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20 लाख करोड़: तीन दिनों से राहत कम, भाषण ज़्यादा बरस रहा है

वैसे ‘आत्म-निर्भर’ का मतलब क्या है? यही कि हमें आयात पर निर्भर नहीं रहना पड़े, देश की ज़रूरतें देश में ही उत्पादित सामानों से पूरी हों। मोटे तौर पर क्रूड ऑयल, सोना और रक्षा ख़रीदारी, यही तीन क्षेत्र हैं जहाँ भारत आत्म-निर्भर नहीं है। यही हमारा मुख्य और स्थायी आयात का क्षेत्र भी है। बाक़ी आयात की हिस्सेदारी बहुत छोटी है। इसीलिए, ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ का असली मक़सद समझना मुश्किल नहीं है। 
मुकेश कुमार सिंह

ग़रीब हो या अमीर, जब जनता 20 लाख करोड़ रुपये के सुहाने पैकेज वाले झुनझुने की झंकार सुनने को बेताब हो तब तीन दिनों से राहत कम और भाषण ज़्यादा बरस रहा है। कोरोना संकट से चरमराई अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए वित्त मंत्री ने लगातार दूसरे दिन अपना भानुमति का पिटारा खोला। पहले दिन मुख्य फ़ोकस लघु, छोटे और मझोले उद्योगों (एमएसएमई) पर रहा तो दूसरे दिन किसानों, प्रवासी मज़दूरों, रेहड़ी-पटरी वालों, मध्यम वर्ग के लिए रियायतों की घोषणा हुई। लेकिन वित्त मंत्री के पास मामूली रियायतें देने और नयी योजनाओं के एलान के सिवाय कुछ ख़ास नहीं था। ज़ाहिर है कुछ एलान अच्छे भी हैं, लेकिन ज़्यादातर बातें झुनझुना ही हैं।

किसानों के लिए पैकेज

किसानों की सबसे बड़ी समस्याएँ हैं– खेती की लागत का अधिक होना, फ़सलों को बाज़ार नहीं मिलना, बाज़ार में उचित दाम नहीं मिलना। लेकिन इन तीनों ही मोर्चों के लिए वित्तमंत्री के पास कोई राहत नहीं थी। इसीलिए बीज-खाद जैसी लागत के लिए उन्हें कुछ नहीं सूझा। उनके पास किसानों के लिए क़र्ज़ और रियायती ब्याज का दायरा बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं था। उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के बाद 25 लाख नये किसान क्रेडिट कार्ड बने हैं। इन्हें मिलाकर 3 करोड़ किसानों को 4.22 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ बाँटा गया है। किसानों को पिछले क़र्ज़ों की किस्तें नहीं भरने से छूट भी 31 मई तक बढ़ायी गयी है। कृषि मंडियों के लिए राज्यों को 6700 करोड़ रुपये देने का पैकेज ज़रूर जारी हुआ है। इसी तरह, छोटे किसानों को रियायती क़र्ज़ देने के लिए पूर्व निर्धारित 90,000 करोड़ रुपये की योजना में 30,000 करोड़ रुपये और बढ़ाने का फ़ैसला लिया गया है। इससे उन 2.5 करोड़ किसानों को क़र्ज़ देने की कोशिश होगी जिनके पास किसान क्रेडिट कार्ड नहीं हैं। 

यह रक़म औसतन 2000 रुपये प्रति किसान सालाना बैठती है, जो महीने से सौ रुपये से भी कम का आबंटन है। अब आप चाहें तो इसे लेकर ताली-थाली बजा सकते हैं।

शहरी ग़रीबों का पैकेज

मज़दूरों की दुर्दशा को देखते हुए अब सरकार इनके लिए बहुत कुछ करने की बात कर रही है। जैसे पूरे देश में न्यूनतम मज़दूरी को एक-समान करना क्योंकि अभी देश के 30 फ़ीसदी मज़दूरों को ही न्यूनतम मज़दूरी मिल पाती है। जोख़िम भरे उद्योगों के मज़दूरों को कर्मचारी बीमा (ईएसआईसी) से अनिवार्य तौर पर जोड़ना, बेरोज़गार हुए मज़दूरों की री-स्किलिंग करना, साल में एक बार हरेक मज़दूर के स्वास्थ्य की जाँच करवाना और मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ दिलवाना उन्हें असंगठित क्षेत्र से उठाकर संगठित क्षेत्र का हिस्सा बनाना। लेकिन वित्तमंत्री की ये तमाम बातें बजट भाषण की तरह ही हैं। इसमें पैकेज जैसा कुछ नहीं है। अलबत्ता, सरकार ने 44 श्रम क़ानूनों को मिलाकर जो Code of Wages Act, 2019 बीते अगस्त में बनाया था, उसके नियमों का अभी तक कोई अता-पता नहीं है। लिहाज़ा, श्रमिकों को लेकर वित्त मंत्री ने जितनी बातें की हैं वो ‘थोथा चना बाजे घना’ जैसी ही हैं।

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एमएसएमई पैकेज की श्रेणियाँ

पहले दिन 20 लाख करोड़ रुपये के कोरोना पैकेज में से वित्तमंत्री ने सबसे पहले उस लघु, छोटे और मझोले श्रेणी (एमएसएमई) के उद्यमियों की परवाह की जिसकी 6.5 करोड़ इकाइयों से 12 करोड़ लोग रोज़गार पाते थे। खेती के बाद अर्थव्यवस्था का यही सेक्टर देश के सबसे अधिक लोगों का पेट भरता है। इसी में सबसे अधिक बेरोज़गारी पैदा हुई है। वित्तमंत्री ने एमएसएमई को सबसे बड़ा तोहफ़ा यह दिया कि उसकी परिभाषा बदल दी। इसकी माँग भी बहुत पुरानी थी। इसमें मैन्यूफ़ैक्चरिंग और सर्विस वाली श्रेणियाँ ख़त्म करके लघु, छोटे और मझोले, तीनों श्रेणियों के लिए निवेश और टर्न ओवर की सीमा को ख़ासा बढ़ाया गया। यह पैकेज नहीं बल्कि सुधारवादी क़दम है। फिर भी सरकार को शाबाशी मिलनी चाहिए।

अगला एलान है– संकट झेल रहे 45 लाख एमएसएमई को निहाल करने के लिए 3 लाख करोड़ रुपये का पैकेज देना। उद्यमियों को यह रक़म चार साल के लिए बतौर क़र्ज़ दी जाएगी। बदले में उन्हें कोई गारंटी नहीं देनी पड़ेगी और ना ही किसी सम्पत्ति को गिरवी रखना होगा। यानी, यदि यह रक़म डूब गयी तो बैंकों को इसकी भरपाई केन्द्र सरकार करेगी। इस ‘नो गारंटी, नो कोलेटेरल’ श्रेणी वाले क़र्ज़ पर साल भर तक कोई ब्याज नहीं भरना पड़ेगा। अब सवाल यह कि 3 लाख करोड़ रुपये के इस पैकेज का ज़मीनी असर क्या होगा?

3 लाख करोड़ रुपये को यदि सामान्य श्रेणी वाले 45 लाख एमएसएमई के बीच बराबर से बाँटा जाए तो हरेक के हिस्से में 6.66 लाख रुपये आएँगे।

यही वह रक़म है, जिसे देखकर उद्यमी चाहें तो ख़ुशियाँ मना सकते हैं। बीमार (Stressed and NPA) श्रेणी वाले 2 लाख एमएसएमई के लिए भी 20,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह मदद 10 लाख रुपये प्रति इकाई बैठती है। पैकेज के बग़ैर 2 लाख उद्यमियों के लिए बैंकों से इसे पाना मुश्किल होता, क्योंकि वो पिछले देनदारी नहीं चुका पाये। फ़िलहाल, यह कहना मुश्किल है कि 10 लाख रुपये के टॉनिक से कितने बीमार एमएसएमई के दिन फिर जाएँगे और कितने इस रक़म को भी डुबो देंगे?

एमएसएमई पैकेज का क्या मतलब?

अब बात ‘ग्रोथ पोटेंशियल’ वाली उस श्रेणी के एमएसएमई की जिसे सही मायने में ‘भारत को आत्म-निर्भर’ और ‘विश्व गुरु’ बनाना है। ‘2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर वाली इकोनॉमी’ बनाने का दारोमदार भी इसी श्रेणी पर है। शायद कोरोना संकट और 2016 से जारी मन्दी को देखते हुए फ़िलहाल यह नारा स्थगित हो गया है। वर्ना, प्रधानमंत्रीजी ‘आत्म-निर्भर भारत’ की बातें करते वक़्त इसका ज़िक्र क्यों नहीं करते?

बहरहाल, ग्रोथ पोटेंशियल वाले लघु, छोटे और मझोले श्रेणियों के उद्योगों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए 50,000 करोड़ रुपये का ‘फंड ऑफ़ फ़ंड फ़ॉर इक्विटी इन्फ्यूज़न’ भी बनाया गया है। वैसे यह भी नये जुमले वाला एक क़र्ज़ ही है। इसे ज़बरन एमएसएमई पैकेज का चोला पहनाया गया है।

पैकेज में घुसा झुनझुना 

एमएसएमई के लिए दो अन्य राहत भी मिली है। पहला, 200 करोड़ रुपये तक की सरकारी ख़रीद के लिए अब ग्लोबल टेंडर नहीं होगा। ताकि स्वदेशी कम्पनियों को ही यह धन्धा मिल सके। दूसरा, सरकार और इसकी कम्पनियों में जिन एमएसएमई का पेमेंट फँसा हुआ है, उसका भुगतान अगले 45 दिनों में हो जाएगा। ग्लोबल टेंडर की बात तो समझ में आती है, लेकिन बकाया भुगतान को वित्तमंत्री किस मुँह से पैकेज बता सकती हैं? एमएसएमई का बकाया उन्हीं का पैसा है, उनका हक़ है। इसे कमीशनख़ोर नौकरशाही अपने भ्रष्टाचारी हथकंडों में फँसाकर रखती है। इसे भी देने के लिए सरकार को 45 दिन समेत शाबाशी भी चाहिए।

इसी तरह, 14 लाख आयकरदाताओं का 5 लाख रुपये तक का रिफंड कर देना भी कोई पैकेज नहीं है। वित्तमंत्री का यह कहना भी फ़िज़ूल है कि इससे आयकर रिफंड से अर्थव्यवस्था में 80,000 करोड़ रुपये की लिक्विडिटी बढ़ गयी।

कैसे भला? क्या रिफंड पाते ही लोगों ने उस रक़म को ख़र्च कर दिया? क्या यह लोगों की कोई नयी आमदनी है? यह भी उन्हीं का पैसा है।

ऐसा ही झुनझुना वो एलान भी है कि चालू वित्त वर्ष में टीडीएस कटौती में 25 फ़ीसदी की छूट दी जाती है। अरे, क्या इससे टैक्स घट गया, जो ख़ुशी मनायें? रियायत सिर्फ़ इतनी है कि जिसे 100 रुपये टीडीएस जमा करना है, वो अभी 75 रुपये जमा करेगा। लेकिन रिटर्न भरते वक़्त उसे ये 25 रुपये भी भरने होंगे। फ़िलहाल, झुनझुना बजाती वित्तमंत्री को लगता है कि ऐसा करके वो अर्थव्यवस्था में 50,000 करोड़ की लिक्विडिटी बढ़ा देंगी।

ग़ैर बैंकिंग पैकेज की हक़ीक़त

लॉकडाउन के बाद सरकार ने म्यूच्युल फ़ंड की मदद के लिए 50,000 करोड़ रुपये के पैकेज का एलान किया। फ़िलहाल, यह रक़म अनुपयोगी बनकर रिज़र्व बैंक के पास है। इसी तर्ज़ पर अब वित्त मंत्री ने ग़ैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी (NBFC), हाउसिंग फ़ाइनेंस कम्पनी (HFC) और माइक्रो फ़ाइनेंस कम्पनियों के लिए 30,000 करोड़ रुपये वाले Special liquidity debt scheme का भी एलान किया है। यह पैकेज कितना बड़ा है? इसे यूँ समझिए कि जिस अर्थव्यवस्था की जीडीपी का 10 फ़ीसदी, 20 लाख करोड़ रुपये है, उसमें 30 हज़ार करोड़ रुपये की औक़ात सिर्फ़ 0.015 प्रतिशत है। इससे ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ को कैसी गति मिलेगी, इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं?

विचार से ख़ास

ठेकेदार और ईपीएफ़ पैकेज

सभी तरह के ठेकेदारों को लॉकडाउन की वजह से अपने क़रार को निभाने के लिए छह महीने की अतिरिक्त मियाद दी गयी है। उन्हें वक़्त पर क़रार नहीं निभाने के लिए कोई ज़ुर्माना नहीं भरना पड़ेगा। ठेकेदारों का जितना काम हो चुका है, उसके अनुपात में उनकी बैंक गारंटी को वापस करने के वित्तमंत्री के एलान से ठेकेदार बिरादरी को थोड़ी राहत ज़रूर मिलेगी। इसी तरह, कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ़) से जुड़े कुल 6.5 करोड़ खाताधारकों में से 72 लाख कर्मचारियों को जो सौग़ात सरकार ने 26 मार्च 2020 को दी थी, उस सहुलियत को अब अगस्त तक बढ़ा दिया गया है।

ईपीएफ़ वाली सहुलियत भी 3.66 लाख उद्यमियों और उनके ऐसे कर्मचारियों के लिए ही है, जहाँ 100 से कम कर्मचारी हैं और उनमें से 90 फ़ीसदी की तनख़्वाह 15,000 रुपये से कम है। इसमें नियोक्ता और कर्मचारी ने 12-12 फ़ीसदी की जगह 10-10 फ़ीसदी का अशंदान ही दिया। बाक़ी रक़म सरकार देगी। यह राहत कुल 6750 करोड़ की है। वित्तमंत्री के तमाम एलान में सिर्फ़ यही ऐसा है जो सीधे नीचे तक गया। 

लेकिन यह राहत प्रति कर्मचारी प्रति माह औसतन 1550 रुपये बैठती है। यानी, हर महीने 775 रुपये की राहत मज़दूर को और इतनी ही राहत उसे नौकरी पर रखने वाले उद्यमी को। अब इस मदद को जितना चाहें उतना महत्वपूर्ण और उदार मान लें।

माँग-पक्ष की कोई परवाह नहीं

साफ़ दिख रहा है कि कोरोना संकट भी मोदी सरकार के पिछले चिन्तन की दशा और इसकी प्रतिबद्धता को डिगा नहीं सका। 2016 की नोटबन्दी के बाद से देश की अर्थव्यवस्था में माँग-पक्ष के तेज़ी से सिकुड़ने का कष्ट जारी है। अब तक प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने अपने पिटारे से जितने भी नुस्ख़े निकाले हैं, वो सप्लाई-पक्ष को सुधारने के लिए तो कुछ उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन इनसे माँग-पक्ष का कोई भला नहीं होने वाला। माँग-पक्ष की दशा बदलने के लिए नये रोज़गार पैदा होना ज़रूरी है, जो रोज़गार में हैं उनकी आमदनी बढ़ाना ज़रूरी है। जब तक लोगों के पास ख़र्च करने का पैसा नहीं होगा, खरीदने की ताक़त नहीं होगी, तब तक सप्लाई चाहे जितना उम्दा हो, बात नहीं बनने वाली। क़र्ज़ देकर भी माँग को तभी बढ़ाया जा सकता है जब आमदनी क़र्ज़ की किस्तें भर सके।

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नयी बोतल में पुरानी शराब

इसीलिए ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ और ‘लोकल के लिए वोकल’ जैसी बातें जुमला हैं। ये ‘नयी बोतल में पुरानी शराब’ जैसी हैं। क्योंकि 2019 के आख़िर में प्रधानमंत्री की ओर से वाराणसी के एक भाषण में ‘लोकल खरीदो’ और ‘लोकल को प्रमोट करो’ वाला नुस्ख़ा देश को मिल चुका था। सवाल यह भी है कि ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ में क्या फ़र्क़ है? सिवाय इसके कि ‘मेक इन इंडिया’ का एलान 15 अगस्त 2015 को ऐतिहासिक लाल क़िले की प्राचीर से हुआ था, तो ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ का श्रीगणेश 12 मई 2020 को लोक कल्याण मार्ग स्थित प्रधानमंत्री आवास से हुआ।

‘मेक इन इंडिया’ में सबसे बड़ी उम्मीद रक्षा उत्पादन क्षेत्र से थी। इसे शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) की अनुमति भी मिली। इसके बावजूद बीते चार वर्षों में इसमें सिर्फ़ 1.17 करोड़ रुपये का विदेशी निवेश हुआ। 

साफ़ है कि ‘मेक इन इंडिया’ फ्लॉप साबित हुआ। इसी तरह, ‘स्टैंड अप इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ जैसे पहले मोदी राज के प्रथम कार्यकाल वाले क्रान्तिकारी नारे भी यदि फ़ुस्स नहीं साबित हुए होते तो अब ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ की नौबत ही क्यों आती?

वैसे ‘आत्म-निर्भर’ का मतलब क्या है? यही कि हमें आयात पर निर्भर नहीं रहना पड़े, देश की ज़रूरतें देश में ही उत्पादित सामानों से पूरी हों। मोटे तौर पर क्रूड ऑयल, सोना और रक्षा ख़रीदारी, यही तीन क्षेत्र हैं जहाँ भारत आत्म-निर्भर नहीं है। यही हमारा मुख्य और स्थायी आयात का क्षेत्र भी है। बाक़ी, देश में तकनीक, मशीनरी और चिकित्सीय उपकरणों और सामग्री के आयात की हिस्सेदारी, कुल आयात के सामने बहुत छोटी है। इसीलिए, ‘आत्म-निर्भर भारत अभियान’ का असली मक़सद समझना मुश्किल नहीं है। वैसे प्रधानमंत्री जी, 130 करोड़ भारतीयों को मूर्ख भी क्यों बनाना चाहेंगे!

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