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पाँच साल में गाँवों में ग़रीबी बढ़ी 4%, और 3 करोड़ लोग हुए ग़रीब : रिपोर्ट

भारत के गाँवों में पिछले 5 साल में 4 प्रतिशत ग़रीबी बढ़ी है, यानी लगभग 3 करोड़ लोग आधिकारिक ग़रीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। यह ऐसे समय हुआ है, जब इसी दौरान शहरी क्षेत्रों में ग़रीबी में 5 प्रतिशत की कमी हुई है। 

अंग्रेज़ी अख़बार ‘लाइवमिंट’ ने एक अध्ययन के आधार पर यह जानकारी दी है। इसने नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (एनएसओ) के आँकड़ों के हवाले से कहा है कि वित्तीय वर्ष 2011-12 और 2017-18 के बीच गाँवों की ग़रीबी 30 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई, जो पहले ले 4 प्रतिशत अंक ज़्यादा है। इसी दौरान शहरी इलाक़ों में ग़रीबी गिर कर 9 प्रतिशत पर आ गई, जो पहले से 5 प्रतिशत कम है। नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद से अब तक शहरों में ग़रीबी कमी है, लेकिन गाँवों में बढ़ी है। 
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बढ़ी आर्थिक असमानता

इन 5 सालों में राज्यों के बीच आर्थिक असामनता भी बढ़ी है, कुछ राज्य पहले से ज़्यादा ग़रीब हुए हैं तो कुछ राज्यों में संपन्नता बढ़ी है। पूर्व और पूर्वोत्तर के राज्यों में ग़रीबी यकायक बहुत तेज़ी से बढ़ी है, जबकि कर्नाटक को छोड़ तमाम दक्षिणी राज्यों की स्थिति में सुधार हुआ है।

बड़े राज्यों में बिहार में सबसे ज़्यादा ग़रीबी बढ़ी है। इन 5 सालों में इस राज्य में ग़रीबी 17 प्रतिशत अंक बढ़ कर 50.47 प्रतिशत पर पहुँच गई। झारखंड में 8.6 प्रतिशत तो ओड़िशा में 8.1 प्रतिशत ग़रीबी बढ़ी है।

गाँवों में खपत कम

यह ख़बर ऐसे समय आई है, जब सरकारी एजेंसियों के ही आँकड़ों से पता चला कि गाँवों में खपत कम हुई है। एक आर्थिक अख़बार ने पिछले महीने रिपोर्ट दी कि गाँवों में माँग 40 साल के न्यूनतम स्तर पर है। उसने इसके लिए नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (एनएसओ) के ताज़ा आँकड़ों का हवाला दिया है। 
इन आँकड़ों के अनुसार गाँवों में जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच खपत में 8.8 प्रतिशत की कमी आई है। यह 1972-73  से अब तक की अधिकतम गिरावट है। यानी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में माँग बीते 40 के न्यूनतम स्तर पर है। यह बात और है कि इसके बावजूद सरकार खुश है और तर्क दे रही है कि किसी का कोई रुक नहीं रहा है। 
सरकार ने एनएसओ के इन आँकड़ों को खारिज करते हुए अपनी सफ़ाई दी है। उसने खपत कम होने से जुड़ी रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाए हैं। सांख्यिकी मंत्रालय के अफ़सर ए. के. मिश्रा ने कहा, 'एनएसओ की रिपोर्ट पर अभी भी काम चल रहा है, यह पूरी तरह पक्की नहीं है और कई अधिकारियों को आँकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद ही ये आँकड़े पक्के कहे जा सकते हैं।' 
इसके पहले इसी साल अक्टूबर में बाज़ार शोध संस्थान नीलसन ने कहा था कि ग्रामीण खपत 7 साल के न्यूनतम स्तर पर है। उसने इसकी वजह किसानों की बदहाली बताई थी। 

बदहाल किसान, कम खपत

सितंबर की तिमाही में गाँवों में उपभोक्ता वस्तुओं की खपत सिर्फ 5 प्रतिशत बढ़ी।  बीते साल इसी दौरान 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। ज़ाहिर है, इस साल इस दौरान खपत में ज़बरदस्त कमी आई है। इस दौरान शहरों में भी उपभोक्ता वस्तुओं की खपत में कमी आई है। बीते साल जहाँ इस अवधि में शहरों में खपत 14 प्रतिशत बढ़ी थी, इस साल सिर्फ़ 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखायी दी।

पैकेज़्ड सामान वाले बदहाल

गाँवों में खपत कम होने का असर डिब्बाबंद सामान बेचने वाली कंपनियों पर भी हो रहा है। बड़ी कंपनियों मसलन, हिन्दुस्तान लीवर, अडानी विलमार को सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा है।नीलसन का यह आँकड़ा ऐसे समय आया है, जब तमाम अंतरराष्ट्रीय एजंसियों, मैनेजमेंट कंपनियों और पैसे देने वाली संस्थानों ने कहा है कि भारत में अर्थव्यवस्था फिसल रही है। उन्होंने इस पर चिंता भी जताई है।
यह ख़बर ऐसे समय आई है, जब सरकारी एजेंसियों के ही आँकड़ों से पता चला कि गाँवों में खपत कम हुई है। ये ख़बरें ऐसे समय आ रही हैं जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंदी से साफ़ इनकार करते हुए कहा है कि मंदी न तो है न ही हो सकती है। सवाल यह है कि बढ़ती ग़रीबी और गिरते खपत को मंदी से जोड़ कर न देखा जाए? 

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क़मर वहीद नक़वी

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