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मोदी मुग़ालते में न रहें, राहुल लें संन्यास

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव नतीजे का संदेश साफ़ है। इस चुनाव में जनता ने बीजेपी को हराने की पूरी कोशिश की। लेकिन कांग्रेस ने भी तय कर रखा था कि वह जीतेगी नहीं। बहरहाल, यह तो साफ़ लग रहा है कि विपक्ष के लिए ज़मीन पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुई है। बिहार और गुजरात के उपचुनाव के नतीजे भी कहते हैं- मेहनत करो, क़िस्मत बदल सकती है। पर क्या विपक्ष लाठी-डंडा खाने के लिए तैयार है?
आशुतोष

नरेंद्र मोदी को अब किसी मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए। राहुल गाँधी को फ़िलहाल राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव का यह साफ़ संदेश है। मोदी समझदार हैं, चतुर हैं, इसलिए वह सावधान हो जाएँगे पर राहुल गाँधी कोई सबक़ सीखेंगे, मुझे संदेह है। इस चुनाव में जनता ने बीजेपी को हराने की पूरी कोशिश की। पर कांग्रेस ने तय कर रखा था कि वह हर हाल में नहीं जीतेगी। वह बीजेपी और इसके साथियों को पूरी मेहनत से जिताने का काम करेगी। अब इसे उसका निकम्मापन कहें या काहिली या फिर चुनाव से पहले ही हार मान लेने की फ़ितरत। लेकिन इतना तय है कि इन चुनावों ने मोदी और अमित शाह का नशा हिरन कर दिया है। उनका अहंकार तोड़ दिया है। जनता का संदेश साफ़ है- जनता के मुद्दों पर काम करो, हवा हवाई बातें बंद करो। मूर्ख बनाना छोड़ो।

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इस चुनाव के पाँच बड़े सबक़ हैं।

1. राष्ट्रवाद 

बीजेपी और संघ परिवार के राष्ट्रवाद के मुद्दे की एक सीमा है। यह बड़ा चुनावी मुद्दा बन कर बीजेपी को आशातीत सफलता देगा, इस पर गहरे सवाल खड़े हो गए हैं। मौजूदा चुनावों को अनुच्छेद 370 के इर्द-गिर्द रखने की पूरी कोशिश मोदी और अमित शाह ने की। महाराष्ट्र और हरियाणा की चुनावी रैलियों में इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया गया। मोदी ने महाराष्ट्र की रैली में कहा कि जो पार्टी या नेता अनुच्छेद 370 का समर्थन नहीं कर सकता वह डूब मरे। ऐसी भाषा वैसे तो प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को शोभा नहीं देती, लेकिन मोदी ने पूरी कोशिश की कांग्रेस और राष्ट्रवादी पार्टी को अनुच्छेद 370 हटाने का विरोधी बताकर देश विरोधी साबित करने की। अमित शाह ने भी कहा कि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में जनता यह बता देगी कि वह 370 हटाने के पक्ष में है या नहीं। दोनों नेताओं ने अनुच्छेद 370, और इस बहाने कश्मीर और पाकिस्तान का नारा बुलंद कर राष्ट्रवाद को नयी खाद और ऊर्जा देने का प्रयास किया। हरियाणा में बीजेपी को बहुमत नहीं मिला और महाराष्ट्र में सावरकर को भारत रत्न देने का वादा करने के बाद भी बीजेपी की सीटें घटी हैं। 

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के गृह ज़िले में बीजेपी सीटें हार गयी। यानी राष्ट्रवाद की आड़ में महाराष्ट्र में बीजेपी गठबंधन 220 का आँकड़ा नहीं छू पायी और हरियाणा में 75 प्लस का टार्गेट बहुमत से कम पर आ टिका।

2. हिंदुत्व

इन चुनावों ने यह भी साबित कर दिया कि हिंदुत्व के मसले पर ध्रुवीकरण करा हिंदू वोटों को घनीभूत करने का प्रोजेक्ट अभी इस हद तक नहीं पहुँचा है कि वह बीजेपी को अपने बल पर ही चुनाव जिता सके। अनुच्छेद 370, बांग्लादेशी घुसपैठिये और तीन तलाक़ बीजेपी के हिंदुत्व के बड़े पुराने मुद्दे हैं। अनुच्छेद 370 में बदलाव कर दिया गया। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान के लिए बने एनआरसी को पूरे देश में लागू करने की माँग इन चुनावों में बीजेपी के कई राज्यों के नेताओं ने की। अमित शाह ने यहाँ तक कहा कि घुसपैठियों को चुन-चुन बाहर करेंगे, ये दीमक हैं, देश के दुश्मन हैं। इस मुद्दे के बहाने उनके निशाने पर मुसलिम तबक़ा था। यह बात तब खुलकर साफ़ हो गयी जब नागरिकता क़ानून की बात की गयी और कहा गया कि देश के बाहर से आए हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसियों को नागरिकता दी जा सकेगी। क्योंकि ये शरणार्थी हैं। मतलब पड़ोसी देशों से आये मुसलमान घुसपैठिये हैं। हिंदू-मुसलमान का मुद्दा बीजेपी और संघ परिवार का प्रिय विषय है। पर यह कार्ड पूरी तरह इस चुनाव में नहीं चला।

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3. डूबती अर्थव्यवस्था

राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के नहीं चलने के पीछे सबसे बड़ा कारण है देश की डूबती अर्थव्यवस्था। देश इस वक़्त 1991 जैसे आर्थिक संकट से जूझ रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। गाँवों में माँग लगभग ख़त्म हो गयी है। लोग सिर्फ़ ज़रूरी चीज़ें ही ख़रीद रहे हैं। शहरों में माँग कम होती जा रही है। औद्योगिक उत्पादन नकारात्मक हो गयी है। इसका मौजूदा सूचकांक -1.1 (माइनस में) है। आठ कोर सेक्टर्स में से पाँच में भी नकारात्मक वृद्धि है। आयात निर्यात नीचे जा रहा है। बेरोज़गारी पैंतालीस साल के सबसे ऊँचे पायदान पर है। ऑटो सेक्टर में ख़ून खच्चर मचा हुआ है। वाहनों की बिक्री दर लगातार गिर रही है। स्टॉक मार्केट में विश्वास का अभाव है। बैंकों की हालत बद से बदतर हो रही है। उद्योगपति धंधे के लिए बैंकों से क़र्ज़ नहीं ले पा रहे हैं। आरबीआई, विश्व बैंक, आईएमएफ़, मूडीज़ जैसी संस्थाओं ने अनुमानित विकास दर को काफ़ी घटा दिया है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष कह चुके हैं कि मौजूदा नकदी का संकट पिछले सत्तर साल का सबसे बड़ा संकट है। 

महाराष्ट्र चार लाख करोड़ के क़र्ज़ में डूबा है, आधा राज्य सूखे की चपेट में है। हरियाणा में बेरोज़गारी दर 8.6% है। पर इस पर मोदी और अमित शाह ने चर्चा नहीं की। जनता ने जता दिया कि इस पर बात तो करनी पड़ेगी और जल्दी क़दम नहीं उठे तो मोदी सरकार को लेने के देने पड़ेंगे।

4. राहुल गाँधी

समय आ गया है जब राहुल गाँधी को यह तय कर लेना चाहिए कि उन्हें राजनीति में रहना है या नहीं। वह कांग्रेस में हैं भी और नहीं भी। पूरे चुनाव में सिर्फ़ सात रैलियाँ कीं। हरियाणा में दो और महाराष्ट्र में पाँच। जबकि मोदी और अमित शाह ने चालीस से अधिक रैलियाँ कीं। राजनीति में कोपभवन के लिए जगह नहीं है। उनकी अनुपस्थिति में कांग्रेस ने मतगणना से पहले ही हार मान ली थी। पार्टी सिर्फ़ लड़ने के लिए लड़ रही थी। कोई तैयारी कांग्रेस की नहीं थी। न उनके पास मुद्दे थे और न ही नेता। अनुच्छेद 370 और सावरकर पर पार्टी में दो धड़े साफ़ दिखे। ऐसे में जनता किस भरोसे कांग्रेस को वोट देती और क्यों वोट देती? फिर भी जनता ने रहमदिली दिखायी और यह जता दिया कि कांग्रेस एक विकल्प है, बशर्ते वह मेहनत करे, जनता के लिए लड़े-मरे।

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5. दस जनपथ की दरबारीगिरी

कांग्रेस में अब दस जनपथ की दरबारीगिरी ख़त्म करनी होगी। हरियाणा तो कांग्रेस ने तस्तरी में सजा कर बीजेपी को भेंट कर दी। अशोक तंवर नाम के आदमी को बहुत पहले ही हटा देना चाहिए था। पूरी पार्टी का बेड़ा गर्क करने वाला यह नेता इतना बेगैरत निकला कि पद से हटाए जाने के बाद धरना-प्रदर्शन पर आ गया और अंत में पार्टी छोड़ दी। तंवर जैसे लोग ही कांग्रेस का भट्टा बिठा रहे हैं। यही हाल मुंबई में संजय निरूपम का रहा। मिलिंद देवड़ा को ‘निकम्मा’ कहने वाले संजय को यह सोचना चाहिए कि अब उन्हें पार्टी में रहना चाहिए या नहीं। पार्टी को अगर कड़ा संदेश देना है तो संजय निरूपम को पार्टी से निकाल देना चाहिए और जनाधार वाले नेताओं को आगे लाकर पार्टी को आगे बढ़ाने का एजेंडा लागू करना चाहिए। पार्टी ने अगर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को पहले कमान दी होती तो नतीजे बेहतर होते, हो सकता है हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बन जाती। शरद पवार से हर कांग्रेसी को सीखना चाहिए। यानी संदेश साफ़ है। प्रादेशिक स्तर पर क्षत्रपों को कमान दो, उनपर भरोसा करो, दरबारियों से किनारा करो।

राजनीति वैसे गूढ़ विषय है। पर यह साफ़ लग रहा है कि विपक्ष के लिए ज़मीन पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुई है। बिहार और गुजरात के उपचुनाव के नतीजे कहते हैं- मेहनत करो, क़िस्मत बदल सकती है। पर क्या विपक्ष लाठी-डंडा खाने के लिए तैयार है?
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