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स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर क्या कश्मीर पर भी होगी बात?

एक मामले में नरेन्द्र मोदी दूसरे प्रधानमंत्रियों से अलग और खास ही नहीं बल्कि आगे भी हैं, यह मामला है- दनादन फैसले लेने का, एक से एक बड़े और मुश्किल फैसले लेने का। जिस कश्मीर के मसले पर पिछले सत्तर साल से सरकारें कोई फैसला लेने से बचती थीं, कई-कई लड़ाईयां हो गईं, दुनिया में प्रचारित होने से मुश्किल आई, उसे मोदी सरकार ने सचमुच ताली पिटवाते हुए खत्म कर दिया। 
अरविंद मोहन

सम्भवत: अयोध्या में हुए शिलान्यास का मनचाहा राजनैतिक प्रभाव नहीं दिखा या सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण को एक सीमा से ज्यादा न खींचने की बाध्यता हो या फिर बेरोक कोरोना, डरावनी बाढ़ और राजस्थान की धुनाई हो, इस सबके बीच अचानक सारे चैनलों और सरकार के मीडिया मैनेजरों को याद आ गया कि नरेन्द्र मोदी केन्द्र में सबसे ज्यादा लम्बी गैर कांग्रेसी सरकार चलाने वाले प्रधानमंत्री बन गए हैं और यह देश के 74वें स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर हुआ।  

सरकार का गुणगान

उत्सव प्रिय पीएम मोदी के लिए यह बात क्या किसी बड़े उत्सव से कम है। इसलिए, इस उपलब्धि और इसके पीछे ‘न भूतो न भविष्यति’ वाले नेता का गुणगान शुरू हो गया। फिर क्या-क्या और कितने महान फैसले लिए गए और मुल्क आज किस तरह पहले से सबसे अच्छी स्थिति में है, यह गिनवाने का खेल शुरू हो गया। इसमें राम मंदिर निर्माण, धारा 370 की समाप्ति, तीन तलाक का अंत से लेकर न जाने क्या-क्या फैसले गिनवाए गए। 

जिस तरह मोदी जी को भाषण में कही गई बातों का ध्यान नहीं रहता, उस दौरान किए वायदे याद नहीं रहते, वैसे ही उनके इतने फैसले हैं कि समर्थकों को भी याद रखने में दिक्कत होती है। बस इतना ही याद रहता है कि ‘न तो ऐसा कोई प्रधानमंत्री हुआ और न ही ऐसा कोई नेता।’

पर जिस बात का जश्न मन रहा है, उसकी सबसे बड़ी वजह गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री का ऐसा करना है और इस मामले में चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल, वी.पी. सिंह और मोरारजी देसाई का रिकॉर्ड तो एक कार्यकाल पूरा करने का भी नहीं है लेकिन मोदी जी ने जिस रिकार्ड को अब तोड़ा है, वह अटल जी का है। 

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यह तुलना तथा अटल जी को पीछे छोड़ना कुछ ज्यादा प्रिय ध्वनि नहीं छोड़ेगा, इसलिए सीधे उस नेहरू, इन्दिरा, मनमोहन को भी ‘मुकाबले’ में उतारा जा रहा है जिनके बराबर पहुंचना बच्चों का खेल नहीं है। और तब और नहीं जब ‘बच्चे’ ने पचहत्तर साल की सीमा खुद बनाई है और अब वह खुद इसके पास पहुंच रहा है। लेकिन यह बड़ा मसला नहीं है। 

हां, सूचना क्रांति के इस दौर में, जब हर आदमी सूचनाओं के भंडार पर बैठा है और पंचायत के सदस्य से लेकर राष्ट्रपति के कामकाज के बारे में अपनी राय बनाता है तब एक बार नहीं दो बार जनादेश पाना और सरकार, पार्टी, पक्ष, प्रतिपक्ष सब पर भारी पड़ना, किसी चमत्कार से कम नहीं है।

प्रचार रणनीति सबसे बेहतर 

नरेन्द्र मोदी अपनी इस उपलब्धि पर ज़रूर इठलाते होंगे। और अगर हम इसका कारण ढूंढने चलेंगे तो साफ समझ आएगा कि सूचना क्रांति के इस युग में नरेन्द्र मोदी प्रचार के महत्व को सबसे अच्छी तरह पहचानते हैं, मुल्क की भावनात्मक नसों को पहचानते हैं और उनकी प्रचार रणनीति सबसे बेहतर है। प्रचार रणनीति का बजट भले ही ज्ञात नहीं है और न कभी होगा पर निश्चित रूप से यह काफी बड़ा है। 

बड़े और मुश्किल फैसले 

असल मसला होना चाहिए नीतियों का, बड़े और निर्णायक फैसलों का। और एक मामले में नरेन्द्र मोदी दूसरे प्रधानमंत्रियों से अलग और खास ही नहीं बल्कि आगे भी हैं, यह मामला है- दनादन फैसले लेने का, एक से एक बड़े और मुश्किल फैसले लेने का। जिस कश्मीर के मसले पर पिछले सत्तर साल से सरकारें कोई फैसला लेने से बचती थीं, कई-कई लड़ाईयां हो गईं, दुनिया में प्रचारित होने से मुश्किल आई, उसे मोदी सरकार ने सचमुच ताली पिटवाते हुए खत्म कर दिया। 

बात यहीं नहीं रुकी, उनके काबिल गृह मंत्री ने, जिन्हें मोदी जी ने इस मोर्चे पर आगे रखा, उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि वह जब जम्मू-कश्मीर बोलें तो उसमें पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन को भी शामिल माना जाए। और कुछ भक्त चैनल कई हफ्ते तक गिलगिट, बालटिस्तान का तापमान भी भारतीय शहरों के साथ दिखाने लगे। 

इस खुशफहमी के बीच आप यह पूछने की देशद्रोही हरकत न कर देना कि आज कश्मीर की हालत क्या है या साल भर में कश्मीर मिशन पर कितना खर्च आया है।

मोदी जी की ‘बहादुरी’ कम नहीं है, लेकिन उनके फ़ैसलों के परिणाम और उन पर आए खर्च के बारे में सवाल उठाना भी गुब्बारे में पिन चुभोने से कम नहीं है। जरा नोटबन्दी का परिणाम और मुल्क द्वारा चुकाई गई कीमत के बारे में सोचकर देखिए। कोरोना बन्दी की कीमत और परिणाम पर ही गौर करें तो दिए जलाने और घंटा बजाने से ज्यादा कुछ हासिल नहीं दिखता। 

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पुलवामा और राफ़ेल की कीमत का सवाल तो कुफ्र है। दुनिया की जिस सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना का गुणगान अभी छह महीने पहले तक चल रहा था उसका कोरोना से न सही उसकी जांच से भी कोई रिश्ता है या नहीं और अगर नहीं है तो कोरोना को स्वास्थ्य की समस्या ही न माना जाए, यह सवाल आप अपने से भी कर सकते हैं। 

नया इंडिया, स्वच्छाग्रह, मेक इन इंडिया जैसे रोज घोषित होने वाले कार्यक्रमों की लागत और नतीजों की गिनती छोटी है। पुराने सारे कानूनों की ऐसी-तैसी करना, सब कुछ बेचना और हर क्षेत्र को विदेशी बाजार के हवाले करके राष्ट्रवाद और चीन के विरोध का नाटक करने की लागत और हासिल का हिसाब लगाया जाना चाहिए।

और जहां तक विदेश से काला धन लाने, हर खाते में 15-15 लाख डालने, हर साल दो करोड़ रोजगार एक करोड़ घर देने जैसे वायदों की बात है, तो इनका क्या हिसाब और क्या नतीजा, इनमें से कुछ को तो भाई अमित शाह चुनावी जुमला बता ही चुके हैं।

मोदी जी ने डॉलर को धमकाने, पेट्रोलियम की कीमत के नाम पर खुद को भाग्यशाली और मनमोहन को अभागा बताने, मनरेगा को मिट्टी खोदने का कार्यक्रम, आधार को बकवास, डायरेक्ट ट्रांसफर को फरेब जैसा बताने जैसे और भी काफी कुछ करामात की हैं। और इन सबके बावजूद वे रिकॉर्ड बनाते जा रहे हैं तो यह कहने में हर्ज नहीं है कि ऐसा सिर्फ और सिर्फ वही कर सकते हैं और प्रधानमंत्रियों के वश में ऐसा करना कहां था।

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