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क्या हवा-हवाई है 5 ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का दावा?

पिछले कुछ महीनों से मोदी सरकार की ओर से 2024 तक भारत को 5 ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के दावे जोर-शोर से किए जा रहे हैं। जो लोग इसे लेकर शंका ज़ाहिर करते हैं, उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेशेवर निराशावादी भी बता चुके हैं। आज की स्थिति अगर देखें तो हमारी अर्थव्यवस्था 2.6 ख़रब डॉलर है, यानी अगले पाँच वर्षों में इसे लगभग दुगना करना होगा। लेकिन क्या देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था को देखकर यह लगता है कि ऐसा हो पाएगा? 

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एक अमेरिकी पत्रिका न्यूज़ वीक में लिखे एक लेख में भारत के बारे में एक कटाक्ष था। लेख के अनुसार, वर्तमान सरकार काम से अधिक आंकड़ों की बाजीगरी में भरोसा करती है। पहले की सरकारों में जब एक किलोमीटर सड़क पूरी बन जाती थी तब उसे गिना जाता था, पर इस सरकार में डिवाइडर के एक तरफ़ की सड़क एक किलोमीटर होती है और डिवाइडर के दूसरे तरफ़ उसी सड़क के दूसरे हिस्से को अगला किलोमीटर गिना जाता है और यदि उसके किनारे कोई लेन है तो उसे अगले किलोमीटर में शामिल किया जाता है। यानी, पिछली सरकारों की एक किलोमीटर सड़क अब दो किलोमीटर से लेकर चार किलोमीटर तक पहुँच गयी है। 
ऐसा लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था को भी सड़क की लम्बाई की तरह ज़बरदस्ती बढ़ा दिया गया है, पर सरकारी आंकड़े ही समय-समय पर इनकी पोल खोलते हैं।

इंटरनेशनल मोनेटरी फ़ंड ने हाल में ही वर्ष 2019-2020 के लिए भारत की वृद्धि दर को 7.3 से घटा कर 7 प्रतिशत तक पहुँचा दिया है। इसके पहले एशियाई डेवलपमेंट बैंक ने भी वृद्धि को 7.2 से 7 प्रतिशत तक कर दिया है। भारतीय रिज़र्व बैंक भी इसी नतीजे पर पहुँचा है। इसका सीधा सा मतलब है कि अर्थव्यवस्था की हालत वैसी नहीं है, जैसा सरकार बता रही है, वित्त मंत्री बता रहीं हैं या फिर प्रधानमंत्री जी अपने भाषणों में बता रहे हैं। 

दूसरी तरफ़ सरकारी आंकड़ों से ही यह भी स्पष्ट होता है कि 7 प्रतिशत की वृद्धि दर तक पहुँचना आसान नहीं होगा। इस वर्ष के तीसरे क्वार्टर में वृद्धि दर 6.6 प्रतिशत थी, जो पिछले पाँच वर्ष में सबसे कम थी, पर चौथे क्वार्टर तक यह 5.8 प्रतिशत तक पहुँच गयी। 

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न्यूज़ वीक में ही प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि सरकार कितने भी दावे करे, पर विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था भारत नहीं है। हाँ, भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, पर इसकी गति धीमी है। मई में औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े बता रहे थे कि पिछले 18 वर्षों के आंकड़ों की तुलना में कारों की बिक्री सबसे कम हुई है।  इसके बाद के महीनों में भी यही हाल रहा है। कारों की बिक्री का सीधा सा संबंध अर्थव्यवस्था से है, जब यह ठीक रहती है तब कारों की बिक्री लगातार बढ़ती है। 

अनेक अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में तमाम गलतियाँ हैं और ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की सही स्थिति नहीं बताते हैं।
जून के महीने में अरविन्द सुब्रमण्यन ने आंकड़ों की ख़ामियों को उजागर किया था और बताया था कि वर्तमान सरकार जब सकल घरेलू उत्पाद में 7 प्रतिशत की वृद्धि बताती है तब वह वास्तविकता में महज 4.5 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ऐसे विचार पहले भी अनेक अर्थशास्त्री रख चुके हैं, पर उम्मीद के मुताबिक़, सरकार इन दावों को लगातार खारिज करती रही है। 
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चलिए, आंकड़ों को दरकिनार कर भी दें, तब भी अरविन्द सुब्रमण्यन की एक बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता है कि उनके अनुसार, अर्थव्यवस्था के बढ़ने के लिए बढ़ते रोज़गार के अवसर, आयात-निर्यात में बढ़ोतरी, रिज़र्व खजाने में बढ़ोतरी, बढ़ता औद्योगिक उत्पादन, उत्पादों की बढ़ती माँग और बढ़ता कृषि उत्पादन ज़िम्मेदार है, पर इनमें से कुछ भी नहीं बढ़ रहा है तो फिर अर्थव्यवस्था इतनी तेज़ी से कैसे बढ़ सकती है?
जेपी मॉर्गन चेज के विशेषज्ञ जहाँगीर अज़ीज़ बताते हैं कि जब सरकार के आंकड़े ही भ्रामक हैं तब इस पर आधारित विकास हमेशा भ्रामक ही रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के नतीजों के तुरंत बाद कहा था, रसायनशास्त्र से गणित हार गया।

अब सरकार के इन्हीं भ्रामक आंकड़ों या आंकड़ों की बाज़ीगरी के आधार पर तो देश को 2.6 ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था को पाँच सालों में 5 ख़रब डॉलर तक नहीं पहुँचाया जा सकता। अभी हम आज 7 प्रतिशत की वृद्धि दर पर हैं और अगले वर्ष 7.2 प्रतिशत का अनुमान है। ऐसे में केवल जनता को बेवकूफ़ बनाकर और आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर ही वर्ष 2024 तक 5 ख़रब के आंकड़े तक पहुँचा जा सकता है और यह इस सरकार के लिए सबसे आसान काम है। 

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महेंद्र पाण्डेय

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