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प्रेमचंद 140 : 17 वीं कड़ी : अदब की ज़बान और मज़हब

आज से सौ साल पहले जब हिंदी का निर्माण हो ही रहा था, प्रेमचंद न सिर्फ उर्दू के अस्तित्व को बनाए रखने के हक़ में थे, बल्कि हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों में ही मौजूद तंगनज़र लोगों से लड़ रहे थे जो हिन्दी और उर्दू के सवाल को धर्मों के आधार पर देखने की वकालत कर रहे थे।
अपूर्वानंद
बरसों पहले का किस्सा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे वरिष्ठ सहकर्मी, इतिहासकार शाहिद अमीन से एक मुलाक़ात का। अपने बेटे के स्कूल से लौटे थे। भरे बैठे थे। मुझ हिंदीवाले को देखा तो फट पड़े। बेटे के हिंदी अध्यापक ने उसके किसी निबंध में आए उर्दू शब्द पर लाल कलम लगाकर उसकी जगह समानार्थी शुद्ध ‘हिंदी’ शब्द लिख दिया था। 

हिन्दी की पवित्रता 

शाहिद अमीन से यह जुल्म और ज़ुर्म बर्दाश्त न हुआ और वे स्कूल जा पहुँचे। अपने अंदाज में उन्होंने शिक्षक से पूछा, ‘आपने इस शब्द को क्यों बाहर कर दिया? आखिर प्रेमचंद भी तो ऐसी ही हिंदी लिखते थे!’ स्कूल के अध्यापक के आगे शाहिद अमीन की इस दलील की क्या हस्ती थी! उन्होंने शांति से जवाब दिया, 'अभी तो वह प्रेमचंद नहीं है। उसे पहले हिंदी सीख लेने दीजिए।' 
साहित्य से और खबरें
फिर याद आई एक और घटना। दिल्ली में एक जगह दीवार पर उर्दू में कुछ नक्श किया जा रहा था। धीरे-धीरे भीड़ इकट्ठा हो गई और लिखनेवालों पर हमला कर दिया क्योंकि वे एक ‘विदेशी’, वह भी पाकिस्तानी भाषा भारतीय भित्ति पर आँक रहे थे! 

हाल में शासक दल से जुड़े कुछ सांस्कृतिक योद्धाओं ने एक फ़ेहरिस्त जारी की। ऐसे शब्दों की जो हिंदी में आमफहम हैं, लेकिन जिन्हें चुन-चुन कर निकाल देना चाहिए क्योंकि वे उर्दू शब्द हैं और उनसे हिंदी अपवित्र हो जाती है।
मुझे एक टीवी की बहस की याद है। इस अभियान के एक योद्धा ने तैश में इसे जायज़ ठहराते हुए कहा, ‘प्रत्येक भाषा का एक क़ानून होता है।’ उन्हें ध्यान दिलाया गया कि क़ानून शब्द बोलकर अपनी हिंदी को उन्होंने अशुद्ध कर दिया क्योंकि यह भी ‘हिंदी’ नहीं है!

बहसें ख़त्म नहीं होती, उनके ख़त्म होने का भ्रम भले हो। हिंदी की कक्षाओं में अब सलीके की हिंदी सुनना मुहाल है। क्या उसकी वजह स्कूलों में हिंदी की वह तालीम है जिससे खफ़ा होकर शाहिद अमीन अपने बेटे के स्कूल पहुँच गए थे?
तो हिंदी का अध्यापक पहले छात्रों को हिंदी सिखा देना चाहता है। उसी हिंदी का अध्यापक जिसमें स्कूल से लेकर कॉलेज तक हर कदम पर प्रेमचंद साथ चलते हैं। हिंदी पाठ्यपुस्तकों की एक दूसरी प्रिय रचनाकार महादेवी वर्मा का खयाल हिंदी अध्यापकों से जुदा है। प्रेमचंद की भाषा की विशेषता लक्ष्य करने में उनसे चूक न हुई, 

'..जैसे अनायास हमलोग संस्कृत के शब्द ले आते हैं ऐसे वे नहीं लाते थे। लेकिन उर्दू में जो प्रवाह था, हिंदी को वह प्रवाह उन्होंने दिया।'

मुंशीजी उर्दूदाँ थे और वह भी ऐसे वैसे नहीं, अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ में 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के उद्घाटन सम्मलेन के अध्यक्षीय वक्तव्य को लेकर एक दिलचस्प किस्सा लिखा है। पहले तो उनकी बेतकल्लुफी। सम्मेलन का दिन आ पहुँचा। प्रेमचंद के सुबह नौ बजे की गाड़ी से आने की बात थी। सज्जाद ज़हीर रशीदा बी एक साथ उन्हें लेने जाने की तैयारी में थे: 

'हमने सोचा कि साढ़े आठ बजे घर से रवाना होंगे। हम आठ बजे के क़रीब चाय पी रहे थे कि घर में एक तांगे के दाखिल होने की आवाज़ आयी।.. बाहर निकला तो देखा प्रेमचंदजी।..'

गाड़ी का वक़्त बदल गया था, यह ख़बर मेजबान को भी होनी चाहिए थी, लेकिन मेहमाने ख़ुसूसी इसे अपनी ही ग़लती मानता है कि उसने तार देकर इसकी इत्तला उन्हें न दी। सज्जाद ज़हीर साहब लिखते हैं, 

' ..एक हमारे सभापति मुंशी प्रेमचंद हैं।..मामूली से तांगे में बैठकर बड़ी बेतकल्लुफी से सम्मेलन के मुन्तजिमों के घर चले आये हैं और शिकायत तो दूर की बात है, उनके माथे पर एक बल भी न पड़ा।'

यह शानदार विनम्रता है तो अभी भी याद करने की चीज़, लेकिन हमारे प्रसंग से जुड़ा वाकया इसके बाद का है जब नाश्ते के बाद सदारती खुतबे की चर्चा होती है। अमृत राय लिखते हैं, 

'ज़हीर ने यहाँ वहाँ उलट-पलटकर देखा और कहा - ज़बान तो आपकी ज़रा सकील हो गयी है। मुंशीजी ने दुबारा कहकहा लगाया और कहा - मैंने कहा लाओ, ऐसी ज़बान लिख दूँ कि यह भी लोग याद रखें। फिर ज़रा रुककर – आखिर कायस्थ का बेटा हूँ।' 

भाषा की उदात्तता 

सकील, या गरिष्ठ उर्दू लिखना फारसीदाँ प्रेमचंद के लिए बाएँ हाथ का खेल था और शायद यही वह स्पर्श था, जिसने उनकी ज़बान में एक मोहक ताजगी और रवानी भर दी है। यह भी अमृत राय ने ठीक ही ध्यान दिलाया है कि प्रेमचंद को 'अपनी बात के लिए जहाँ भी सनद की ज़रूरत होती है, वह फौरन इकबाल के पास पहुँचते हैं'। इकबाल के फारसी कलाम के पास अक्सर।

अपने जीवन दर्शन को इस व्याख्यान में वे इकबाल के सहारे व्यक्त करते हैं, 

'रम्जे हयात जोई जुज तपिश न याबी,

दर कुल्जुम आरमीदन नगस्त आबे जूरा।

ब आशियाँ न नशीनम जे लज्जते परवाज़

गहे बशाखे गुलाम गाहे बार लबे जूयम।

(अगर तुझे जीवन के रहस्य की खोज है तो वह तुझे संघर्ष के सिवा और कहीं नहीं मिलने का-सागर में जाकर विश्राम करना नदी के लिए लज्जा की बात है। उड़ने में मुझे जो आनंद मिलता है, उसके मारे मैं कभी घोंसले में नहीं बैठता—कभी फूलों की टहनियों पर तो कभी नदी किनारे होता हूँ)'

अशेष गति, विश्राम नहीं :

'चूँ मौज साजे वजूदम जे सैल बेपरवास्त

गुमाँ मबर कि दरी बह्र साहिले जोयम।

(तरंग की भांति मेरे जीवन की तरी भी लहरों की तरफ से बेपरवाह है, यह न समझो कि मैं इस समुद्र में किनारा दूंढ़ रहा हूँ।)'

या यह, 

'अज दस्ते जुनूने मन जिब्रील जबूं सैदे

यजदां बकमंद आवर, ऐ हिम्मते मर्दाना।

(मेरे उन्मत्त हाथों के लिए जिब्रील एक घटिया शिकार है। ऐ हिम्मते मर्दाना, क्यों न अपनी कमंद में तू खुदा को ही फाँस लाये?)'

प्रेमचंद की भाषा में जो उदात्तता है, उसका एक स्रोत निश्चय ही इकबाल हैं और फारसी या उर्दू है।

यह व्याख्यान 1936 का है। प्रेमचंद हिंदी के आकाश के सबसे चमकते हुए सितारा हैं। लेकिन वे उर्दू का दामन नहीं छोड़ते। उस उर्दू का जिसपर उनके दावे को उनके हिंदू होने की वजह से कम करके आँकने की कोशिश की गई थी। उसी प्रेमचंद ने जिसे इसके जवाब में ‘उर्दू में फिरऔनियत’ शीर्षक लेख लिखा। बेमुरौअत, बिना लाग लपेट।
नियाज़ फतेहपुरी हिन्दुस्तानी एकेडमी के सदस्य थे। संस्था ने एक अंग्रेज़ी लेखक के नाटकों को हिंदी और उर्दू में छापने का निर्णय किया। हिंदी अनुवाद का काम प्रेमचंद को करना था और उर्दू अनुवाद मुंशी दया नारायण निगम और मुंशी जगत मोहन लाल साहब ‘खां’ को। यह नियाज़ साहब को बर्दाश्त न हुआ। प्रेमचंद लिखते हैं, 

'अब आपको यह आपत्ति है कि अंग्रेज़ी नाटकों का अनुवाद क्यों किया गया और क्या इसके लिए मुसलमान लेखक न मिल सकते थे। आपके खयाल में कोई हिन्दू उर्दू लिख ही नहीं सकता चाहे वह सारी उम्र इसकी साधना करता रहे और मुसलमान जन्म से ही यानी उसे उर्दू लिखने की योग्यता वह माँ के पेट से लेकर आता है। यह दावा इतना ग़लत, पोच, लचर और बेवकूफी से भरा हुआ है कि इसके जवाब की ज़रूरत नहीं।'

उसूल का मामला 

जवाब तो बहरहाल प्रेमचंद देते हैं और कोई रियायत नहीं बरतते। और क्यों करें आखिर! मामला हिंदू के अधिकार का नहीं, उसूल का है। क्या किसी ज़बान पर किसी एक धर्मवालों का एकाधिकार होगा?

'मुसलमानों पर यह आम ऐतराज है कि उन्होंने हिन्दू शायरों और लिखनेवालों का कभी सम्मान नहीं किया। यहाँ तक कि नसीम और सरशार भी उर्दू के बड़े लिखनेवालों के दायरे से बाहर कर दिए गए, मगर ऐसी ढिठाई की हिम्मत किसी ने न की थी। मैं मानने को तैयार हूँ कि उर्दू ज़बान पर निस्बतन मुसलमानों के एहसान ज्यादा हैं, लेकिन यह नहीं मान सकता कि हिन्दुओं ने उर्दू में कुछ किया ही नहीं।'

फतेहपुरी साहब ने एक तरह से उनके वजूद को चुनौती दे डाली है। तो प्रेमचंद सख्त क्यों न हों:

'उर्दू न मुसलमान की बपौती है न हिन्दुओं की। हज़रत नियाज़ चाहे जितनी ही आँखें लाल-पीली करें मगर हिन्दू उर्दू पर से अपने हक़ से अपना हाथ नहीं खींच सकता और न उसे वह अपने ढंग से लिखने से बाज़ आ सकता है उसी तरह जैसे मुसलमान उसे अपने ढंग से लिखने से बाज़ नहीं आते। हिन्दू उर्दू का ख़ून कर रहे हैं। उसी तरह हिन्दू भी कह सकता है कि मुसलमान उर्दू के गले पर छुरी फेर रहे हैं।'     

हज़रत नियाज़ फतेहपुरी को कोई माफ़ी नहीं क्योंकि वे प्रेमचंद की जीवन भर की कमाई पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं।
आज से सौ साल पहले जब हिंदी का निर्माण हो ही रहा था, प्रेमचंद न सिर्फ उर्दू के अस्तित्व को बनाए रखने के हक़ में थे, बल्कि हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों में ही मौजूद तंगनज़र लोगों से लड़ रहे थे जो हिन्दी और उर्दू के सवाल को धर्मों के आधार पर देखने की वकालत कर रहे थे।
प्रेमचंद का नज़रिया ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी' के 1936 के वार्षिक सम्मेलन की रिपोर्ट से भी ज़ाहिर होता है। उन्होंने सभापति सच्चिदानंद सिंह के वक्तव्य के उस हिस्से को उद्धृत किया जिसमें खुद प्रेमचंद का एकतावादी रवैया प्रकट होता है, 

'सर विलियम मॉरिस ने कहा — हर हिन्दी लिखनेवाले का उद्देश्य यह होना चाहिए कि मानो वह मुसलमानों के पढ़ने के लिए लिख रहा है, और इसी तरह हर उर्दू लिखनेवाले को यह ख्याल रखना चाहिए, मानो वह हिंदुओं के पढ़ने के लिए लिख रहा है।'

प्रेमचंद को गांधीजी की तरह ही इसका अहसास था कि यह प्रश्न शुद्ध भाषाशास्त्रीय दायरे से बाहर का है। भारत में, ख़ासकर उत्तर भारत में हिन्दू-मुसलमान विभेद की राजनीति दोनों ही तरफ से उफान पर थी। भाषा का सवाल उस आग में घी की तरह था। आग भड़काई जाए या उसपर पानी डाला जाए? एकता स्थापित की जाए या अलगाव बढ़ाया जाए? प्रेमचंद को अफ़सोस है कि
'...पृथकता के समर्थन में बार-बार लेख लिखे जा रहे हैं और यह सिद्ध किया जा रहा है कि उर्दू और हिंदी अब अलग-अलग रास्ते चलकर एक दूसरे से इतनी दूर निकल गयी हैं कि उनका समीप आना असंभव है और यह कि उनको मिलाने की कोशिश दोनों ही भाषाओं को मटियामेट कर देगी।'

एक दूसरे लेख में प्रेमचंद ने अपना दुख प्रकट किया:

'एक समय था जब इल्म और फ़न की इतनी उन्नति और राजनीति में इतनी जागृति न होने पर भी आपस में बहुत कुछ मुहब्बत थी और साहित्य के क्षेत्र में तो कोई भेद ही नहीं था, मगर ज़माने ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि हिन्दी हिंदुओं की ज़बान हो गयी और उर्दू मुसलमानों की। हिन्दुओं ने उर्दू से मुँह मोड़ना शुरू किया, मुसलमानों ने उर्दू से। ..आपस में मनमुटाव बढ़ने लगा।'

अदब का विषय तो इंसान है

आगे प्रेमचंद लिखते हैं, 

 '...अदब का ...विषय तो इंसान है और इंसान माथे पर कोई लेबल लगाए, वह इंसान ही है, मगर यह राजनीति का युग है और कोई ऐसा उद्योग नहीं, जिसपर राजनीतिक संकीर्णता का रंग न चढ़ाया जा सके। इसका नतीजा यह हुआ है कि हिन्दी के भक्त उर्दू से कोरे हैं और उर्दू के भक्त हिन्दी से।' 

प्रेमचंद को इसका तकलीफदेह अहसास है कि दोनों ज़बानें अलग होती जा रही हैं और 

'जिनसे हम ज़बान में बेतकल्लुफी से बातचीत न कर सकें , उनसे दिल क्योंकर मिलेगा।'

प्रश्न भाषा का है, लेकिन उससे बड़ा इंसान का है। जैसे गांधी का प्रस्ताव बहुतों को भोला और अव्यावहारिक लगा वैसे ही प्रेमचंद की यह इंसानी एकता की जिद भी बचकाना मालूम पड़ सकती है।

ज़बान ठीक करने के पहले आदमी को ठीक करना ज़रूरी है। क़ौमी एकता बड़ा मक़सद है और उसके लिए कुछ भी क़ुरबान किया जा सकता है और कितनी भी मेहनत की जा सकती है। प्रश्न नई समष्टि के सृजन का है जिसमें सारे तजुर्बे घुले मिले हों। लेकिन यह उद्देश्य 

'...आपस की दोस्ती, विचार-विनिमय और सहृदयता से ही पूरा किया जा सकता है।'

साहित्यकार, अदीब के मन में आम अवाम के लिए दर्द है, लेकिन वह उसकी सतह पर ही विचार करके नहीं रह जा सकता;

'अदीब ...का दिल प्रेम की ज्योति से भरा होता है। उसमें तास्सुब और तंगखयाली के लिए जगह नहीं होती।'

अमूमन प्रेमचंद की तारीफ़ की जाती है कि वे बोलचाल की ज़बान का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वे खुद इसे लेकर सतर्क हैं कि 

'बोलचाल की भाषा गलियों और बाज़ारों में बनती है, मगर साहित्य और संस्कृति की भाषा तो विद्वानों के समाज में ही बनेगी।' 

साहित्य की भाषा सड़क पर नहीं बनती, उसका अभ्यास अलग है। वह कोई आभिजात्य नहीं और उसका अभ्यास करना ही पड़ता है। इसलिए वह सड़क की लापरवाही से नहीं किया जा सकता। ये लेख उसी प्रेमचंद के हैं उर्दू पर जिनके हक़ पर हज़रत नियाज़ ने उनके हिन्दूपन की वजह से सवाल किया था। वही प्रेमचंद जिनका लेख ‘मनुष्यता का अकाल’ उनके दोस्त निगम साहब ने ही 9 महीने तक नहीं छापा। उसी प्रेमचंद के जिनके नाटक कर्बला को छपने में कितनी मुश्किलें पेश आईं।

साझी समष्टि का लक्ष्य

सवाल किया गया कि एक हिंदू प्रेमचंद ने आखिर एक ठेठ इसलामी कथा में हिंदू पात्र क्यों डाले! और यह सवाल भी हिन्दुओं ने किया। प्रेमचंद की नैतिकता का खरापन उन्हें साझी समष्टि के लक्ष्य से विचलित नहीं कर सकता। लेकिन वह साझापन कैसे हो? हम एक दूसरे के बारे में क्यों बात न करें? करें, ज़रूर करें लेकिन जाँच लें कि वह कितनी ईमानदारी से किया जा रहा है।

कुरान के ‘सूरए बफर’ के अनुवाद की समीक्षा करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं, 

 

'श्रीयुत पं. रामचंद्र आर्य कुरान के हाफ़िज और अरबी के विद्वान् हैं। शायद उनके सहकारी श्री प्रेमशरण जी भी अरबी के आलिम फाजिल होंगे। इन दोनों महानुभावों ने कुरआन का हिन्दी अनुवाद करना शुरू किया है। ...मालूम नहीं टीकाएँ किस मुफस्सिर के आधार पर की गई हैं।'

वे सावधान करते हैं, 

'...बिना किसी मुसलमान या मुस्तनद आलिम की मदद के यह टीका वैसे ही मान्य न हो सकती, जैसे वेदों की टीका किसी संस्कृतज्ञ मुसलमान द्वारा संपादित की हुई। हाँ, इसका एक शुभ फल अवश्य हो सकता है और वह है हिन्दू-मुसलमानों का वैमनस्य।'

प्रेमचंद इसे लेकर बहुत साफ़ हैं कि 

 'ऐसे अनुवादों से तो झगड़ा पैदा होने के सिवाय और कोई फल नहीं निकल सकता। किन्तु संसार में ऐसे भी प्राणी हैं,खासकर भारतवर्ष में, जो दूसरों के मतों का खंडन करना की जातीय सेवा का मुख्य उपाय समझते हैं।'

उसी तरह कभी आर्यसमाजी रहे प्रेमचंद ने स्वामी श्रद्धानंद की किताब ‘अंधा ऐतकाद और खुफ़िया जेहाद’ की समीक्षा करते हुए फिर साफ़-साफ़ कहा, 
'...हम लेखक के इस कथन से सहमत नहीं है कि इस प्रकार का अंधविश्वास मुसलमानों और ईसाइयों ही तक महदूद है। हिंदुओं में भी कई ऐसे मत हैं जिनमें श्रद्धा का उससे कम दुरुपयोग नहीं किया गया, जैसा मुसलमानों में बाज़ फिरकों ने किया।...भारतवर्ष में भी ऐसे कामांध गुरुओं और महंतों की कमी नहीं रही।.. यह मानना पड़ेगा कि हर एक धर्म में भक्तों की सरलता और श्रद्धा से फ़ायदा उठानेवाले धूर्त रहे हैं, अब भी हैं और हिन्दुओं को उनसे सावधान रहना चाहिए।' 
प्रेमचंद ने स्वामी श्रद्धानंद की ही एक और किताब ‘हिन्दू-मुसलिम- इत्तहाद की कहानी’ की समीक्षा करते हुए जो कहा उसे पढ़िए:

'स्वामीजी ने हिन्दुओं और मुसलमानों के आपस के झगड़े की मुख़्तसर तारीख़ लिखी है। झगड़े हमेशा होते रहे हैं। हिन्दुओं की बौद्धों और जैनियों से खूब लड़ाइयाँ हुईं। मुसलमानों की बौद्धों से, बौद्धों की बौद्धों से, हिन्दुओं की हिन्दुओं से। गरज जातिगत और धर्मगत लड़ाइयाँ परम्परा से होती चली आ रही हैं। हिन्दू मुसलमान के सर पर इलजाम रखता है, मुसलमान हिन्दू के सर। दोनों पक्षों को अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए दलीलें और प्रमाण मिल जाते हैं और झगड़ा कभी तय नहीं होता।'
जब हम दावा करते हैं कि हम इतिहास से तथ्य सामने ला रहे हैं तो आज की साझा ज़िंदगी के बारे में हमारी क्या राय है, यह जाने बिना उस तथ्य का उद्देश्य संदिग्ध बना रहेगा। उनकी राय साफ़ है, 

 'जबतक हम दूसरों के अवगुणों पर परदा डालना और गुणों को देखना न सीखेंगे, जब तक हम अपने हृदय को उदार न बनाएंगे, तब तक सुधार की कोई आशा नहीं हो सकती।'

कितनी दूर से आवाज़ आ रही है, एक पुरखा बोल रहा है, कितनी साफ़ आवाज़ हैं, कितनी खरी, कितनी बेलौस!
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