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नागरिकता क़ानून: कहीं जेपी जैसा आंदोलन न बन जाए

नागरिकता संशोधन क़ानून को संसद के दोनों सदनों से पास कराने में सफल रही मोदी सरकार को इस पर जोरदार विरोध झेलना पड़ रहा है। विरोध इतना व्यापक है कि इसे संभालने में सरकार के हाथ-पाँव फूल रहे हैं। पहले पूर्वोत्तर के आम लोग और वहां के राजनीतिक दल इसके विरोध में थे लेकिन दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में छात्रों के प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा ने पूरी तसवीर बदल दी है। पुलिस के छात्रों पर लाठीचार्ज करने और जामिया के कैंपस में घुसने पर देश भर के छात्रों ने तीख़ी प्रतिक्रिया दी है। 

जामिया के छात्रों के समर्थन में जब जेएनयू के छात्र भी उतरे और रविवार रात को दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन हुआ तो पुलिस को पीछे हटना पड़ा और हिरासत में लिये गये छात्रों को छोड़ना पड़ा। लेकिन सोमवार को छात्रों ने देश भर में जामिया के छात्रों के समर्थन में आवाज़ बुलंद की और पूरी ताक़त के साथ प्रदर्शन किया।

सोमवार को लखनऊ के नदवा कॉलेज, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, आईआईटी मुंबई, बंबई विश्वविद्यालय, हैदराबाद के मौलाना आज़ाद विश्वविद्यालय, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, पटना विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और पुद्दुचेरी विश्वविद्यालय के छात्रों ने सरकार को बताया कि छात्र किसी भी जुल्म-जबरदस्ती का जवाब देने के लिए तैयार हैं। इन सभी जगह पर सड़कों पर छात्र-छात्राएं सड़कों पर उतर आए और सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाजी की। दिल्ली विश्वविद्यालय में कई छात्रों के परीक्षाओं का बहिष्कार करने की भी ख़बर है। 

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1974 का छात्र आंदोलन 

जामिया के छात्रों के समर्थन में जिस तरह देश भर में छात्र सड़कों पर उतरे हैं, उसे लोग 1974 के छात्र आंदोलन से जोड़ने लगे हैं। 1974 का छात्र आन्दोलन गुजरात से होता हुआ पूरे देश में फैल गया था और इसने तब की बहुत ताक़तवर नेता और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की सरकार की चूलें हिला दी थीं। तब हज़ारों छात्रों को जेल में बंद किया गया और बेरहमी से पीटा गया था। यही आंदोलन आगे बढ़ता हुआ जेपी आंदोलन बना और जय प्रकाश नारायण ने इसे ‘संपूर्ण क्रांति’ का नाम दिया। छात्रों ने इंदिरा गाँधी के द्वारा 1975 में लगाये गए आपातकाल का जोरदार विरोध करते हुए उनके सत्ता से जाने का रास्ता तैयार किया था। 

छात्र आंदोलनों में यह नारा जोरदार ढंग से लगाया जाता है कि हर जोर-जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है।

जेएनयू का छात्र आंदोलन 

यहां पर कुछ दिन पहले हुए जेएनूय के छात्र आंदोलन का भी जिक्र करना ज़रूरी होगा। हॉस्टल में फ़ीस बढ़ोतरी और अन्य माँगों को लेकर जिस तरह से छात्र पुलिस से भिड़े, वह देखने लायक था। संविधान से मिले विरोध के अधिकार का बख़ूबी प्रदर्शन छात्रों ने किया था। जेएनयू से लेकर संसद तक के मार्च में छात्र अपनी माँगों को लेकर आवाज़ उठाते रहे, पुलिस से पिटते रहे और एक बार फिर दिखाया कि कोई भी सरकार छात्रों की परीक्षा न ले और अगर ले तो विरोध झेलने को तैयार रहे। 

देश के इतिहास में आज़ादी से पहले और बाद भी कई ऐसे आंदोलन हैं, जिसमें युवा शक्ति ने दिखाया है कि वे जुल्म और जोर-जबरदस्ती के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं हैं। इन प्रदर्शनों में होने वाली हिंसा की निंदा सभी ने की है लेकिन छात्रों का संदेश साफ़ है कि संवैधानिक ढंग से विरोध प्रदर्शन का अधिकार उनसे कोई नहीं छीन सकता। 

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छात्रों से बात करे सरकार 

फिलहाल, देखना यह होगा कि क्या केंद्र सरकार छात्रों के जोरदार विरोध के बाद इस क़ानून में क्या कोई संशोधन करती है और छात्रों का विरोध क्या और तेज़ होगा। लेकिन ऐसे समय में सरकार का छात्रों से संवाद किया जाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि ऐसे आंदोलनों में संवादहीनता की वजह से कई बार स्थिति और ज़्यादा बिगड़ जाती है। छात्रों और सरकार के बीच बातचीत होने से छात्र अपनी बातों को सरकार के सामने रख सकेंगे और सरकार के पास भी मौक़ा होगा कि वह कोई रास्ता निकाले। जिससे हिंसा और प्रदर्शनों का दौर रुके और देश सामान्य स्थिति में आ सके। 

लेकिन फिलहाल छात्र यही कह रहे हैं कि सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए क़ातिल में है। 

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पवन उप्रेती

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