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इतिहास को मरोड़ने, नेहरू को कोसने से हल नहीं होगा कश्मीर मुद्दा

सरकारी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो ‘अति-राष्ट्रवादी सरकार’ का आतंकवाद से निपटने का दावा बिल्कुल आधारहीन और खोखला नज़र आता है। सच यह है कि आतंकवाद से निपटने और कश्मीर के हालात संभालने के मामले में यह अब तक की सबसे फिसड्डी सरकार साबित हो रही है।
उर्मिेलेश
कश्मीर का इतिहास जानने वाला कोई अदना-सा छात्र भी बता सकता है कि कश्मीर जैसे विवाद का समाधान इतिहास के तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने या देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कोसने से नहीं हो सकता। इसके लिए समस्या की असल वजह को समझने, उसके बारे में सुसंगत नज़रिया बनाने और फिर ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है। क्या ऐसा हो रहा है?
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इसमें कोई दो राय नहीं कि केंद्र की ज़्यादातर सरकारों ने कश्मीर मसले पर लगातार गलतियाँ कीं। स्वयं नेहरू सरकार की तरफ़ से भी कई बड़ी चूकें हुईं। सबसे बड़ी चूक थी, अगस्त, 1953 में सूबे के तत्कालीन प्रधानमंत्री (वजीरे आज़म) शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और गिरफ़्तारी। बाद की सरकारों के कार्यकाल में कई बहुत बुरे फ़ैसले और काम हुए। 1987 के कश्मीर चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली भी इनमें एक है। इसके बाद घाटी में आतंक और अलगाव के बीज तेज़ी से अंकुरित होने लगे। घाटी की शक्ल बदलती नज़र आई। झेलम-किनारे खड़े चिनार धीरे-धीरे दहकने लगे।
आज का परिदृश्य विचित्र है। मौजूदा सरकार और उसके बड़े नेता कश्मीर मामले में नेहरू सरकार को शुरू से ग़लत बताने की कोशिश कर रहे हैं। वे तो यह भी कहते हैं कि कश्मीर की समस्या नेहरू की पैदा की हुई है। जबकि इतिहास के तथ्य इससे बिल्कुल अलग हैं।
कश्मीर के संदर्भ में नेहरू पर मौजूदा सरकार के शीर्ष नेताओं की टिप्पणियाँ निराधार हैं। सच यह है कि विभाजन के साथ मिली आज़ादी के बाद जम्मू-कश्मीर सूबा अगर भारत में सम्मिलित हुआ तो इसका सबसे अधिक श्रेय जिन व्यक्तियों को मिलना चाहिए, वे हैं - प्रधानमंत्री नेहरू, शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला और वरिष्ठ नौकरशाह वीपी मेनन! इन तीन के बाद इस सूची में दो नाम और जोड़े जा सकते हैं - कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह और देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल! 

इतिहास के प्रश्नों को फिलहाल यहीं छोड़कर हम कश्मीर के मौजूदा परिदृश्य पर बात करते हैं। शुक्रवार को लोकसभा में देश के नये गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर पर लंबा भाषण दे डाला। मौक़ा था, कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की समयावधि बढ़ाने के प्रस्ताव पर सदन की मंजूरी लेने और सूबे में आरक्षण (संशोधन) विधेयक को पारित कराने का। 

सरहदी इलाक़ों में रहने वाले लोगों के लिए इस विधेयक के जरिये सेवाओं में आरक्षण का प्रस्ताव किया गया है। इस पर पहले अध्यादेश जारी किया गया, फिर विधानसभा का इंतजार किए बग़ैर लोकसभा में पेश कर दिया गया। संभवतः संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने की संघ-बीजेपी की घोषित लाइन का राजनीतिक रिर्हसल चालू हो गया है। सदन में बताया गया कि संविधान का अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था है। पर यह नहीं बताया गया कि संविधान सभा ने ‘अस्थायी’ शब्द का प्रयोग किस कारण किया था? यह भी नहीं बताया गया कि अनुच्छेद 370 को किस तरह अतीत की तमाम केंद्र सरकारों ने कमजोर और लचर किया है! इसकी शुरुआत नेहरू शासन के दौर से ही हो गई थी। पर सबसे बड़ा कदम केंद्र सरकार ने मार्च, 1965 में उठाया और फिर यह सिलसिला कभी थमा नहीं!

क्या हमारी सरकारों और बड़े राजनेताओं ने कभी यह सोचा कि 70 से अधिक सालों के लंबे अंतराल में किन वजहों से कश्मीर की समस्या और जटिल होती गई? उसका समाधान क्यों नहीं खोजा जा सका?
भारत और पाकिस्तान के बीच कई-कई युद्ध, सीमित युद्ध या सशस्त्र झड़पें हुईं। आतंकवाद और अलगाववाद को बल मिला। इससे न सिर्फ़ कश्मीर की तरक्की प्रभावित हुई अपितु पूरे देश को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी। इससे जान-माल की भी क्षति हुई। देश की आर्थिक प्रगति भी प्रभावित हुई। फिर भी समस्या बनी रही और आज भी भयावह रूप में बरक़रार है। 
कश्मीर पर उत्तेजक भाषणबाज़ी या टीवी चैनलों की घुमावदार ख़बरों-बहसों के जरिये देश के अंदरुनी हलकों में ध्रुवीकरण की राजनीति को बढ़ावा मिलता रहा है। कश्मीर के नाम पर देश को एक संकीर्ण और विभाजनवादी एजेंडे पर गोलबंद किया जाता रहा है। बीते पाँच सालों में यह प्रवृत्ति और भी मुखर है।
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पहले की कोशिशों से अलगाव 

2014 में एनडीए-2 की सरकार के आते ही केंद्र का कश्मीर विमर्श अचानक बदल गया। अपनी शुरुआती ग़लतियों से सबक लेकर एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार ने कश्मीरियत और इंसानियत के नज़रिये से कश्मीर मसले को देखने की शुरुआत की थी। इसके कुछ बेहतर नतीजे सामने आए। 2004 में आई यूपीए-1 की सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ हवाना में हुई अपनी मुलाक़ात में वाजपेयी सरकार के दौर में उठाए कुछ सकारात्मक क़दमों को और आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। कश्मीर पर छह वर्किंग ग्रुप बनाने का फ़ैसला भी उन्हीं दिनों हुआ। 

बाद में यूपीए सरकार ने दिलीप पडगांवकर की अगुवाई में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति पर मसले का अध्ययन कर सरकार को ठोस सुझाव देने के अलावा कश्मीरी तंजीमों और सरकार के बीच जीवंत संपर्क और वार्ता की प्रक्रिया आगे बढ़ाने की भी ज़िम्मेदारी थी। समिति ने अपने स्तर से अच्छी कोशिश की। लेकिन सरकार एक सीमा के बाद आगे नहीं बढ़ सकी। पर इन प्रयासों के नतीजे अच्छे दिखे। कश्मीर में शांति प्रक्रिया को गति मिली। हालात तेज़ी से सुधरे और आतंक-अलगाव की तीव्रता में भारी कमी आई। कश्मीर अपनी गति से शांति और सद्भाव की पटरी पर चलता नज़र आया।    

भाषणों से नहीं ख़त्म होता आतंक!

2014 के संसदीय चुनाव में यूपीए की हार हुई और बीजेपी को बहुमत मिला। नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी-नीत एनडीए-2 की सरकार बनने के साथ ही यह तय हो गया कि अब केंद्र की कश्मीर नीति में बड़ा बदलाव होगा। राजनीतिक प्रक्रिया से ज़्यादा अब सैन्य रणनीति आदि पर ज़्यादा जोर होगा। बाद के दिनों में हू-ब-हू वही हुआ। 2019 के संसदीय चुनाव में बीजेपी को और भी बड़ा बहुमत मिला। मौजूदा मोदी सरकार ने अपनी कश्मीर नीति को अब और तीख़ा बनाने का फ़ैसला किया है। वह ‘इस बार सबकुछ कर डालो’ के मूड में है। इसमें उसका सबसे अहम एजेंडा है - अनुच्छेद-370 का ख़ात्मा। भविष्य में क्या होगा, इस पर कोई कयास लगाने के बजाय फिलहाल हमें यह देखना चाहिए कि बीते पाँच सालों के दौरान मोदी सरकार की ‘कठोर’ कश्मीर नीति के क्या नतीजे रहे?
बीते पाँच सालों के दौरान जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी वारदात 177 फ़ीसदी बढ़ी हैं। आतंकवादी हमलों में मारे जाने वाले जवानों की संख्या में भी 106 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। क्या यह कोई साधारण बढ़ोतरी है? क्या इसे हालात में सुधार का संकेत कहा जा सकता है? क्या यह जम्मू-कश्मीर में मौजूदा सरकार की नीति और रणनीति की विफलता का ठोस संकेत नहीं है? 
सरकारी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो ‘अति-राष्ट्रवादी सरकार’ का आतंकवाद से निपटने का दावा आधारहीन और खोखला नज़र आता है। सच यह है कि आतंकवाद से निपटने और कश्मीर के हालात संभालने के मामले में यह अब तक की सबसे फिसड्डी सरकार साबित हो रही है।
यह सरकार समय पर विधानसभा चुनाव तक नहीं करा पा रही है। बीजेपी-एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का प्रदर्शन इससे कई गुना बेहतर था। वाजपेयी के दौर में कश्मीर ने अपेक्षाकृत बेहतर चुनाव देखा। कश्मीर नीति के मामले में मनमोहन सिंह सरकार भी बेहतर नज़र आई। हालाँकि कांग्रेस की तरफ़ से कई मौक़ों पर बड़ी चूकें हुईं। लेकिन मौजूदा सरकार के बारे में यह बात पूरी तरह सही है कि इसने शांति और सद्भाव की पटरी पर आते जम्मू-कश्मीर को फिर पटरी से उतार दिया है। 2014 से अब तक कश्मीर में 1661 से अधिक लोग आतंकी हिंसा में मारे गए हैं। 

जम्मू-कश्मीर में हिंसक घटनाओं में मारे गए नागरिक, सुरक्षा जवान, आतंकी या अन्य का आंकड़ा

kashmir crisis jawahar lal nehru modi amit shah - Satya Hindi

यूपीए-2 के आख़िरी दो वर्षों के आंकड़े

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(स्रोत - साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल और गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार)
यूपीए सरकार ने पाकिस्तान के साथ अपने द्विपक्षीय संवादों और कश्मीर आदि में ट्रैक-2 कूटनीति के जरिये आतंकी हिंसा और आतंकियों के पनपने की प्रक्रिया पर कुछ नियंत्रण पाया था। मौजूदा शासन द्वारा उपलब्ध आंकड़े भी बताते हैं कि उस दौर में घाटी के अंदर सक्रिय आतंकियों की संख्या कुछेक दर्जन में थी। आज यह संख्या सैकड़ों में पहुँच गई है। सबसे ख़तरनाक पहलू है कि पहले ज़्यादातर आतंकी सरहद पार से आते थे। अब कश्मीर के अंदर पैदा हो रहे हैं। घरेलू ज़मीन पर उग्रवाद और आतंकवाद नये सिरे से पनपा है। इसे खुराक दी है मौजूदा सरकार की संघ-प्रेरित संकीर्ण हिन्दुत्ववादी नीतियों ने। 
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एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार भी संघ-बीजेपी की ही थी। पर गठबंधन आधारित सरकार थी, जिसमें बीजेपी के पास इतनी संख्या नहीं थी कि वह अपने बल पर जो चाहे कर ले! आज की मोदी सरकार में कुछेक गठबंधन सहयोगी ज़रूर हैं पर उनकी कोई भूमिका नहीं है। सरकार के अंदर उनकी कोई औक़ात नहीं! उनकी कोई समझ भी नहीं है। 

ज़्यादातर गठबंधन सहयोगी बस मंत्री पद का मजा मारने के लिए सत्ता में हैं। वाजपेयी सरकार की कश्मीर नीति में काफ़ी बड़ी भूमिका नौकरशाहों की भी थी। वे परंपरागत सोच और नई नीतियों के आधार पर फ़ैसले करते और कराते थे। गलतियाँ भी करते थे और कुछ अच्छे क़दम भी उठाते थे। कश्मीर और भारत-पाक मामलों में उनका एक मिला-जुला सा प्रदर्शन था। लेकिन एनडीए की मौजूदा सरकार बुनियादी तौर पर संघ-सोच और कॉरपोरेट-दिशा की सरकार है! पहले की सरकारों से भी ज़्यादा इसे कॉरपोरेट समर्थन है।

पहले की सरकारों के दौर में कॉरपोरेट में कुछ मत-भिन्नता या खेमा-विभाजन भी दिखता था। मौजूदा सरकार ने संपूर्ण कॉरपोरेट को अपने साथ नत्थी कर लिया है।

सरकार के प्रति देश के बड़े न्यूज़ चैनलों और बड़े अख़बारों के ‘पूर्ण-समर्पित रुख’ के पीछे भी यही कारण है। सरकार की कश्मीर नीति की आलोचना की बात तो दूर रही, मीडिया संस्थानों ने अपने संवाददाताओं को कश्मीर भेजकर रिपोर्टिंग कराना तक बंद कर दिया है। ऐसे में कश्मीर का सच न देश के सामने आ पा रहा है और न सरकार पर कश्मीर मसले के शांतिपूर्ण समाधान के लिए किसी तरह का दबाव बन रहा है।

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