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क्या ट्रंप की धौंसपट्टी में आ गए मोदी?

ट्रंप ने जीवन भर व्यापार किया है और विदेश नीति उनके लिए किसी व्यापार से कम नहीं है। एक 'चतुर' व्यापारी के तौर पर मुनाफ़ा कमाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। लेकिन चीन के दबाव ने ट्रंप प्रशासन की चूलें हिला दी थीं, लिहाज़ा वह चीन से आगे निकलने की होड़ में पूरी दुनिया को हिला देना चाहते हैं।
आशुतोष
क्या डोनल्ड ट्रंप अपनी दादागिरी में कामयाब रहे? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ट्रंप की धौंसपट्टी में आ गए? क्या अमेरिका भारत की बाँहें मरोड़ने में सफल रहा? क्या मोदी का राष्ट्रवाद ट्रंप के राष्ट्रवाद के आगे हार गया? या मोदी ट्रंप को अपने हिसाब से समझाने मे कामयाब रहे और उन्होंने ट्रंप की मनमर्जी नहीं चलने दी। शुक्रवार को जापान के ओसाका शहर में ट्रंप और मोदी की मुलाक़ात के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि मोदी-ट्रंप वार्ता में कौन जीता, कौन हारा?
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ख़ुद को राष्ट्रपति नहीं समझने वाला राष्ट्रपति?

दोनों नेताओं के बीच शिखर वार्ता के बाद यह तय हुआ कि भारत और अमेरिका के वाणिज्य मंत्री कुछ दिनों के बाद मिलेंगे और दोनों देशों के बीच खटास को कम करने की कोशिश करेंगे। जैसा कि सबको याद होगा, डोनल्ड ट्रंप ने मोदी से मुलाक़ात के ठीक पहले ट्वीट कर यह कहा था - 'भारत अमेरिकी सामानों पर काफ़ी टैक्स वसूलता है और पिछले दिनों और ज़्यादा बढ़ा दिया गया। यह बात किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं है।' ट्रंप का यह ट्वीट अंतरराष्ट्रीय राजनय और विदेश नीति की शास्त्रीय परिभाषा से बिल्कुल परे है।
ऐसा शायद ही कभी हुआ हो जब कोई राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे बड़े नेता से मिलने जा रहा हो और मिलने के ठीक पहले एक तल्ख़ संदेश देने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन डोनल्ड ट्रंप अपने तरह के अजूबे नेता हैं, वह शायद आज भी अपने आप को राष्ट्रपति नहीं समझ पाए हैं।
वह हर मामले में धौंसपट्टी देते रहते हैं, चाहे वह भारत तो या ईरान या तुर्की और रूस या उनके अपने ही देश का मीडिया हो, जिसे वह सुबह से शाम तक फ़ेक न्यूज़ करार देते रहते हैं। 
ट्रंप के ट्वीट से दो बातें स्पष्ट हैं। एक भारत और अमेरिका के रिश्ते अब पहले जैसे नहीं रहे, उनमें तल्ख़ी है और खटास। दूसरा, ट्रंप अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के साथ साथ भारत को दबाव में भी लेना चाहते हैं।

अमेरिका-चीन होड़

भारत और अमेरिका के रिश्ते शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद काफ़ी बेहतर हुए। अमेरिका को भारत के रूप में एक बड़ा बाज़ार दिखाई दिया और भारत को सोवियत संघ के टूटने के बाद एक ऐसा देश मिला जो उसकी अर्थव्यवस्था को उबारने में सहयोगी साबित हो। 1991 के बाद चाहे बिल क्लिंटन हो या जॉर्ज बुश या बराक ओबामा, भारत के रिश्ते अमेरिका के साथ बेहतर होते गए। लेकिन ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों के रिश्तों में एक नया मोड़ आया। इस मोड़ का सबसे बड़ा कारण है व्यापार। जब डोनल्ड ट्रंप ने अमेरिका की बागडोर संभाली तो अमेरिका की हालत ठीक नहीं थी। वह 2008 की मंदी की मार से पूरी तरह उबर नहीं सका था। बेरोज़गारी बढ़ रही थी। अमेरिकी कंपनियों को चीन की कंपनियों से ज़बरदस्त प्रतिस्पर्द्धा मिल रही थी। चीन एक के बाद एक अमेरिकी प्रभाव वाले बाज़ारों पर कब्जा करता जा रहा था और  दुनिया के सभी बाज़ारों में चीनी सामान छा रहे थे। ट्रंप ने राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्याशित रूप से जीता था और उन्होंने जनता से वायदा किया था कि वह 'अमेरिका को फिर से महान बनाएँगे'। 
ट्रंप ने जीवन भर व्यापार किया है और विदेश नीति उनके लिए किसी व्यापार से कम नहीं है। एक 'चतुर' व्यापारी के तौर पर मुनाफ़ा कमाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। लेकिन चीन के दबाव ने ट्रंप प्रशासन की चूलें हिला दी थीं, लिहाज़ा वह चीन से आगे निकलने की होड़ में पूरी दुनिया को हिला देना चाहते हैं।

ट्वीट के मायने

ट्रंप दुनिया के तमाम देशों पर यह लगातार दबाव बनाते रहे कि वे अपने बाज़ार अमेरिकी कंपनियों के लिए खोल दें और ऐसा नहीं करते तो वह ऐसे देशों से कड़ाई से निपटेंगे। इसी प्रक्रिया में उन्होंने स्टील और अल्यूमिनियम के आयात शुल्क में आशातीत वृद्धि की, जिसका सीधा नुक़सान भारत को हुआ। ट्रंप लगातार यह शिकायत करते रहे कि भारत अमेरिकी सामानों के लिए अपने बाज़ार पूरी तरह नहीं खोलता और साथ ही आयात शुल्क भी बहुत ज्यादा है। इससे अमेरिकी कंपनियों को नुक़सान है। बाद में अमेरिका ने भारत को जीपीएस से बाहर कर दिया और उससे मिलने वाली रियायत बंद कर दी। बदले में भारत ने अमेरिका के 28 सामानों पर आयात शुल्क बढ़ा दिया।
डोनल्ड ट्रंप का ट्वीट भारत के इस कदम के विरोध में था। ऐसे में अगर भारत अमेरिका के साथ वाणिज्य मंत्री के स्तर पर बातचीत के लिए तैयार होता है तो भारत पर यह दबाव होगा कि वह अमेरिकी सामानों पर लगने वाली ड्यूटी को कम करे और अपने बाज़ार निर्वाध रूप से अमेरिका के लिए खोल दे। यदि भारत इसके लिए तैयार होता है तो यह देश के लिए अच्छी ख़बर नहीं होगी।

तेल का खेल

कुछ महीने पहले ही भारत ने एक तरीके से अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए थे जब उसने ट्रंप की घुड़की मान कर ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया था। अमेरिका ने यह धमकी दी थी कि भारत समेत कोई भी देश अगर ईरान से पेट्रोलियम उत्पाद खरीदेगा तो वह उसके ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगा देंगे। भारत को इस पर अमल के लिए छह महीने का वक़्त दिया गया था। हम आपको बता दें कि मोदी सरकार के इस फ़ैसले से गिरती अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लग सकता है क्योंकि ईरान भारत को तेल सप्लाई करने वाले मुल्कों में दूसरे नंबर का देश था और वह तकरीबन 4,25,000 बैरल तेल प्रति दिन तेल देता था। अब भारत को ईरान की जगह तेल सप्लाई करने वाले नए देशों की खोज करनी होगी और पहले से ज्यादा क़ीमत चुकानी होगी। भारत अपनी ज़रूरत का 80 प्रतिशत तेल बाहर से ख़रीदता है, यानी पेट्रोल डीज़ल के आयात पर आने वाला नया ख़र्चा भारत के लिए भारी बोझ साबित होगा।
कयास यह भी लगाया जा रहा है कि ईरान संकट की वजह से नवंबर-दिसंबर तक पेट्रोल 90-100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच जाएगा और तेल के ख़र्चे में प्रति एक डॉलर की वृद्धि से भारत पर 10,700 करोड़ रुपए सालाना का खर्च आएगा। ऐसे में भारत का आँख मूंद कर अमेरिका की बात मानना सही नहीं मालूम पड़ता है।

सुरक्षा की सियासत

ईरान मसले के अलावा अमेरिका दो और मामलों में भारत की बाँहें मरोड़ने की तैयारी कर रहा है। एक मामला रूस से एस 400 ज़मीन से आसमान में मार करने वाले मिसाइल सिस्टम का है। भारत रूस से 5 एस 400 रक्षा उपकरण ख़रीद रहा है, जिस पर तकरीबन 40,000 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। अमेरिका का कहना है कि यदि भारत रूस से यह सौदा करेगा तो वह भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा देगा। अंतरराष्ट्रीय मामलों में यह एक तरह की गुंडागर्दी कर रहा है। 
अमेरिका कैसे तय करेगा कि भारत किससे रक्षा उपकरण खरीदे, किससे नहीं? रूस भारत का दशकों पुराना दोस्त है, जबकि अमेरिका से भारत की दोस्ती हमेशा संदिग्ध रही है। ऐसे में तमाम मित्रता के बावूजद रक्षा मामलों में भारत अमेरिका पर भरोसा नहीं कर सकता।

ह्वाबे नहीं तो कौन?

ट्रंप भारत पर यह भी दबाव डाल रहे हैं कि वह चीन की कंपनी ह्वाबे की मदद से 5 जी का नेटवर्क तैयार न करे। ट्रंप की पूरी कोशिश है कि ह्वाबे की जगह भारत किसी अमेरिकी कंपनी की मदद ले।  1987 में शुरू हुई यह कंपनी आज दुनिया की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी है और दूसरे नंबर की फ़ोन निर्माता। ह्वाबे के दबदबे से दहशत में आकर ट्रंप ने अमेरिका में ह्वाबे पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। उस पर यह आरोप लगाया कि ह्वाबे चीनी सेना के लिए काम करती है और उसके इशारे पर अमेरिका में गुप्तचरी को अंजाम दे सकती है। हो सकता है कि ट्रंप के आरोप सही हो, लेकिन भारत के संदर्भ में ह्वाबे के बारे में ऐसा कोई भी तथ्य सामने नहीं आया है। लेकिन इससे बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका कौन हौता है यह तय करने वाला कि भारत किस देश और किस कंपनी की मदद से 5 जी नेटवर्क तैयार करे? इसे सरासर गुंडागर्दी कहा जा सकता है।
इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के बीच रिश्ते भले ही ऊपर से बहुत ही बेहतर लग रहे हों, लेकिन ट्रंप के वेश में अमेरिका भारत को दबाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहता, चाहे वह एस 400 का मसला हो, 5 जी का या ईरान से पेट्रोल लेने का। उसकी एक मात्र कोशिश यह है कि भारत चीन से अपनी नज़दीकी छोड़े और अमेरिकी के खेमे में खड़ा हो जाए और वही करे जो अमेरिका चाहता है। डोनल्ड ट्रंप एक चतुर व्यापारी भले हों, लेकिन नरेंद्र मोदी एक कुशल राजनेता हैं। ऐसे में वह ट्रंप के जाल में फँसेंगे, ऐसा लगता तो नहीं है। फिर भी उन्हें हर कदम संभाल कर रखना होगा और देखना होगा कि कहीं वह ट्रंप के जाल में फँस तो नहीं रहे हैं। ऐसे में वाणिज्य मंत्रियों की मुलाक़ात आने वाले दिनों में भारत-अमेरिका रिश्तों की दिशा तय करेगा। यह भी तय होगा कि अमेरिका भारत को झुका पाएगा या नहीं और यह भी कि ट्रंप का राष्ट्रवाद मोदी के राष्ट्रवाद पर भारी पड़ेगा या नहीं।
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