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बाबरी विध्वंस के लिये ज़िम्मेदार तो नरसिंहराव भी थे, क्या वो भी बरी हो गये?

बाबरी मसजिद ध्वंस मामले में सभी अभियुक्त बरी हो गए हैं। इस फ़ैसले ने उन तमाम लोगों को भले ही बरी कर दिया हो जिन्हें सारी दुनिया ने सालों-साल 'मसजिद' के ध्वंस की कोशिशों में मशगूल रहते अपनी आँखों से देखा, लेकिन इस फ़ैसले ने भारतीय न्यायिक पद्धति को आने वाले समय के लिए अन्याय के गहरे कूप में धकेल दिया है, इससे कौन इंकार कर सकता है।
अनिल शुक्ल

बेशक़ सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने बाबरी मसजिद विध्वंस मामले में सभी 32 अभियुक्तों को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया है लेकिन जिस तरीक़े से इतने बड़े ऐतिहासिक सच का अदालत में दिवाला पिटा है उसके लिए अकेले अभियोजन पक्ष (सीबीआई) को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। यह वस्तुतः समूचे न्यायिक तंत्र की शर्मनाक असफलता का द्योतक है।

28 साल की लम्बी छानबीन में अभियोजन ने अदालत के सामने लगभग 40 हज़ार मौखिक तथा भौतिक साक्ष्य तैयार किए जिसके चलते 1026 गवाहों को समन भेजे गए और अंततः 351 लोग कोर्ट में गवाही के लिए हाज़िर हुए। चूँकि इन गवाहों में काफ़ी तादाद प्रिंट और टीवी पत्रकारों की भी थी, उनमें से ज़्यादातर का यह कहना है कि उनकी गवाही के दौरान जहाँ सीबीआई के एक या दो वकील अभियोजन की तरफ़ से उनके बयान करवाने की कोशिश करते थे वहीं डिफेन्स की तरफ़ से दर्जनों वकील इन गवाहों पर टूट पड़ते थे और इन्हें हर तरफ़ से 'होस्टाइल' करने की कोशिश होती जबकि वे वही बोल रहे होते थे जो दृश्य रिपोर्टिंग के दौरान उनकी आँखों के सामने से गुज़रे थे।

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हमारे देश में जाँच एजेंसियाँ और अभियोजन पक्ष कैसे सत्ताधीशों के पाँव की जूती होते हैं और कैसे वे उन्हें किसी भी गंभीर अपराधों से बाहर निकाल देते हैं, इसके लिए 'ओपन सीक्रेट' जैसी किताब को नए सिरे से पढ़े जाने की ज़रूरत है। गुप्तचरी पर मलयकृष्ण धर की किताब 'ओपन सीक्रेट' दीगर बातों के अलावा बाबरी मसजिद के ध्वंस पर भी चौंकाने वाले तथ्यों को उजागर करती है। ये तथ्य बताते हैं कि 'मसजिद' के ध्वंस से महीनों पहले ही प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को इस बात के पक्के प्रमाण मिल गए थे कि बीजेपी सहित समूचा आरएसएस 'कुनबा' आने वाले 6 दिसम्बर को 'बाबरी मसजिद' को ज़मींदोज़ करने की बाक़ायदा पुख्ता प्लानिंग कर चुका है। प्रधानमंत्री के रूप में वह चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय को इन तथ्यों का राज़दार बनाते हुए समूची अवैधानिक कारगुज़ारी पर एडवांस में ही पूर्णविराम लगा सकते थे।

'आईबी' में संयुक्त निदेशक के पद से रिटायर होने के बाद (सन 2005) छपी इस किताब में मलयकृष्ण बताते हैं कि उन्हें इस बात का आदेश मिला कि वह 'संघ', बीजेपी और विहिप के शीर्ष नेताओं की होने वाली बैठक की वीडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग का गुपचुप इंतज़ाम करें जिसमें प्रो. राजेन्द्रसिंह, केएस सुदर्शन, एच वी शेषाद्रि, लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, विजयराजे सिंधिया, उमा भारती, विनय कटियार आदि को मौजूद होना था। शीर्षस्थों की यह मीटिंग 'मसजिद' ध्वंस से 10 महीने पहले प्रस्तावित थी।

वह लिखते हैं कि इससे पहले तक वह स्वयं भी भीतर से 'आरएसएस' के कटु समर्थक थे लेकिन इस बैठक की बातचीत सुनकर वह स्तब्ध रह गए। मलयकृष्ण के अनुसार बैठक में किसी भी क़ीमत पर दिसम्बर में 'मसजिद' ढहा दिए जाने की सम्पूर्ण योजना तैयार हुई थी। ''यह मीटिंग दरअसल दस महीने बाद के अयोध्या में होने वाले प्रलय नृत्य के ब्ल्यू प्रिंट का 'कोरियोग्राफ़' थी।" वह बताते हैं कि उन्होंने वीडियो और ऑडियो टेप अपने बॉस (निदेशक आईबी) को दिए जिन्होंने इसे प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को जाकर दिखाए और सुनाए। 

अप्रैल 2014 में ऑनलाइन खोजी पत्रिका 'कोबरापोस्ट' ने अपने 'स्टिंग ऑपरेशन’ में दिखाया कि 'संघ' के शीर्ष नेता 'न्यायालय' में और जनता के बीच जो बोलते रहे थे, वह सच्चाई के ठीक विपरीत था।

उनका यह 'स्टिंग' वस्तुतः 'संघ', बीजेपी  और शिवसेना के उन ‘कर्मठ’ नेताओं के गुपचुप इंटरव्यू पर आधारित था जिन्होंने इस पूरे अभियान को सरंजाम दिया था। 'संघ' ने इसका नाम रखा था 'ऑपरेशन जन्मभूमि' जिसे कोबरापोस्ट ने भी अपने कार्यक्रम का शीर्षक बनाया। अपने इस 'स्टिंग' के ज़रिये खोजी पत्रिका ने यह स्थापना दी कि बाबरी मसजिद का विध्वंस हिंदूवाद में डूबी किसी भीड़ का उन्माद नहीं बल्कि राजनीतिक संगठनों द्वारा कई महीनों पहले सुनियोजित रूप से तैयार किया गया योजनाबद्ध प्लान था जिसे करने के लिए इन संगठनों के कार्यकर्ताओं को सघन प्रशिक्षण देने के साथ उन्हें और 'मॉक ड्रिल' भी दी गई थी। इसकी जानकारी किसी सरकारी एजेंसी को नहीं थी।

नरसिंह राव राम मंदिर निर्माण के पक्ष में थे!

यह सही है। 'मसजिद' के विध्वंस की एडवांस जानकारी सरकार में आईबी के अलावा सिर्फ़ 2 लोगों को थी-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव आलीशान राम मंदिर निर्माण के पक्ष में थे। यह बात उन्होंने 'मसजिद' विध्वंस के कुछ महीने पहले कांग्रेस कार्यसमिति की बंद कमरे में हुई बैठक में व्यक्त की थी और इससे पहले स्वतंत्रता दिवस के लाल क़िले के अपने उद्बोधन में भी उन्होंने खुलेआम अपनी इस ‘धार्मिक भावना’ का उल्लेख किया था। 'मसजिद' के विध्वंस पर वह यह सोचते थे कि 'पिंड छूटेगा।' उन्हें लग रहा था कि यदि ऐसा हुआ तो देश-दुनिया में आरएसएस को बदनामी मिलेगी और तब वे 'एजेंडा विहीन' हो जाएँगे। इसके बाद वह तुरंत 'एक्शन मोड' में आ जाएँगे और ऐसा करके वामपंथियों के दम पर बाक़ी के साढ़े तीन साल अपनी सरकार चलाने में उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं होगी। हक़ीक़त में यही हुआ। क्या नरसिंह राव अभियुक्त नहीं बनाये जाने चाहिए थे, भले ही आज का फ़ैसला जो भी होता?

मलयकृष्ण ने अपनी किताब में साफ़-साफ़ लिखा है कि उनके बॉस ने प्रधानमंत्री के अलावा देश के गृह मंत्री को भी वे टेप दिखाए और सुनाए। गृह मंत्री उस समय शंकरराव चव्हाण थे। गृह मंत्री के पास देश के सभी आवश्यक सम्पदा को सुरक्षित और संरक्षित रखने का संवैधानिक दायित्व होता है। जहाँ तक बाबरी मसजिद का सवाल है, यह समूचा प्रकरण सर्वोच्च न्यायलय के अधीन विचारार्थ था और अदालत ने इसे संभाल कर रखने के स्पष्ट आदेश दे रखे थे।

आलोक अड्डा में देखिए बाबरी मसजिद पर फ़ैसले पर चर्चा।

आईबी निदेशक द्वारा ऐसे टेप सौंपे जाने के बाद, जो साफ़ तौर पर 'मसजिद' के विध्वंस का ख़ाक़ा खींचते दिख रहे हैं, तब यह गृह मंत्री की निजी ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वह ऐसी किसी भी दुर्घटना को रोकने के लिए न सिर्फ़ चौतरफ़ा प्रबंध करें बल्कि 'कोर्ट' को भी इस मामले के संज्ञान से अवगत करवाएँ। लेकिन चव्हाण मौन व्रत धारण करके महीनों बैठे रहे और अंततः विध्वंस का कारक बने। शंकरराव चव्हाण ने न सिर्फ़ संविधान के प्रति ली गई निष्ठा की सौगंध के अलावा देश और इसकी करोड़ों जनता के साथ छल किया बल्कि इसके अतिरिक्त उन्होंने संविधान के रखवाले-सर्वोच्च न्यायालय को भी अँधेरे में रखा। क्या उन्हें अपराधियों के कटघरे में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए था?

सवाल यह नहीं है कि जो खुल्लमखुल्ला मंच पर थे, वही बरी हो गए तो इनका क्या हासिल होता, अभियोजन पक्ष को इन जैसे तमाम लोगों को भी अभियुक्त कटघरे में खड़ा करना चाहिए था जो बेशक़ पार्श्व मंच पर थे लेकिन जो उतने ही ज़िम्मेदार थे।

तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याणसिंह को तो सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में अभियुक्त बनाया है लेकिन प्रदेश के मुख्य सचिव, गृह सचिव, डीजी पुलिस, आदि की भी संवैधानिक ड्यूटी थी कि वे 'मसजिद' को ढहाने की किसी भी कोशिश को रोकते, प्रदेश सरकार ने आख़िर 'सुप्रीम अदालत' के सामने इस मामले में ऐसा करने की 'अंडरटेकिंग' दी थी। उन्होंने ऐसा नहीं किया। अभियुक्तों के कटघरे में उन्हें भी रखा जाना चाहिए था। इसी तरह फैज़ाबाद के तत्कालीन डीएम और एसएसपी भी संविधान, सर्वोच्च अदालत और देश के प्रति जवाबदेह हैं। डीएम रहे रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव को तो अभियुक्त बनाया गया है लेकिन एसएसपी देवेंद्र बहादुर राय को बख्श दिया गया। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि उक्त दिन घटनास्थल पर बड़ी संख्या में तैनात पीएसी ने न सिर्फ़ खुला खेल खेलने की छूट दी थी बल्कि ज़रूरत पड़ने पर विध्वंस के लिए उपयोग में आने वाले रस्से, कुदाल और कुल्हाड़ी जैसे उपकरण भी मुहैया करवाए थे। अभियुक्तों के कटघरे तक पीएसी के कमांडरों और बड़े अधिकारियों को भी पहुँचाया जाना चाहिए।

विचार से ख़ास

घटना क्या हुई थी?

6 दिसम्बर 1992 की पूर्वाह्न जब बाबरी मसजिद पर पहला वार हुआ, तब से लेकर अपराह्न साढ़े 4 बजे के आसपास तक, जबकि आख़िरी गुंबज गिराया गया, डेढ़ लाख से ज़्यादा 'कारसेवक' वहाँ मौजूद थे जिनमें अच्छी ख़ासी तादाद महिला कारसेवकों की भी थी। बाबरी मसजिद का विध्वंस केवल एक इमारत के ढहाए जाने की घटना मात्र नहीं थी, यह दरअसल देश के लोकतान्त्रिक ढांचे के ऊपर सांप्रदायिक मूल्यों की विजय भी थी। बेशक़ अयोध्या में उस दिन कुछ कारसेवक ही इमारत को ढहाए जाने के दौरान हुई दुर्घटना में हताहत हुए लेकिन बड़ी संख्या में मुसलिमों को पीटा गया ,कइयों की हत्या कर दी गयी और बहुतों की संपत्ति को लूट डाला गया। अयोध्या से उठी आग ने जिस तरह पूरे मुल्क के विश्वास को जलाकर राख कर दिया था, उसमें बाद में झुलसकर 2 हज़ार लोग मारे गए,  ज़ाहिर है जिनमें ज़्यादातर मुसलमान थे। अकेले मुंबई में 900 लोगों की मौत हुई थी। कुल मिलकर 9 हज़ार करोड़ रुपये की संपत्ति नष्ट हुई थी।

बीते 28 सालों के बाद आख़िरकार जो फ़ैसला आया उसमें कुछ लोगों को सज़ा सुनाई गई होती तो देश में कम से कम तेज़ी से गिरती जाने वाली न्यायपालिका की साख को कुछ संबल मिलता। बेशक़ जिन लोगों के ख़िलाफ़ यह फ़ैसला जाता वे सभी राजनीतिक तौर पर रिटायर्ड हो चुके हैं लिहाज़ा उनके राजनीतिक जीवन पर आज के फ़ैसले का कोई असर न पड़ता, लेकिन समाज के व्यापक हिस्से पर इसका असर पड़ता। 

यदि ऐसा न होता तो 'रथ यात्रा' से लेकर 'ढांचा' गिराने को अपने जीवन का श्रेष्ठतम राजनीतिक अवदान मानने वाले लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं को अपने बचाव की ख़ातिर अदालत में झूठ बोलकर ख़ुद को इस समूचे प्रकरण से अलग दिखाने की कोशिश न करनी पड़ती।

फ़ैसले में यदि अभियोजन पक्ष की ओर से सब कुछ 'ठीक' होता और जज साहब सज़ा का एलान कर सके होते तो निःसंदेह आज का फ़ैसला उन कठमुल्लावादी संगठनों और नेताओं के सामने भी एक चेतावनी के रूप में उभरता जो मथुरा और काशी में नए विवाद को खड़ा करने की कोशिश में लगे हुए हैं।
बहरहाल, इस फ़ैसले ने उन तमाम लोगों को भले ही बरी कर दिया हो जिन्हें सारी दुनिया ने सालों-साल 'मसजिद' के ध्वंस की कोशिशों में मशगूल रहते अपनी आँखों से देखा, लेकिन इस फ़ैसले ने भारतीय न्यायिक पद्धति को आने वाले समय के लिए अन्याय के गहरे कूप में धकेल दिया है, इससे कौन इंकार कर सकता है। भारतीय लोकतंत्र के ऐतिहासिक आँगन में बाबरी मसजिद का ध्वंस यदि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार एक जघन्य अपराध के रूप में हमेशा-हमेशा के लिए अंकित रहेगा तो उसी लोकतंत्र के उसी ऐतिहासिक आँगन में लखनऊ की सीबीआई सेशल कोर्ट का यह फ़ैसला भी हमेशा-हमेशा के लिए औंधे मुँह लटका रहेगा।
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