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जिस हांगकांग में लाखों लोग सड़कों पर उतरे थे, वहाँ चीन विरोधी क्यों जीते?

6 महीने से लगातार चल रहे हिंसक प्रतिरोध के बीच रविवार को संपन्न हुए ज़िला परिषद (डिस्ट्रिक्ट काउंसिल) चुनावों में 452 में से 392 सीटें जीत चीन विरोधियों ने चीन और चीन समर्थकों को कड़ा संदेश दिया है। पैन डेमोक्रेट्स नाम से जाने जाने वाले लोकतंत्र समर्थकों की यह जीत इसलिए और बड़ी हो जाती है क्योंकि 2015 में हुए इन्हीं चुनावों में चीन समर्थकों ने जीत हासिल की थी। तब वे कुल 18 में से 17 ज़िलों में बहुमत में थे। पैन डेमोक्रेट्स के साथ-साथ 45 आज़ाद उम्मीदवार भी जीत कर आए हैं और व्यवस्था समर्थक सिर्फ़ 60 पर सिमट गए हैं।

पैन डेमोक्रेट्स की इस जीत ने प्रतिरोध के व्यापक समर्थन न होने के हांगकांग प्रशासन के दावे को भी ख़ारिज किया है। मतदान प्रतिशत भी 2015 के सिर्फ़ 45% से बढ़कर क़रीब 72% हो जाना भी साफ़ करता है कि जनता में सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा है और आंदोलन को व्यापक समर्थन है। मीडिया की ख़बरें बता रही हैं कि इस बार तो तमाम मतदाता सिर्फ़ मतदान के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों से लौट कर आए थे।

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जीत कितनी बड़ी है, यह इससे भी समझा जा सकता है कि हांगकांग की सबसे बड़ी चीन समर्थक पार्टी डेमोक्रेटिक अलायंस फॉर द बेटरमेंट ऑफ़ हांगकांग (डीएबी) के 179 प्रत्याशियों में से बस 21 जीत के आ पाए। डीएबी की इतनी ख़राब हालत 2015 तक में नहीं हुई थी जब आक्युपाई हांगकांग आंदोलन क बड़ा जन समर्थन मिला था और हांगकांग की सड़कों ने दशकों बाद आँसू गैस के गोले देखे थे। वे तब भी 119 पार्षद जिता लाए थे।

दरअसल, डीएबी सहित सत्ता समर्थकों की इतनी बड़ी हार 2003 की याद दिलाती है और कारण भी कमोबेश वही हैं। तब हांगकांग के 'मिनी संविधान' नाम से जाने जाने वाले बेसिक लॉ की धारा 23 में परिवर्तन कर चीन समर्थक सरकार ने लोगों की आज़ादी कम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लाने की कोशिश की थी और 5 लाख लोगों के एक साथ रैली निकालने सहित और भी तगड़े विरोध के बाद उसे पीछे हटना पड़ा था। तब डीएबी के 206 में से सिर्फ़ 62 प्रत्याशी जीते थे। बेशक यह हार उससे भी बड़ी है!

इस जीत का एक बड़ा पहलू यह भी है कि 54.8 प्रतिशत मत के साथ लोकतंत्र समर्थक खेमे ने अपना 2016 में हुए लेजिस्लेटिव कौंसिल (यहाँ संसद का समानार्थी) चुनावों में भौगोलिक चुनाव क्षेत्रों में हासिल अपना मत प्रतिशत (क़रीब 55%) सुरक्षित रखा है। मतलब साफ़ है- हांगकांग की जनता का एक बड़ा हिस्सा सरकार और चीन दोनों से बेहद नाराज़ है। लगातार चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के बीच यह बेशक चीन के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है।

इस जीत से चीन कितना स्तब्ध है यह इससे समझा जा सकता है कि चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी सिन्हुआ ने चुनावों के परिणाम की ख़बर ही नहीं चलाई, सिर्फ़ यह कह कर छोड़ दिया कि हांगकांग में ज़िला परिषद के चुनाव संपन्न हो गए हैं।

सिन्हुआ ने आगे जोड़ा कि बीते पाँच महीनों में 'हांगकांग को तबाह करने की ख़्वाहिश वाले हिंसक दंगाइयों ने विदेशी मीडिया के साथ मिल कर सामाजिक अशांति फैलाई है। उन्होंने चुनाव प्रक्रिया में बाधा डाली है और राष्ट्रभक्त प्रत्याशियों को चुनाव के दिन प्रताड़ित भी किया है।’

इसी तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली ने भी चुनाव पर ख़बर की जगह चुनावों के 'काले आतंक के साये में' होने की बात की है और हांगकांग पुलिस को 'शांत, सुरक्षित, और व्यवस्थित चुनाव संपन्न करवाने ले लिए बधाई दी है। पीपुल्स डेली ने इसके साथ ही 'राष्ट्रभक्तों' को इस झटके के बावजूद 'संगठित' रहने को कहा है।

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जीत का संदेश क्या?

इस जीत के संकेत दरअसल पहले से ही साफ़ थे। पहले चायनीज़ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग में पुलिस और छात्रों के बीच हिंसक टकराव और फिर पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी में अब तक चल रहे क़ब्ज़े के बीच हांगकांग की जनता- ख़ासतौर पर युवा- लगातार सड़कों पर थे। पिछले सोमवार को पॉली यू में फँसे अपने साथियों को छुड़ाने के लिए उन्होंने पुलिस के साथ पूरे हांगकांग में मोर्चे लिए थे- पेट्रोल बम, तीर कमान आदि के साथ पुलिस से दर्जनों जगह पर लड़े थे ताकि पॉली यू पर पुलिस का दबाव कम हो और यूनिवर्सिटी पर क़ब्ज़ा किए बैठे छात्रों को सुरक्षित बाहर निकलने का रास्ता मिल सके। उस दिन के प्रतिरोध ने अब तक के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए थे- पुलिस को आँसू गैस के दसियों हज़ार गोले दागने पड़े थे और सिर्फ़ एक दिन में 5,600 से ज़्यादा लोगों को गिरफ्तार करना पड़ा था। और फिर ऐसे हालात में चुनाव हो सकने की संभावना पर असर पड़ने की अफ़वाहों/ख़बरों के बाद पूरा परिदृश्य ही बदल गया!

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सोशल मीडिया से संगठित विरोध

लगभग नेतृत्वविहीन और सोशल मीडिया के सहारे संगठित होने वाले प्रतिरोध समर्थकों ने अचानक शांतिपूर्ण-धरनों आदि को छोड़ बाक़ी पूरा प्रतिरोध चुनावों तक के लिए स्थगित कर दिया। मंगलवार से लेकर रविवार तक पूरा शहर शांत रहा- कोई हिंसक झड़पें नहीं हुईं, कहीं कोई चक्काजाम नहीं किया गया। गेंद अब सरकार के पाले में थी और उसके बाद बच निकलने का कोई रास्ता नहीं था! और फिर चुनाव हुए। कुल 70 लाख की आबादी वाले हांगकांग में क़रीब 29 लाख लोगों ने मताधिकार का प्रयोग किया- इतने मतदान की उम्मीद न होने से प्रशासन को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी और तमाम जगह रात के 11 बजे तक भी कतार लगी रही। पर शायद प्रशासन की उम्मीदों को तोड़ते हुए सबकुछ पूरी तरह से शांतिपूर्वक हुआ।

अब आगे क्या? यह कि डिस्ट्रिक्ट काउंसिल में इतनी बड़ी जीत के साथ पैन डेमोक्रेट्स को केवल स्थानीय मसलों में ही बढ़त नहीं मिलेगी। दरअसल, इस जीत के साथ उनका मार्च 2020 में होने जा रहे लेजको चुनावों में डिस्ट्रिक्ट काउंसिल सीट जीतना पहले ही तय हो चुका है। (हांगकांग की लेजको में दो तरह की सीट्स होती हैं- सीधे निर्वाचित और फंक्शनल- हित समूहों जैसे श्रम, जहाजरानी, वैधानिक आदि- यह व्यवस्था ख़त्म कर सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लाना आंदोलन की पाँच बड़ी माँगों में एक है।)

इसी के साथ उन्हें सीईओ चुनने वाली चुनाव समिति में भी 117 सीटें मिलना तय है और फिर से यह चीन समर्थकों के लिए तो अच्छी ख़बर नहीं ही है, वर्तमान सीईओ कैरी लाम की अगले कार्यकाल के लिए दावेदारी के सपनों का अंत भी है!

पर इन सबसे कहीं ऊपर हांगकांग के चुनाव चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के कूटनीतिक और वाणिज्यिक दोनों संबंधों पर गहरा असर डालेंगे। एक तरफ़ हांगकांग निवासी अपने आंदोलन में लगातार ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य देशों का समर्थन माँगते रहे हैं। उन्हें यह समर्थन मिला भी है। दूसरी तरफ़ चीन अमेरिका और उसके सहयोगी देशों पर प्रतिरोध की आग में ईंधन डालने का आरोप लगाता रहा है, इसे अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताता रहा है। अभी पिछले हफ़्ते ही अमेरिका की सीनेट ने द्विपक्षीय सहमति से हांगकांग में लोकतंत्र के समर्थन में हांगकांग मानवाधिकार एवं लोकतंत्र अधिनियम पारित करके इस झगड़े को बढ़ाया ही है। ऐसे में पहले से वाणिज्यिक युद्ध में उलझे दोनों देशों के लिए इस चुनाव के नतीजे टकराव की एक और ज़मीन बनेंगे।

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समर अनार्य

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