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फ़ाइल फ़ोटो

कोटा के भीतर कोटा: व्यवस्था के सामने बेबस आरक्षित वर्ग, कहाँ मिलेगा न्याय?

केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग को विभिन्न उपजातियों में बाँटकर आरक्षण व्यवस्था करने पर विचार के लिए जस्टिस जी रोहिणी की अध्यक्षता में समिति का गठन किया है। इसे लेकर पिछड़ा वर्ग आयोग से भी राय माँगी गई। इन दोनों कवायदों से पिछड़े वर्ग को उपजातियों में बाँटने की कवायद में सरकार सफल नहीं हो सकी। अब उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले के माध्यम से सरकार इस दिशा में बढ़ने की ओर है। कोटे को उपवर्ग में बाँटने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फ़ैसला दिया है। यह फ़ैसला मुख्य रूप से अनुसूचित जाति एवं जनजाति से जुड़ा हुआ है, लेकिन पूरे आरक्षित वर्ग तक इसका विस्तार नज़र आता है।

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क्या है मामला

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार चाहती है कि पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति को विभिन्न उपजातियों में विभाजित कर दिया जाए और आरक्षण के कोटे में उपकोटे की व्यवस्था की जाए। सवर्णवादी भाजपा या आरएसएस की यह मंशा नई नहीं है। इसके पहले उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री रहते इस तरह की कवायद की गई थी और ओबीसी आरक्षण में कोटे के भीतर उपकोटे बनाए गए। हालाँकि राजनाथ सरकार अपनी मंशा में सफल होने के पहले ही गिर गई।

उपकोटा को कुछ इस तरह समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की ओबीसी लिस्ट में कुल 2513 जातियाँ हैं। इनमें से यादव, कुर्मी, लोध को निकालकर एक वर्ग बना दिया जाए और उन्हें 27 प्रतिशत में से 5 प्रतिशत अलग आरक्षण दे दिया जाए। उसके बाद इनसे छोटी कही जाने वाली जातियों लोहार, कहार, बढ़ई, को 5 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। और शेष जातियों को बचे 27 प्रतिशत आरक्षण में से 17 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए।

क्या होता है इसके पीछे का तर्क

इस तरह के विभाजन के समर्थकों का तर्क होता है कि पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति एवं जनजाति में कुछ जातियाँ ऐसी हैं, जो आरक्षण का पूरा लाभ उठा ले रही हैं। ये जातियाँ अन्य की तुलना में संपन्न और ताक़तवर हैं और उन्हें ही पूरी मलाई मिल रही है। अगर इन्हें उपजातियों में विभाजित कर दिया जाए तो उन जातियों को लाभ मिल सकेगा, जो वंचित हैं। हालाँकि भाजपा सरकार ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह राजनीतिक है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में कुर्मी और लोध जैसी ताक़तवर जातियाँ भाजपा की समर्थक हैं। भाजपा अपने इस अभियान के तहत यादवों को अन्य ओबीसी से अलग-थलग करने को इच्छुक है, जिससे कि पिछड़ों का राजनीतिक वर्चस्व ख़त्म हो जाए। लेकिन वह कुर्मी और लोध को नाराज़ कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती। ऐसे में आयोग गठित करने और पिछड़ा वर्ग आयोग से राय माँगने के बावजूद पार्टी अभी ‘देखो और इंतज़ार करो’ की रणनीति अपना रही है। 

अगर लोध, कुर्मी जैसी जातियाँ अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए सपा या बसपा की ओर जाती हैं तो भाजपा आसानी से कोटा विभाजन के क़दम उठा सकती है, अन्यथा वह इस अभियान को टाले रखने में ही भलाई समझ रही है।

कोटा विभाजन की दिक्कतें

सरकार जातीय जनगणना कराने को तैयार नहीं है। जाति जनगणना आख़िरी बार 1931 में हुई थी, जिसके मुताबिक़ पिछड़े वर्ग में शामिल मौजूदा जातियों की संख्या 52 प्रतिशत है। 52 प्रतिशत संख्या के आँकड़े में बढ़ोतरी ही हुई है, क्योंकि राजनीतिक सहूलियतों के मुताबिक़ देश की तमाम जातियों को 1990 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद ओबीसी में शामिल कर लिया गया है। अगर तमिलनाडु को छोड़ दें तो कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला देकर इस बड़ी आबादी को महज़ 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। देश के तमाम राज्यों में तो ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण भी नहीं है।

बाहरी रूप से देखने पर तो यह बहुत लुभावना लगता है कि संपन्न या ओवर रिप्रजेंटेशन वाली जातियों को अलग कर दिया जाए और उन लोगों को लाभ दिया जाए, जो अब तक वंचित ही बने हुए हैं। लेकिन इसमें समस्या यह है कि सरकार के पास आँकड़े ही नहीं हैं। सरकार को यह नहीं पता है कि कितने अहिर या कितने कुर्मी 27 प्रतिशत कोटे में से नौकरियाँ ले जाते हैं।

इसके अलावा सरकार यह भी बताने को तैयार नहीं है कि देश में सरकारी और निजी क्षेत्र में जितनी भी नौकरियाँ हैं, मलाईदार से लेकर छोटे पदों पर ओबीसी की संख्या कितनी है? ज़मीनों और सुख-सुविधाओं पर किन लोगों का क़ब्ज़ा बना हुआ है। इस बीच तमाम रिपोर्टें आई हैं, जिनसे पता चलता है कि तमाम सरकारी विभागों, केंद्रीय सचिवालय, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी तबक़े की संख्या 5 प्रतिशत भी नहीं है। ऐसे में यह भी विचारणीय है कि इन ग़रीब ओबीसी का हिस्सा कौन मार रहा है?

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यूपी का उदाहरण लें और अहिर, कुर्मी, लोध को 27 प्रतिशत कोटे में से 5 प्रतिशत आरक्षण दे दें तो इसका आधार क्या होगा? उत्तर प्रदेश में केंद्र की ओबीसी सूची में 76 जातियाँ हैं। अगर 3 जातियों को 5 प्रतिशत आरक्षण अलग से दिया जाता है तो यह किस आधार पर तय होगा कि इनका ओवर रिप्रजेंटेशन या अंडर रिप्रजेंटेशन नहीं होगा?

न्यायालय का फ़ैसला

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भी ग़ुस्से में हैं कि कुछ जातियाँ ओबीसी/एससी/एसटी कोटे की पूरी मलाई खा रही हैं। वे चिंतित हैं कि कुछ जातियाँ लाभ नहीं ले पा रही हैं और वह अनंतकाल तक अपना “पिछड़ापन ढोने” को बाध्य हैं। हालाँकि न्यायालय के पास यह कहने का कोई आधार नहीं है, क्योंकि जाति जनगणना नहीं कराई गई है, और सरकार से लेकर उच्चतम न्यायालय तक जितनी भी व्यवस्थाएँ हैं, जाति जनगणना पर कुंडली मारे बैठी हैं। बगैर किसी आँकड़े के उन्माद फैलाने का इससे बेहतर उदाहरण कोई नहीं हो सकता कि कुछ जातियाँ ही पूरा लाभ ले रही हैं और कुछ लोग अनंतकाल तक अपने पिछड़ेपन को ढोने के लिए बाध्य हैं।

जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली 5 न्यायधीशों की संविधान पीठ ने कहा, “निचले स्तर तक आरक्षण का लाभ पहुँचाने के इरादे से राज्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के भीतर भी उपवर्ग बना सकते हैं।”

आरक्षण को उपकोटे में बाँटने को लेकर 2004 में एक फ़ैसला ईवी चिन्नाया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में आया था। पाँच सदस्यों के संविधान पीठ ने इस फ़ैसले में आरक्षण को उपवर्ग में विभाजित करने को ग़लत बताया था। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस मिश्रा की पीठ ने कहा कि उस मामले का सही ढंग से निपटारा नहीं किया गया था, लिहाज़ा पीठ इस मसले को भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे के समक्ष भेजते हुए 7 जजों या उससे बड़ी पीठ से सुनवाई का आग्रह किया है।

जस्टिस मिश्रा की पीठ अपने फ़ैसले में वंचित तबक़े की बहुत ही हितैशी दिखती नज़र आ रही है। पीठ ने कहा है, “कई जातियाँ अब भी वहीं हैं जहाँ वे पहले थीं। सच्चाई यही है। ऐसा क़तई उचित नहीं है कि हम हर बार फलों की पूरी टोकरी को आरक्षित वर्ग के संपन्न लोगों को सौंप दें। जो लोग वर्षों से पीछे हैं, उन्हें आगे लाना होगा।”

विचार से ख़ास

सवाल यह उठता है कि जस्टिस मिश्रा ने किस आधार पर यह ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान दिया है, उनके पास ये आँकड़े कहाँ से आए हैं? न्यायालय के पास इस “सच्चाई” के आँकड़े कहाँ से आए? क्या न्यायालय की इस टिप्पणी से आरक्षित वर्ग की विभिन्न जातियों में मारकाट, हिंसा, नफ़रत फैलने की आशंका नहीं है, जिसमें बगैर किसी आधार के न्यायालय परोक्ष रूप से यह आरोप लगा रहा है कि आरक्षित वर्ग के संपन्न लोग फ़ायदा ले रहे हैं? ख़ासकर ऐसी स्थिति में, जब ओबीसी वर्ग में क्रीमी लेयर का प्रावधान है और केंद्र सरकार व सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुष्ट सवर्णों को ग़रीबी के आधार पर दिए गए आरक्षण और ओबीसी के क्रीमी लेयर की आय की सीमा एक बराबर रखी गई है।

बहरहाल, अगर जस्टिस बोबडे की बड़ी पीठ ईवी चिन्नाया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के फ़ैसले को पलटती है तो केंद्र सरकार के दोनों हाथ में लड्डू आ जाएँगे। वह न्यायालय के फ़ैसले का हवाला देकर बहुत आसानी से न सिर्फ़ अनुसूचित जाति से यूपी के जाटव को अलग उपवर्ग में कर सकती है, बल्कि ओबीसी की कुछ जातियों- मसलन अहिर, कुर्मी, लोध को अलग-थलग करने की मंशा पूरी कर सकती है। साथ ही उन जातियों के सामने यह तर्क रख सकती है कि न्यायालय का फ़ैसला है, सरकार विवश थी। सरकार अगर कुछ ओबीसी या एससी-एसटी जातियों को अलग-थलग कर देती है तो कोई यह सवाल करने को भी नहीं बचेगा कि 27 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 3 प्रतिशत भी ओबीसी प्रोफ़ेसर क्यों नहीं हैं और कौन ओबीसी का हक खा रहा है।
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प्रीति सिंह

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