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5 अगस्त: तमाम हमलों के बाद भी मुसलिमों ने बदले की बात नहीं की! 

पड़ोस के मुसलिम मुल्कों के लिए भारत एक मिसाल था कि बहुसंस्कृतियां कैसे मिलजुल कर जी सकती हैं। अब उस सौम्य, आधुनिक छवि से पीछा छुड़ा चुकने के बाद प्रवासियों को भी चिंता होने लगी है क्योंकि कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, अमेरिका में रह रहे प्रवासियों पर 
आधिकारिक तौर पर भारत में चल रहे मुसलिम-विरोधी घटनाक्रम की आंच पड़ने लगी है। 
शीबा असलम फ़हमी

बीसवीं सदी में जब मंदिर प्रवेश-निषेध कर दलित समाज के प्रति हो रहे ज़ुल्म और तिरस्कार के सवाल पर डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर से पूछा गया कि दलित समाज के लोगों को मंदिर में दाख़िला नहीं मिलता, जबकि उनका दान ले लिया जाता है, ऐसे में दलितों के साथ नाइंसाफी होती है। इसके जवाब में अम्बेडकर ने कहा था कि हिन्दू समाज अपने ही समाज के एक बड़े वर्ग के साथ पूजा उपासना में जो जातिगत भेदभाव करता है, ये उसका नैतिक पतन और संकट है। 

अम्बेडकर ने कहा था, ‘मेरा ध्येय दलितों को मंदिर के अंदर पहुंचाना नहीं है, बल्कि मेरा लक्ष्य है कि मेरे समाज के लोग स्कूल, यूनिवर्सिटी और तंत्र के संस्थानों में पहुंचें। गैर बराबरी, नाइंसाफी, ज़ुल्म और तिरस्कार जिनका आचरण है वो खुद अपने नैतिक उत्थान के लिए अपने अंदर सुधार लाएं और खुद को एक मानवतावादी, आदर्श समाज साबित करें।’ 

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बात बिलकुल साफ़ है, आज की दुनिया मध्ययुगीन दुनिया नहीं है, जहां डंडे के ज़ोर से समाज चलता था। इंसाफ़, आज़ादी, बराबरी ये तीन ऐसे मूल्य हैं जिन्हें ठुकरा कर कोई भी समाज खुद को सभ्य नहीं कहला सकता। 

हागिया सोफिया का उदाहरण

1992 में जब बाबरी मसजिद को तोड़ा गया तब भी दुनिया ने उसे एक अपराध ही माना था, आज 2020 में इस्तांबुल का हागिया सोफिया जो कभी पागान मंदिर, फिर चर्च, फिर मसजिद, फिर म्यूज़ियम रहा- को दोबारा मसजिद में तब्दील करना भी दुनिया को कसैले स्वाद से भर गया। हालांकि तुर्की के किसी भी ईसाई ने इसका विरोध नहीं किया लेकिन तब भी ये हरकत बहुसंख्यकों की तंगदिली की मिसाल बनी।

सत्ताशाली समाज जब कमज़ोरों के साथ छोटापन करते हैं तो भले ही वो कमज़ोर चूं भी न कर सकें, लेकिन दुनिया उस कृत्य को संज्ञान में ज़रूर लेती है और ऐसी ही छवि बनती जाती है।

बाबरी मसजिद विध्वंस के बाद तालिबान ने भी एक घटिया मिसाल पेश की थी, 2001 में बामियान की प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ कर। लेकिन जब उनका शासन ख़त्म हुआ तो अफ़ग़ानिस्तान की आम जनता, नयी सरकार और विश्व समुदाय ने बामियान मूर्तियों को दोबारा ठीक करने का काम शुरू भी कर दिया। 

ज़ाहिर है आधुनिक समय में जब आबादियां एक मुल्क से दुसरे मुल्क में प्रवास कर रही हैं, दुनिया ग्लोबल हो रही है, तब ऐसी बदनामी के साथ कौन जीना चाहेगा? 

दुनिया का ऐसा कौन सा कोना है, जहां भारतीय प्रवासी नहीं बसे हुए हैं? हिन्दुत्व के उदय से पूर्व उनकी छवि विनम्र, मेहनती, क़ाबिल और शांतिप्रिय समूह के तौर पर होती थी। भारत एक सेक्युलर डेमोक्रेसी के तौर पर जाना जाता था, जहां सभी धर्मों को मानने वाले लोग आराम से रह सकते थे। 

भारतीय प्रवासियों की मुश्किलें 

पड़ोस के मुसलिम मुल्कों के लिए भारत एक मिसाल था कि बहुसंस्कृतियां कैसे मिलजुल कर जी सकती हैं। अब उस सौम्य, आधुनिक छवि से पीछा छुड़ा चुकने के बाद प्रवासियों को भी चिंता होने लगी है क्योंकि कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, अमेरिका जैसे देशों में रह रहे प्रवासियों पर आधिकारिक तौर पर भारत में चल रहे मुसलिम-विरोधी घटनाक्रम की आंच पड़ने लगी है। 

पीड़ित पक्ष से ही सवाल 

5 अगस्त की शाम एक चैनल पर चल रहे पैनल डिस्कशन में एंकर ने मुझसे सवाल किया कि भारत देश की छवि एक ऐसे देश की 'बनाई जा रही है' जहां अल्पसंख्यक मुसलिम समाज के साथ भेदभाव और ज़ुल्म हो रहा है, जिस तरह से चीन में उइगर और दूसरी जगह हो रहा है, इसको कैसे ठीक किया जाये? इस सवाल पर मुझे ताज्जुब हुआ कि एक भारतीय मुसलिम के तौर पर सैकड़ों लिंचिंग, फे़क एनकाउंटर, अन्यायपूर्ण गिरफ्तारियां, फ़र्ज़ी मुक़दमे, टार्गेटेड हिंसा, बलात्कार झेल रहे समाज से ही ये पूछा जाएगा कि 'आपको लेकर हमारी छवि जो ख़राब हो रही है, दुनिया भर में, उसे कैसे ठीक किया जाये?' यानी हिन्दू समाज की छवि विश्व भर में सुन्दर बनी रहे इसका ज़िम्मा भी पीड़ित को ही दिया जा सकता है? ये होती है असली घृष्टता!

बहरहाल, योध्या में 5 अगस्त, 2020 को वही हुआ जो पहले भी हो चुका है- भूमि पूजन! बाबरी मसजिद के तोड़े जाने पर केंद्र सरकार, राज्य सरकार और तमाम मीडिया इसे शर्मनाक, आपराधिक कृत्य बता रहे थे और जब मुसलिम समाज में भी ये उम्मीद थी कि खुलेआम देश के संविधान, क़ानून और मिलीजुली संस्कृति पर ऐसा कुठाराघात नहीं किया जाएगा, भूमि पूजन तब भी हुआ था जिसका हल्का-फुल्का विरोध ही हुआ था। 

1992 से 2020 तक अनेक छोटे-बड़े आयोजन उस विवादित स्थान पर होते ही रहे हैं। सबको पता था कि मंदिर निर्माण अब सिर्फ कुछ समय की बात है। इस बीच 1992 से अब तक अयोध्या में ज़ोर-शोर से मंदिर निर्माण से संबंधित पत्थर की कटाई, नक्काशी का काम लगातार जारी रहा है, ऐसे में अचानक 5 अगस्त को मीडिया में इस तरह क्यों दर्ज करवाया जाना था? 

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कोर्ट के फैसले पर रहे शांत 

2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने जब अयोध्या विवाद में फैसला दिया था तब भी आशंका थी कि मुसलिम समाज तीव्र प्रतिक्रिया देगा, पर नहीं, सब शांत रहे और ज़्यादातर ने फैसले को सार्वजानिक तौर पर स्वीकार किया। (बल्कि अंदरूनी तौर पर ये आमराय बन गयी थी कि अगर फैसला मुसलिम पक्ष में आया तो भी बतौर सद्भावना ये ज़मीन राम मंदिर निर्माण के लिए दे दी जानी चाहिए)। 

सैकड़ों लिंचिंग और हमलों के बाद भी मुसलिम समाज ने प्रतिक्रिया स्वरूप कभी किसी से बदला लेने की कोई कार्रवाई नहीं की, तमाम फ़र्ज़ी एनकाउंटर, मुक़दमे, गिरफ्तारियों के बावजूद कभी किसी हिन्दू भाई को प्रतिशोध में निशाना नहीं बनाया।

मीडिया पिछले 6-7 साल से हद दर्जे की बदतमीज़ी करता है दाढ़ी-टोपी वाले पैनेलिस्ट से, तब भी मुसलमान उस पिटे हुए प्यादे को ही समझाते हैं कि मत जाओ, लेकिन मीडिया पर निशाना नहीं साधते। 

देना होगा जवाब 

मुसलिम समाज के उत्थान के सवाल पर भी हमेशा भारत के मुसलमानों ने बेहतर स्कूली शिक्षा और रोज़गार ही मांगा है। इसलिए वो सभी पक्ष जो 5 अगस्त, 2020 को भारत के मुसलमानों को औक़ात दिखाने का अवसर मान रहे हैं, आज नहीं तो कल जवाब उन्हें ही देना है। पीड़ित पक्ष की ज़िम्मेदारी नहीं होती कि वो जुल्म करने वाले की नैतिकता की रक्षा करे, उसकी छवि को उजला बनाए और उसे अपराधबोध से बचाये। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ऐसे में जो युक्ति अपनाई, जाने-अनजाने मुसलमान उसी पर अमल कर रहा है। 

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शीबा असलम फ़हमी

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