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सरकार के अपने ही लोग उठा रहे मंदी दूर करने के उपायों का फ़ायदा?

अभी बजट को पेश हुए छह महीने नहीं हुए और सरकार ने अमीरों पर कर से लेकर शेयर बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर हो रहे छल को रोकने के लिए जो कदम उठाए थे, वे सब वापस ले लिए गए हैं। सरकार कई खेप में 1.50 लाख करोड़ से ज्यादा का राहत दे चुकी है, जिसका बड़ा हिस्सा सीधे अमीरों की जेब में गया है या बड़ी कम्पनियों को दिया गया है।
अरविंद मोहन
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा हाउसिंग सेक्टर के लिए बडे़ पैकेज की घोषणा के साथ ही खाद्य व आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान द्वारा चार देशों से प्याज आयात करने की घोषणा ऐसे समय हुई, जब आर्थिक मन्दी से जुड़ी खबरें आ रही हैँ। 
दूसरी ओर आर्थिक स्थिति खराब होने, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा रेटिंग कम करने और अब खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की संख्या किसानों की आत्महत्या के आँकड़ों से आगे निकलने जैसी डरावनी सूचनाएँ आ रही हैं। उधर सरकार के मुखिया ने चीन और आसियान देशों के साथ बन रहे नए क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संगठन की सदस्यता लेने से इनकार कर दिया है। 
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मुक़ाबले से डरता है भारत?

उन्होंने आर्थिक महाशक्ति होने का अपना दावा भुला कर यह तर्क दिया दिया था कि हम चीन ही नहीं, इन छोटे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों से अभी मुकाबला नहीं कर सकते और इनके साथ होने वाला व्यापार भारत के लिए बड़े घाटे का सौदा बन गया है।
बता दें कि पहली बार भारत का विदेश व्यापार साल 2000 में पश्चिम की तुलना में पूरब से पिछड़ा था और भारत आसियान के साथ जुड़ने की भागादौड़ी कर रहा था। अब अवसर आया तो उसने खुद इनकार कर दिया। 

उद्योगपतियों को रेवड़ी!

पर इन कदमों को भारत की बदहाल आर्थिक स्थिति को स्वीकार करने का प्रमाण भी माना जा सकता है, क्योंकि अभी तक सरकार मंदी जैसी स्थिति न होने का दावा ही कर रही थी। सरकार की यह जिद क्यों है, यह समझना मुश्किल है। वह इसके चलते टुकड़े-टुकड़े में जो फ़ैसले ले रही है, वह आर्थिक मन्दी दूर करने की जगह साधनों की बर्बादी ही साबित हो रही है। 
अभी बजट को पेश हुए छह महीने नहीं हुए और सरकार ने अमीरों पर कर से लेकर शेयर बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर हो रहे छल को रोकने के लिए जो कदम उठाए थे, वे सब वापस ले लिए गए हैं। सरकार कई खेप में 1.50 लाख करोड़ से ज्यादा का राहत दे चुकी है, जिसका बड़ा हिस्सा सीधे अमीरों की जेब में गया है या बड़ी कम्पनियों को दिया गया है। 

आर्थिक बदहाली

विकास दर गिर रहा है, 5 साल से विदेश व्यापार जस का तस पड़ा है। निवेश, आर्थिक उत्पादन (खासकर कारखाना उत्पादन) गिर रहा है। संरचना क्षेत्र ख़राब प्रदर्शन कर रहा है, रोज़गार गिर रहा है, निवेश रिकार्ड गिरावट पर है और बिक्री के आँकड़े उद्यमियों का हौसला गिरा रहे हैं, जिससे वे 'महाबली' सरकार की नाराज़गी का ख़तरा उठाकर भी अपने दुख का सार्वजनिक इज़हार करने लगे हैं। 
सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी कम्पनियों की हालत ख़राब है और बारी-बारी से सबके बिकने या पस्त होने की ख़बरें आ रही हैं। कथित नवरत्न कम्पनियों के आर्डर भी विदेशी या अपनी पसन्द की निजी कंपनियों को देने से उनकी भी हालत ख़राब होने की ख़बरें आ रही हैं। 
बैंकों का जो एनपीए पिछली सरकार ने 4 लाख करोड़ पर छोड़ा था, वह आज 12 लाख करोड़ पर आ गया है। नोटबन्दी और जीएसटी ने जो कमर तोड़ी थी, वह सीधी होने का नाम न ले रही है। हमारे पड़ोसी और अभी तक पिछड़े रहे बंगलादेश, वियतनाम, श्रीलंका भी हमसे आगे हो गए हैं। 
पर मंदी को स्वीकार न करके भी सरकार जो कदम उठा रही है, वह मंदी से लड़ने की उल्टी दिशा है। कई बार लगता है कि यह समझ का फेर या ग़लती न होकर अपने प्रिय लोगों का खजाना भरने और बाकी सभी को भगवान भरोसे छोड़ने की सोची-समझी रणनीति है। आर्थिक सलाहकार सलाह न माँगे जाने से परेशान होकर भाग रहे हैं।
कायदे से आम लोगों को काम और धन उपलब्ध कराके उनकी आर्थिक और श्रम की भागीदारी बढाना ही मंदी भगाने का सही तरीका है। सरकार ने मनरेगा जैसी पुरानी योजना के खर्च में हल्की तेज़ी लाने के अलावा इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। इसी चलते ग्रामीण इलाके से मजदूरों के पलायन के साथ ही ग्रामीण उपभोग में तेज़ गिरावट की खबरें लगातार आ रही हैं। बेरोज़गारी बढ़ने और खपत घटने का रिश्ता भी साफ़ है।

गंभीर नहीं है सरकार!

सरकार का खंडन-मंडन चुनाव के हिसाब से ठीक हो सकता है, लेकिन जब हर कहीं से आर्थिक विकास दर गिरते जाने की ख़बर आ रही है तो 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का दावा करने वाली सरकार को कुछ चीजें स्वीकार करके गम्भीर कोशिश शुरु करनी चाहिये। वह गम्भीरता सिरे से गायब है, क्योंकि उसके साथ ही अपने कामों का हिसाब भी देना होगा और वायदा तो अच्छे दिन लाने, एक करोड़ सालाना मकान और दो करोड़ रोज़गार देने के साथ पन्द्रह-पन्द्रह लाख देने का था। 
एक पुराने मुख्य आर्थिक सलाहकार तो विकास दर के 7 फ़ीसदी के करीब के सरकारी अनुमान में ढाई फीसदी तक का खोट मानते हैं।  यहाँ हम नए सूचकांक बनाने के समय करीब दो फीसदी का मार्जिन छोडने को लेकर हुई चर्चा को याद कर सकते हैं। बल्कि मोदी राज में सारे सरकारी आँकडों का सन्दिग्ध हो जाना ही सबसे बड़ी आर्थिक त्रासदी है। 

आँकड़ों का हेरफेर!

मोदी जी और उनकी मंडली को लगता है कि राजनैतिक लुकाछुपी और बालाकोट जैसी चालाकी से चुनाव जीतने जैसे कारनामे हो सकते हैं तो आर्थिक आँकड़ों की लुकाछिपी क्यों नहीं हो सकती।  पर इस चक्कर में हो यह रहा है कि अंगरेजी हुक़ूमत और फिर नेहरू राज में महालनबीस जैसे लोगों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ सांख्यिकी का जो ज़बरदस्त जाल बनाया गया था, आज वह पूरी तरफ ध्वस्त हो गया है और सरकार खुद आँकड़े जुटाना रोकने की परवी करने लगी है। 
इसके बावजूद हर बार नया महीना शुरू होने बाद भी जितने आँकड़े आ रहे हैं, वे अर्थव्यवस्था की बदहाली को ही उजागर कर रहे हैं।  छह संरचना क्षेत्रों का प्रदर्शन तो दूरगामी नुकसान का सबसे पक्का संकेत देता है। अगर कोयले के उत्पादन में 30 फ़ीसदी तक की गिरावट आ गई तो भगवान ही मालिक है। तुर्रा यह कि कोयला और कोकिंग कोल का आयात इधर तेजी से बढा है। इसका मतलब है कि दुनिया का सबसे बड़ा कोयले का भंडार रखते हुए भी हम इसी मद में कंगाल बनते जा रहे हैं। 

अपनों को रेवड़ी?

सरकार के अपने लोगों की पहचान छुपी नहीं है। कुल कितने घरानों का कारोबार इस दौर में तेजी से बढा है, उसका हिसाब छुपा नही है। अडानी समूह सर्वाधिक प्रिय हो सकता है, पर अम्बानी बन्धुओं की भी कम नहीं चल रही है। हर धन्धे में पिटते जा रहे छोटे अम्बानी को जिस तरह से रफ़ाल सौदे में लाभ दिये गए वे जगजाहिर हैं।
अब बड़े अम्बानी को फोन-इंटरनेट का सारा धन्धा सौंपा जा रहा है। बीएसएनएल और एमटीएनएल का धन्धा तो डूब ही गया है या डुबो दिया गया है, अब उसकी सारी बेशकीमती सम्पत्ति और इंटरनेट नेटवर्क को हड़पने की तैयारी है। 
गिनती के लोग फल-फूल रहे हैँ और मुश्किल यह है कि सरकार मन्दी से लड़ने के नाम पर जो कदम उठा रही है, उसका ज़्यादातर लाभ   सरकार के नज़दीक के लोगों को ही मिल रहा है। 
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