभलो नहीं तो 2019 गया

मोदी और अमित शाह के होते हुए भी कांग्रेस ने बीजेपी से तीन राज्य छीन लिए हैं। हालाँकि बीजेपी हारी है, उसका सफ़ाया नहीं हुआ है। तो क्या मतदाताओं ने इस सवाल का जवाब दे दिया है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के सामने कौन होगा? और यदि ऐसा है तो क्या यह मोदी के लिए सँभलने का समय नहीं है?
प्रदीप सिंह

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए खुशी और चेतावनी दोनों लेकर आए हैं। ख़ुशी इस बात की कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के होते हुए भी पार्टी ने बीजेपी से तीन राज्य छीन लिए हैं। चेतावनी यह कि बीजेपी हारी है लेकिन उसका सफ़ाया नहीं हुआ है। दूसरी ओर बीजेपी के लिए चेतावनी है कि सँभल जाओ नहीं तो 2019 गया। पार्टी के लिए संतोष की बात यह है कि वह कांग्रेस से उस तरह नहीं हारी जिस तरह उसने कांग्रेस को हराया था। कांग्रेस और राहुल गाँधी के लिए एक और चेतावनी है कि वह यह समझने की भूल न करे कि उसकी जीत का श्रेय उसके नरम हिंदुत्व को जाता है। बीजेपी के लिए सबक है कि धर्म और आस्था के मुद्दे पर रोज़ी-रोटी का मुद्दा हमेशा भारी पड़ा है और आगे भी पड़ेगा।

मोदी के सामने राहुल 

भारतीय जनता पार्टी पिछले काफी समय से कांग्रेस और विपक्षी दलों से एक सवाल पूछ रही थी कि नरेन्द्र मोदी के सामने कौन? पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में इन राज्यों के मतदाताओं ने इस सवाल का जवाब दे दिया है। अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी मोदी को चुनौती देने के लिए तैयार हैं। इन नतीजों ने राहुल गांधी के नेतृत्व में वोट दिलाने की उनकी क्षमता पर सवाल उठाने वालों को जवाब दे दिया है। 11 दिसम्बर से पहले कांग्रेस 2019 की लड़ाई से बाहर नज़र आ रही थी, अब नहीं। इससे पहले ग़ैर-बीजेपी दल राहुल गाँधी के नेतृत्व की क्षमता पर सवाल उठा रहे थे। मोदी के ख़िलाफ़ सँभावित महागठबंधन में अब कांग्रेस की आवाज़ पर ज़्यादा बुलंद होगी।

बदल रहा मतदाता 

जिन पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव था उनमें से तीन में बीजेपी की सरकार थी। बाक़ी दो राज्यों तेलंगाना और मिज़ोरम में वह हाशिए की पार्टी थी और अब भी है। इन तीन राज्यों में बीजेपी का कांग्रेस से सीधा मुक़ाबला था। दो राज्यों में पंद्रह साल से और एक में वह पाँच साल से सत्ता में थी। साल 2014 के बाद से कांग्रेस बीजेपी के सीधे मुक़ाबलों में कांग्रेस को हार का ही मुँह देखना पड़ रहा था। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस का सत्ता में आना मतदाता के मन में बदलाव का संकेत दे रहा है। इन तीनों ही राज्यों में मुसलिम आबादी काफ़ी कम है। ऐसे में बीजेपी को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का मौक़ा नहीं मिला। तेलंगाना में उसने अली और बजरंग बली के जरिए कोशिश की पर वह भी चला नहीं।

इन चुनावों के दौरान ही अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे को भी गरमाने की कोशिश हुई। पहले अयोध्या में फिर दिल्ली में धर्म सभा बुलाई गई। अयोध्या की धर्मसभा तो एक तरह से फ्लॉप ही रही। दिल्ली में संघ, विहिप और बीजेपी के प्रयास से लोग तो जुटाए गए लेकिन साफ़ था कि लाई गई भीड़ है। इसका अयोध्या मुद्दे से कोई लगाव नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह ने इसमें सरकार से इस मुद्दे पर क़ानून बनाने की मांग की। पर सरकार की ओर से किसी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया देना भी ज़रूरी नहीं समझा।

राम पर रोटी भारी 

संघ परिवार के इन प्रयासों से एक बात तो साफ़ है कि मंदिर या धर्म का मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनाव में नहीं चलने वाला। उसके दो बड़े कारण हैं। एक देश में किसान अपनी बदहाली, नौजवान बेरोज़गारी, व्यापारी नोटबंदी व जीएसटी से और मध्यवर्ग टैक्स की मार से परेशान है। ये सारे मुद्दे उसके वर्तमान और भविष्य से जुड़े हैं। उसको उम्मीद थी कि अच्छे दिन का वादा करके सत्ता में आने वाली सरकार उसके रोज़मर्रा के जीवन में बदलाव लाएगी। मोदी सरकार के साढ़े चार साल बीत गए हैं लेकिन लोगों को लग रहा है कि उनके जीवन में परेशानियाँ बढ़ी ही हैं कम तो नहीं हुईं।

मोदी रिपोर्ट कार्ड पेश करें ! 

ऐसे माहौल में जब लोग रोटी रोज़गार की समस्याओं से जूझ रहे हों उन्हें भावुक या धार्मिक मुद्दों पर गोलबंद करना संभव नहीं होता। यह बात बीजेपी जितनी जल्दी समझ ले अच्छा है। तीन राज्यों का जनादेश कह रहा है कि वह अब राहुल गाँधी को गँभीरता से लेने लगा है। राहुल गाँधी का मज़ाक उड़ाने के बीजेपी नेताओं के प्रयास से वह ख़ुश नहीं होता। उससे लगता है कि राहुल गाँधी हों या कोई और जो भी गँभीर सवाल उठाए, सरकार में बैठे लोग उसका संतोषजनक जवाब दें। सवालों से बचने के दिन चले गए। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि पाँच साल बाद वे अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर जनता की अदालत में आएँगे। उनकी पेशी का समय आ गया है। जनता वोट इस आधार पर देगी कि उनका काम उसे कैसा लगा। उसकी इस बात में कोई रुचि नहीं रह गई है कि राहुल गांधी क्या ग़लत बोलते हैं या उनकी पार्टी की सरकार ने पाँच साल पहले क्या ग़लत किया। कांग्रेस ने ग़लत किया तभी मतदाता ने बीजेपी और मोदी को मौक़ा दिया। उनको मौक़ा कांग्रेस की ग़लतियां बताने के लिए नहीं दिया गया।

सुधरो, नहीं तो बोरिया-बिस्तर गुल 

यह जनादेश कांग्रेस के लिए अवसर की तरह आया है। लगातार चौबीस चुनाव हारने (पंजाब और पुदुचेरी को छोड़कर) के बाद उसे एक साथ तीन राज्यों में कामयाबी मिली है। पर ऐसा लगता है कि मतदाता मध्य प्रदेश और राजस्थान में थोड़ी दुविधा में रहा कि कांग्रेस को मौक़ा दे या न दे। इसलिए कांग्रेस और बीजेपी के मत प्रतिशत में नाम मात्र का ही अंतर है। बल्कि मध्य प्रदेश में तो उसे कांग्रेस से कुछ ज़्यादा वोट मिले हैं। संदेश साफ़ है कि वह कांग्रेस को परख रही है। इसके साथ ही बीजेपी के लिए ख़तरे की घंटी बजा दी है कि सुधर सको तो सुधर जाओ नहीं तो बोरिया-बिस्तर बाँध देंगे। ये चुनाव नतीजे मोदी की हार से ज़्यादा राहुल गाँधी की जीत का सँदेश देते हैं। अब कांग्रेस की जिम्मेदारी बढ़ गई है। कांग्रेस और उसके नेता जो कह रहे थे उसे कर दिखाने का मौक़ा मतदाता ने उन्हें दे दिया है। इसलिए अगले पाँच महीने दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए परीक्षा का दौर है। मतदाता ने बता दिया है कि 2019 का खेल खुला है।

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