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असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल। फ़ोटो साभार - फ़ेसबुक पेज़ सर्बानंद सोनोवाल।

चुनावी नफ़ा-नुक़सान भाँपने के लिए बीजेपी असम में लाई दो संतान का फ़ॉर्मूला?

ऐसा लगता है कि बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर काबू पाने और दो संतान के फ़ॉर्मूले को लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार फूँक-फूँक कर क़दम रख रही है। इसका संकेत असम में सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार के उस निर्णय से मिलता है जिसमें एक जनवरी, 2021 से दो से अधिक संतान वालों को सरकारी नौकरियाँ नहीं दी जाएँगी।

असम सरकार ने भले ही इसे एक जनवरी, 2021 से लागू करने का निर्णय लिया है लेकिन यह शुद्ध रूप से राज्य विधानसभा के चुनाव को ध्यान में रखते हुए लिया गया राजनीतिक फ़ैसला है। राज्य विधानसभा के चुनाव मार्च-अप्रैल 2021 में होने हैं।

हो सकता है कि असम की सर्बानंद सोनोवाल सरकार राज्य विधानसभा के लिए 2021 में होने वाले चुनावों से पहले सरकारी नौकरियों के लिए ‘हम दो हमारे दो’ के सिद्धांत पर अमल करके राजनीतिक लाभ प्राप्त करना चाहती हो। इसकी सफलता और असफलता का फ़ैसला तो समय करेगा।

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पंचायत स्तर के चुनावों की तरह ही संसद और विधानमंडलों के चुनावों में भी दो संतानों का फ़ॉर्मूला लागू कराने के लंबे समय से प्रयास हो रहे हैं, इसमें अभी तक सफलता नहीं मिल सकी है। उच्चतम न्यायालय भी कम से कम तीन अवसरों पर जनसंख्या पर नियंत्रण पाने के लिए संसद और विधानसभा के चुनावों में दो संतानों का फ़ॉर्मूला लागू करने का निर्वाचन आयोग को निर्देश देने से इंकार कर चुका है।

पहली नज़र में सरकारी नौकरियों में दो संतानों का फ़ॉर्मूला लागू करने का असम सरकार का निर्णय राज्य से संबंधित मसला ही लगता है क्योंकि मुख्यमंत्री के जन संपर्क प्रकोष्ठ से जारी बयान में कहा गया है कि एक जनवरी, 2021 से छोटे परिवार के मानदंड के अनुसार दो से ज़्यादा संतान वालों के नाम पर सरकारी नौकरियों के लिए विचार नहीं होगा। इस संबंध में सितंबर, 2017 में विधानसभा द्वारा पारित ‘असम की जनसंख्या और महिला सशक्तीकरण नीति’ का उल्लेख करना उचित होगा जिसके अंतर्गत सरकारी नौकरी के लिए सिर्फ़ दो संतानों वाले उम्मीदवार ही पात्र होंगे और राज्य सरकार के मौजूदा कर्मचारियों को भी ‘दो बच्चों के परिवार’ मानक का सख़्ती से पालन करना होगा।

संभव है कि असम में दो संतानों का पैमाना लागू करने के निर्णय के बहाने बीजेपी और केंद्र सरकार इस पर होने वाली प्रतिक्रिया जानना चाहती हो।

इसकी एक वजह यह है कि मई में लोकसभा चुनाव के नतीजों के तुरंत बाद देश में बढ़ती आबादी का मुद्दा उठाते हुए जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए क़ानून में संशोधन करने की माँग उठी और कहा गया कि संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए गठित न्यायमूर्ति एम. एन. वेंकटचलैया आयोग के सुझाव के अनुरूप संविधान में अनुच्छेद 47-ए जोड़ा जाए।

वैसे तो परिवार नियोजन के लिए ‘हम दो, हमारे दो’ का नारा बहुत पुराना है लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद बाबा रामदेव ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए क़ानून में संशोधन करके तीसरी संतान को मतदान के अधिकार और सरकारी नौकरी से वंचित करने की माँग की और बीजेपी सांसद और (अब केन्द्रीय मंत्री) गिरिराज सिंह ने तत्काल ही इस माँग का समर्थन कर दिया था।

कोर्ट में दलील

बात यहीं नहीं रुकी, इसी बीच, बीजेपी नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इसी मुद्दे पर एक जनहित याचिका दायर की जिस पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्र और विधि अयोग से जवाब भी माँग लिया था। इस याचिका में ‘हम दो, हमारे दो’ के सिद्धांत का पालन करने पर ज़ोर दिया गया है।

इस मामले को लेकर अदालत पहुँचने वाले अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि देश में बेरोज़गारी, ग़रीबी, लगातार बढ़ रहे बलात्कार, घरेलू हिंसा, दूसरे संगीन अपराध, प्रदूषण और जंगल जैसे संसाधनों के तेज़ी से ख़त्म होने की मुख्य वजह बढ़ती आबादी है। उन्होंने यह भी कहा है कि इस पर प्रभावी तरीक़े से नियंत्रण पाए बगैर ‘स्वच्छ भारत’ और ‘बेटी बचाओ’ जैसे अभियान भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाएँगे।

उपाध्याय ने सरकारी नौकरियों, सब्सिडी और मदद के लिए दो संतानों का मानक निर्धारित करने और इसका पालन नहीं करने पर मतदान का अधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, संपत्ति का अधिकार, आवास का अधिकार और मुफ़्त क़ानूनी सहायता जैसे विधायी अधिकार वापस लेने का सरकार को निर्देश देने का उच्च न्यायालय से अनुरोध किया था।

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जनसंख्या नियंत्रण की चिंता

वैसे, जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा नया नहीं है। बढ़ती आबादी और सीमित संसाधनों को लेकर कई दशकों से चिंता व्यक्त की जा रही है लेकिन जनसंख्या नियंत्रण के मामले में अभी तक कोई ठोस सफलता नहीं मिली है। स्थिति यह है कि आज हमारी आबादी 135 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है।

जनसंख्या पर नियंत्रण के उद्देश्य से नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल में 79वाँ संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था। इस विधेयक में प्रस्ताव किया गया था कि दो से अधिक संतानों वाला व्यक्ति संसद के किसी भी सदन या राज्यों के विधान मंडल का चुनाव लड़ने के अयोग्य था।

इस समय, दो संतानों का फ़ॉर्मूला पंचायत स्तर के चुनावों के लिए कुछ राज्यों में लागू है। इनमें हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा सहित कई राज्य शामिल हैं जिन्होंने इस संबंध में क़ानून बना रखा है।

हरियाणा में पंचायत चुनावों में दो से अधिक संतान वाले व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने का प्रावधान करने संबंधी क़ानून को उच्चतम न्यायालय ने भी वैध ठहराया था। न्यायालय ने 12 अक्टूबर 2004 को अपने फ़ैसले में कहा था कि देश में तेज़ी से बढ़ रही आबादी पर क़ानून के माध्यम से अंकुश लगाना राष्ट्र हित में है। न्यायालय ने एक अन्य मामले में अक्टूबर, 2018 में ओडिशा के मामले में तो यहाँ तक कहा था कि यदि तीसरी संतान को गोद दे दिया जाए तो भी ऐसा व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा।

देश में तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य के बीच असम में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सरकारी नौकरियों में दो संतानों का फ़ॉर्मूला लागू करने के राज्य सरकार के निर्णय के बाद जनसंख्या नियंत्रण के बारे में केन्द्र सरकार के साथ ही दूसरे राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों के रूख को देखना दिलचस्प होगा।

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अनूप भटनागर

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