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तो इस वजह से क्रिकेट में ‘कट्टर’ प्रतिद्वंद्वी बन गए भारत-पाक!

क्रिकेट के मैदान पर दोनों पड़ोसी मुल्क़ों, भारत और पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता से बढ़कर और कुछ नहीं। जिस तरह की उत्तेजना और भावनात्मक ज्वार इन दोनों देशों के बीच मैच के दौरान देखने को मिलता है उसकी तुलना क्रिकेट में और किसी मैच से नहीं हो सकती, इंग्लैंड - ऑस्ट्रेलिया के बीच खेली जाने वाली एशेज़ सिरीज़ से भी नहीं। इस प्रतिद्वंद्विता के कई कारण हैं- ऐतिहासिक और बेहद कड़वे राजनयिक संबंध आदि, लेकिन यह भी सच्चाई है कि इन दोनों देशों के बीच क्रिकेट की जितनी साझी विरासत है, शायद ही दुनिया में किन्हीं दो देशों की रही हो।

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1948 में पाकिस्तान क्रिकेट टीम को आईसीसी की मान्यता मिलने के समय उनकी टीम के अधिकांश सदस्य भारतीय टीम के सदस्यों के साथ एक ही टीम में मैच खेल चुके थे, किसी क्लब या क्षेत्रीय मैचों में। तीन खिलाड़ी अमीर इलाही, गुल मुहम्मद और अब्दुल हफ़ीज़ करदार तो दोनों देशों की तरफ़ से अन्तरराष्ट्रीय मैच खेले।

1952 में हुई थी ज़बरदस्त हूटिंग

1952 में पाकिस्तान की टीम ने अब्दुल हफ़ीज़ करदार के नेतृत्व में भारत दौरा किया था, भारतीय टीम के कप्तान थे लाला अमरनाथ। पहला टेस्ट मैच दिल्ली में भारतीय टीम आसानी से जीती थी लेकिन दूसरे टेस्ट मैच, जो कि लखनऊ के यूनिवर्सिटी मैदान में खेला गया था, में भारत को हार का सामना करना पड़ा था। भारतीय टीम को इस हार के बाद वहाँ मौजूद दर्शकों की ज़बरदस्त नाराज़गी और हूटिंग का सामना करना पड़ा था।

1952 में यह पहला वाक़या था जब मैदान पर खेल रहे खिलाड़ियों को यह अहसास हुआ था कि यह भले ही खेल हो लेकिन दोनों देशों के करोड़ों खेल प्रेमियों के लिए यह खेल से कहीं बढ़कर है।

इस घटना का दोनों देशों के खिलाड़ियों पर एक अमिट प्रभाव पड़ा था जिसका असर आगे के दशकों में दिखाई पड़ने वाला था। हालाँकि पहली सिरीज़ भारत 2-1 से जीत गया था।

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फिर दोनों टीमें रक्षात्मक हो गईं

पहली सिरीज़ के बाद भारत-पाक दोनों ही देशों की टीमों की रणनीति रक्षात्मक हो गई थी यानी ‘जीतो भले ही न पर हारना मत’।

इसका नतीजा यह हुआ कि अगले 26 वर्ष तक दोनों टीमें केवल ड्रॉ मैच ही खेलीं। इस दौरान दोनों टीमों ने 10 टेस्ट मैच खेले और सभी अनिर्णित समाप्त हुए। कोई हार-जीत नहीं। हालाँकि 1965 से 1978 तक तेरह वर्ष दोनों टीमों के बीच 1965 और 1971 के युद्ध की वजह से कोई टेस्ट मैच खेला ही नहीं गया।

इस दौरान 1952-1977 तक 25 वर्षों में कुल 15 टेस्ट मैच खेले गए जिसमें 2 भारत जीता 1 पाकिस्तान और शेष 12 ड्रॉ रहे।

यानी भारत - पाकिस्तान क्रिकेट में इस दौर में प्रतिद्वंद्विता तो थी लेकिन यह भावना तीखी नहीं थी और यह मैदान पर दोनों टीमों की बॉडी लैंग्वेज व व्यवहार से भी दिखता था। मूलत: रक्षात्मक थी दोनों टीमें। 

और फिर आया आक्रामकता का दौर

1978 की टेस्ट सिरीज़ के बाद सब बदल गया। पहला कारण तो यह रहा कि अब पाकिस्तानी टीम में खिलाड़ियों की नई खेप आ चुकी थी जिसमें इमरान ख़ान, जावेद मियाँदाद, ज़हीर अब्बास, सरफ़राज नवाज़ आदि थे। जो पहले के दशकों के पाक खिलाड़ियों के मुक़ाबले बेहद आक्रामक क्रिकेट खेलने में विश्वास करते थे। जीतना हर क़ीमत पर मूल मंत्र था और इसके लिए मैदान व बाहर दोनों जगह मनोवैज्ञानिक जीत हासिल करने के भी प्रयास होने लगे। दूसरा कारण था टेस्ट मैच के साथ वन डे मैचों की शुरुआत। वन डे मैच ज़्यादा लोकप्रिय भी हुए व खिलाड़ियों में जल्दी नाम व पैसा कमाने की ललक बढ़ी, साथ ही बढ़ी आक्रामकता।

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गौरव सिंह राठौर

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