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देश में ‘समानान्तर सरकार’ चल रही है तो क्या संवैधानिक ढाँचा ध्वस्त हो चुका है?

आश्चर्य की बात तो यह भी है कि सरकार को नाख़ुश कर रहे 19 हाईकोर्ट का क्षेत्राधिकार तक़रीबन 90 फ़ीसदी आबादी से जुड़ा हुआ है। क्या यह माना जाए कि कोरोना संकट के आगे देश का सारा संवैधानिक ढाँचा चरमरा चुका है। हालात पूरी तरह से हाथ से निकल चुके हैं। सरकारों ने जनता को उसकी क़िस्मत के हवाले कर दिया है।
मुकेश कुमार सिंह

कोरोना संकट की आड़ में जैसे श्रम क़ानूनों को लुगदी बनाया गया, क्या वैसा ही सलूक अब न्यायपालिका के साथ भी होगा? क्योंकि बक़ौल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, देश के 19 हाईकोर्ट के ज़रिये ‘कुछ लोग समानान्तर सरकार’ चला रहे हैं। ज़ाहिर है, ‘इन लोगों’ की जजों के साथ मिलीभगत भी होगी ही। वर्ना, देश के दूसरे नम्बर के सर्वोच्च विधि अधिकारी सॉलिसिटर जनरल की मति तो नहीं ही मारी गयी होगी कि वो न्यायपालिका के सबसे बड़े ‘प्रतीक और मन्दिर’ सुप्रीम कोर्ट में ‘समानान्तर सरकार’ के वजूद में आ जाने की दुहाई दें।

सॉलिसिटर जनरल कोई राजनेता तो होता नहीं। उनका तो काम ही है कि न्यायपालिका के सामने सरकार का पक्ष रखना, सरकार का बचाव करना भले ही इसके लिए उन्हें झूठी दलीलें तक क्यों ना गढ़नी पड़ें। तुषार मेहता कोई इकलौते नहीं हैं। अतीत में भी सभी विधि अधिकारियों ने ऐसे ही किरदार निभाये हैं। लेकिन पहले कभी देश में लोकतांत्रिक सरकारें होने के बावजूद ‘समानान्तर सरकार’ चलने की नौबत नहीं आयी। यह भी सही है कि पहले कभी कोरोना संकट नहीं आया। हालाँकि, हैज़ा, प्लेग, चेचक जैसी महामारियाँ पहले भी आती रही हैं। लिहाज़ा, अब यदि वाक़ई में सॉलिसिटर जनरल सही फ़रमा रहे हैं कि देश में ‘समानान्तर सरकार’ चल रही है तो निश्चित रूप से मानना पड़ेगा कि देश में सर्वोच्च क़िस्म का संवैधानिक संकट खड़ा हो चुका है।

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‘समानान्तर सरकार’ की नौबत कैसे आयी?

क्या संवैधानिक सरकारों के रहते हुए ‘समानान्तर सरकार’ का चलना यह बताता है कि देश में अघोषित गृह युद्ध की दशा पैदा हो चुकी है? यदि हाँ, तो यह सबसे गम्भीर स्थिति है। इसीलिए यह सवाल भी लाज़िमी है कि देश में लोकसभा के अस्तित्व में रहते हुए, ‘वैधानिक’ सरकारों के रहते हुए, अनुशासित सेनाओं और परमार्थ की ख़ातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर पुलिस तथा ‘वफ़ादार’ नौकरशाही के रहते हुए, परम राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और परम देश भक्त राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अपार बहुमत वाली मोदी सरकार के रहते हुए भी ‘समानान्तर सरकार’ चलने की नौबत कैसे आ गयी?

यदि ‘समानान्तर सरकार’ की नौबत इसलिए आयी कि न्यायपालिका उच्चशृंखल होकर अपनी लक्ष्मण रेखाओं को लाँघ रही है तो क्या देश की ख़ातिर न्यायपालिका को भंग करने का वक़्त नहीं आ गया है?

आख़िर, न्यायपालिका देश से बढ़कर तो नहीं हो सकती और सरकार से बढ़कर देश का हितैषी और कौन हो सकता है? सुप्रीम कोर्ट में तुषार मेहता बहैसियत ‘सरकार’ ही तो बोल रहे थे। गनीमत है कि उन्होंने बहुत संयम दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट से हाईकोर्ट पर नकेल कसने की गुहार नहीं लगायी। ज़ाहिर है, सरकार बहुत सब्र से पेश आ रही है। इसीलिए ‘समानान्तर सरकार’ चलाने वालों को फ़िलहाल, देशद्रोही भी नहीं बताया जा रहा। लेकिन कौन जाने कि पानी कब सिर से ऊपर चला जाए।

देश के 25 में से 19 हाईकोर्ट बने बाग़ी?

130 करोड़ भारतवासियों को यह कौन समझाएगा कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक बनाया है? कोरोना संकट को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी दर्ज़नों फ़रियादें पहुँचीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के हरेक दावे को ब्रह्म सत्य माना। ऐसे में हाईकोर्ट की ये ज़ुर्रत कैसे हो सकती कि वो सरकारों को तरह-तरह की हिदायतें दें और यहाँ तक कि ख़ुद अस्पतालों का दौरा करके वहाँ की दुर्दशा का जायज़ा लेने की धमकियाँ दें? 

दिलचस्प तो यह भी है कि ‘समानान्तर सरकार’ चलाने वाले कोई एकाध जज या हाईकोर्ट नहीं हैं, जिन्हें अपवाद समझकर नज़रअन्दाज़ किया जा सके। बल्कि देश के 25 में से 19 हाईकोर्ट सरकारों के प्रति ‘बाग़ी’ तेवर दिखा चुके हैं।

अभी तक कोरोना संकट से पनपे हालात को देखते हुए जिन हाईकोर्ट ने जनहित याचिकाओं की सुनवाई की है, वो हैं: इलाहाबाद, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश, बॉम्बे, कोलकाता, दिल्ली, पटना, उड़ीसा, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, तेलंगाना, गुवाहाटी, मद्रास, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश। इनमें से पटना, दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश और बॉम्बे हाईकोर्ट ने तो इतनी हिम्मत दिखा दी कि वो हालात का स्वतः संज्ञान (sue motto) लेकर सरकारों से जबाब-तलब करने लगे, उन्हें फटकार लगाने लगे और सख़्त हिदायतें देने लगे।

गुजरात हाईकोर्ट ने हद पार की? 

गुजरात हाईकोर्ट ने तो हद ही कर दी। इसके जजों ने तो अद्भुत गुजरात मॉडल की बखियाँ उधेड़नी शुरू कर दीं, उसमें पलीता लगाना शुरू कर दिया। कभी अहमदाबाद के सिविल अस्तपाल को कालकोठरी बता दिया तो कभी ग़रीब मरीज़ों की देखभाल, अस्पतालों में वेंटिलेटर की कमी, डॉक्टरों और हेल्थ वर्कर्स के लिए सुरक्षा को लेकर विजय रूपाणी सरकार के कामकाज़ पर सवालिया निशान लगाये। इसकी जेबी परदीवाला और जस्टिस इलेश जे वोहरा वाली खंडपीठ ने सिविल अस्पताल पर छापा मारने तक की धमकी दे डाली।

कोरोना संकट को लेकर दिन-रात अपनी पीठ ख़ुद थपथपाने में जुटी मोदी सरकार के लिए हाईकोर्ट का ऐसा रवैया नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त तो होना ही था। लिहाज़ा, चीफ़ जस्टिस विक्रम नाथ ने सरकार के ज़ख़्मों पर मरहम लगाते हुए ‘कोरोना क्राइसिस के जुड़े मामलों’ की सुनवाई कर रही परदीवाला-वोहरा खंडपीठ को ही भंग कर दिया। 

बेचारे, ऐसा नहीं करते तो क्या उनके सुप्रीम कोर्ट पहुँचने का दरवाज़ा हमेशा-हमेशा के लिए बन्द नहीं हो जाता? इसी तरह, तेलंगाना हाईकोर्ट में जस्टिस आर एस चौहान और बी विजयसेन रेड्डी की खंडपीठ ने तो केसीआर सरकार पर संक्रमितों की संख्या को छिपाने को लेकर फटकार लगा दी और अस्पतालों को आदेश दे दिया कि वो शवों का पोस्टमार्टम किये बग़ैर उन्हें अस्पतालों से बाहर नहीं होने दें।

क्या संवैधानिक ढाँचा चरमरा गया?

मोदी सरकार ने वही किया या करवाया जो उसके स्वभाव में है। लेकिन ताज़्ज़ुब की बात तो यह है कि अचानक हमारे हाईकोर्ट और उसके जज इतने दुस्साहसी कैसे होने लगे कि वो ‘सरकार’ को नाख़ुश करने वाले आदेश देने लगें। आश्चर्य की बात तो यह भी है कि सरकार को नाख़ुश कर रहे 19 हाईकोर्ट का क्षेत्राधिकार तक़रीबन 90 फ़ीसदी आबादी से जुड़ा हुआ है। क्या यह माना जाए कि कोरोना संकट के आगे देश का सारा संवैधानिक ढाँचा चरमरा चुका है। हालात पूरी तरह से हाथ से निकल चुके हैं। सरकारों ने जनता को उसकी क़िस्मत के हवाले कर दिया है।

हाईकोर्ट के तेवरों से सरकार के लिए दूसरा ख़तरनाक संदेश यह उभरा है कि इसके जजों में अब दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस मुरलीधर के वाक़ये का कोई ख़ौफ़ नहीं रह गया है।

अभी महज़ तीन महीने पहले, फ़रवरी 2020 में जस्टिस मुरलीधर को दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगों को लेकर सख़्ती दिखाने की सज़ा रातों-रात उनका तबादला करके दी गयी थी। शायद, उन्होंने बीजेपी के नेताओं के भड़काऊ बयानों पर दिल्ली पुलिस और सरकार को फटकार लगाकर उस ‘लक्ष्मण रेखा’ को पार कर दिया था, जिसने आगे चलकर ‘समानान्तर सरकार’ जैसे संवैधानिक संकट का रूप ले लिया।

रेलमंत्री के दावों की हक़ीकत

28 मई को रेलमंत्री पीयूष गोयल यह बताते हुए ख़ासे प्रसन्न थे कि ‘कोरोना आपदा में रेलवे की श्रमिक स्पेशल ट्रेनों ने अभी तक 50 लाख से अधिक कामगारों को सुविधाजनक व सुरक्षित तरीक़े से उनके गृह राज्य पहुँचाया है। इसके साथ ही रेलवे अब तक 84 लाख से अधिक निशुल्क भोजन व 1.25 करोड़ पानी की बोतल भी वितरित कर चुकी है।’ इस बयान के भारी भरकम आँकड़े यदि आपको सुखद लगें तो ज़रा इसका विश्लेषण करके देखिए।

जब मुफ़्त भोजन वाले 84 लाख पैकेट को 50 लाख कामग़ारों को दिया गया होगा तो हरेक कामगार के हिस्से में दो पैकेट भी नहीं आये। 16 लाख कामगार ऐसे ज़रूर रहे होंगे जिन्हें दूसरा पैकेट मिलने से पहले ही पैकेट ख़त्म हो चुके होंगे। इसी तरह, 1.25 करोड़ पानी की बोतल का हिसाब भी प्रति कामगार सवा दो बोतल ही बैठता है। अब ज़रा सोचिए कि सवा दो बोतल पानी और एक-डेढ़ पैकेज खाने के साथ मौजूदा गर्मी के मौसम में ट्रेन का जनरल क्लास के डिब्बे में 2-4 दिन का औसतन सफ़र करने वाले कामग़ारों पर क्या-क्या बीतती होगी? ज़रा सोचिए कि क्या कोई ईमानदारी से रेलमंत्री की वाहवाही कर सकता है?

इसी तरह आप चाहें तो रेलमंत्री के अन्य ट्वीट को देखकर भी अपना सिर धुन सकते हैं। मसलन, मुज़फ़्फ़रपुर में रेलवे स्टेशन पर अपनी माँ का कफ़न खींचकर उसे जगा रहे नन्हें बच्चे वाली वारदात के बारे में पीयूष गोयल बताते हैं कि ‘हमें संवेदना रखनी चाहिये, जो वीडियो वायरल हुआ उसकी पूरी छानबीन हुई, मृतक के रिश्तेदारों ने लिखित में बयान दे कर बताया कि वह पहले से बीमार थी, और उसके कारण उनकी मृत्यु हुई।’ 

पीयूष गोयल का अगला दावा देखिए, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यात्रा के दौरान किसी कारणवश किसी का देहांत हो गया, लेकिन इसमें खाना नहीं मिला, या पानी नहीं मिला, ऐसी कोई स्थिति नहीं थी।’

श्रमिक स्पेशल ट्रेनें या लेबर रूम?

इसी वक़्त रेल मंत्री यह भी बताते हैं कि ‘30 से अधिक बच्चे श्रमिक ट्रेनों में पैदा हुए हैं।’ अब ये आप हैं कि आप चाहें तो गर्व करें कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की गुणवत्ता इतनी उम्दा थी कि उसमें सफ़र कर रही गर्भवती महिलाओं ने उसे किसी अस्पताल के ‘लेबर रूम’ जैसा समझ लिया। या फिर आप ये भी मान सकते हैं कि इन जच्चाओं की दशा सफ़र के दौरान इतनी बिगड़ गयी कि वो चलती ट्रेन में प्रसव पीड़ा झेलती रहीं। इसी सिलसिले में एक के बाद एक ट्वीट में रेलमंत्री बताते हैं कि ‘राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी तय की गयी थी, केंद्र ने पैसा भी दिया था, महिलाओं के खाते में पैसा भी भेजा, मुफ्त में अनाज भी दिया। जिन राज्यों ने अच्छे से ज़िम्मेदारी का पालन किया वहाँ कोई समस्या नहीं आई।’

विचार से ख़ास

अब ज़रा पीयूष गोयल के एक और ट्वीट पर ग़ौर फ़रमायें। ‘PM @NarendraModi जी का यह विज़न था, उन्होंने यह समझा कि देश में अगर संक्रमण रोकने के लिये वायरस की चेन नहीं तोड़ते, और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाने का समय नहीं मिलता तो कितना गंभीर संकट देश के ऊपर आ सकता था। उन्होंने बहुत सूझबूझ से यह लॉकडाउन घोषित किया।’

इस तरह, मोदी सरकार के चहेते वरिष्ठ मंत्री ने यह साफ़ कर दिया कि मोदीजी के सूझबूझ भरे लॉकडाउन के ज़रिये वायरस की चेन तोड़ी गयी, स्वास्थ्य सेवाएँ बढ़ायी गयीं, श्रमिकों को पूरी सुख-सुविधा के साथ उनके घरों तक भेजा गया। इसके बाद भी यदि किसी का कोई ग़िला-शिकवा है तो उसके लिए राज्य ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि जिन एनडीए शासित राज्यों ने अपनी ज़िम्मेदारी निभायी वहाँ कोई समस्या नहीं आयी। इसके बावजूद, देश के 19 हाईकोर्ट यदि किसी निहित राजनीतिक स्वार्थ की वजह से ‘समानान्तर सरकार’ चलाने पर आमादा हैं तो सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल ऐसे ‘गुस्ताख़’ हाईकोर्ट के साथ क्या नरमी से पेश आएँगे?

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