प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सातवीं अमेरिका यात्रा को लेकर कई तरह की आशंकाएँ और आशाएँ थीं। उनकी यह तीन दिवसीय यात्रा द्विपक्षीय शासकीय यात्रा नहीं थी। इसलिए इस यात्रा से संबन्धों में नया मोड़ लाने वाले किसी बड़े सामरिक या व्यापारिक समझौते की उम्मीद तो नहीं थी। पर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी और हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का सामना करने के लिए किसी पहल की उम्मीद थी। ख़ासकर चार देशों के नए संगठन क्वॉड जिसकी शिखर बैठक पहली बार हो रही थी।
आशंकाएँ कई बातों को लेकर थीं। दो साल पहले इन्हीं दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र के दौरान हुई यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी ने ह्यूस्टन में आयोजित हुई हाउडी मोदी सभा में पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के समर्थन के नारे लगाए थे। चुनावों के दौरान उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने लोकतांत्रिक मूल्यों, अल्पसंख्यकों की स्थिति और मानवाधिकारों को लेकर मोदी सरकार की आलोचना की थी। अर्थव्यवस्था की लगातार बिगड़ती दशा और आर्थिक सुधारों के ख़िलाफ़ फैलते विरोध की वजह से भारत के बाज़ार और निवेश का आकर्षण भी फीका पड़ चुका था।
लेकिन जहाँ आशाएँ पूरी नहीं हो सकीं वहीं आशंकाएँ भी निर्मूल साबित हुई हैं। अमेरिकी मेज़बानी में ओबामा और ट्रंप के दिनों जैसी गर्मजोशी नहीं दिखाई दी तो कड़वाहट भी नहीं थी। सबसे बड़ी आशंकाएँ उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ होने वाली पहली और ऐतिहासिक बैठक को लेकर थीं। कमला हैरिस ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थानों की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया। पर साथ ही आतंकवाद की बात आने पर कहा कि पाकिस्तान को अपने यहाँ सक्रिय आतंकवादी गुटों पर लगाम कसनी चाहिए ताकि वे भारत और अमेरिका की सुरक्षा को प्रभावित न कर सकें।
कहने को उपराष्ट्रपति हैरिस और प्रधानमंत्री मोदी की बैठक में माहौल ख़ुशनुमा रहा। लेकिन यदि आप मोदी जी के संयुक्त राष्ट्र महासभा के भाषण को ध्यान से सुनें तो दिखाई देता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर कमला हैरिस का उपदेश कितना चुभा होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत भारत को लोकतंत्र की माँ बताते हुए की और भारत की लोकतांत्रिकता सिद्ध करने में काफ़ी समय लगाया। भारत की और उसकी संस्थाओं की लोकतांत्रिकता को प्रमाणित करने के लिए उन्हें अपनी एक ग़रीब पिछड़े परिवार से प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचने की कहानी सुनानी पड़ी।
राष्ट्रपति बाइडन से साथ हुई शिखर बैठक की बात करें तो वहाँ भी ओबामा और ट्रंप के साथ हुई बैठकों जैसी एक-दूसरे को गले लगाने वाली गर्मजोशी तो नज़र नहीं आई। पर ऐसा भी कुछ नज़र नहीं आया जिसे ‘अगली बार ट्रंप सरकार’ वाले नारे का असर माना जा सके। राष्ट्रपति बाइडन प्रधानमंत्री मोदी को लेने वाइट हाउस के बाहर नहीं आए। पर प्रधानमंत्री के अंदर पहुँचने के बाद स्वयं उठकर उन्हें उनकी कुर्सी तक ले गए। लेने के लिए बाहर न आने और गले न मिलने का कारण कोविड सुरक्षा नियमों को भी माना जा सकता है जिन्हें लेकर राष्ट्रपति बाइडन को कई राज्यों में कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
राष्ट्रपति बाइडन ने भी बातचीत समाप्त करने से पहले आज़ादी, लोकतंत्र, सहिष्णुता, बहुलतावाद और सभी नागरिकों के लिए समान अवसर जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने की बात उठाई जिसे इन विषयों को लेकर हो रही मोदी सरकार की आलोचना की तरफ़ इशारा माना जा सकता है।
दूसरी तरफ़ राष्ट्रपति बाइडन ने भारत के साथ रक्षा साझेदारी को लेकर अपना अटल संकल्प दोहराया। उन्होंने ख़ुफ़िया जानकारी से लेकर ड्रोन जैसी अत्याधुनिक रक्षा तकनीक में साझेदारी और संयुक्त रक्षा उपक्रमों में सहयोग और बढ़ाने का वादा किया।
भारत के नज़रिए से देखा जाए तो शिखरवार्ता की एक नई उपलब्धि यह रही कि राष्ट्रपति बाइडन ने भारत की 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा की परियोजना के लिए वित्तीय सहायता देने की ज़रूरत स्वीकार की। इसे हाल में शुरू हुई स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन की साझा पहल के ज़रिए उपलब्ध कराया जाएगा। उन्होंने सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए और परमाणु सप्लायर ग्रुप में भारत के प्रवेश के लिए अमेरिका के समर्थन को दोहराया।
क्वॉड का हासिल क्या?
यह देखते हुए सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्वॉड की सदस्यता से भारत को कोई लाभ होने वाला है या नहीं?
भारत को क्वॉड में शामिल कर अमेरिका एशिया-प्रशांत क्षेत्र में पाँव पसारते चीन को रोकना चाहता है। पर भारत की पूर्वोत्तरी और पश्चिमोत्तरी सीमाओं पर पाँव पसारने की कोशिश में लगे चीन और अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान और चीन की मदद से सत्ता में लौटे तालिबान के ख़तरे को रोकने के लिए क्वॉड और अमेरिका से कोई मदद मिल सकती है या नहीं?
क्वॉड की शिखर बैठक के वक्तव्यों से और क्वॉड देशों के नेताओं के साथ हुई अलग-अलग शिखर बैठकों के वक्तव्यों से संकेत मिलता है कि इस गुट के देश चीन पर बनी औद्योगिक और तकनीकी निर्भरता से बचने के लिए एक खुला लोकतांत्रिक विकल्प तैयार करना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर सेमीकंडक्टर चिपों और 5G तकनोलॉजी से जुड़े सामान के निर्माण के लिए लोकतांत्रिक देशों में नए केंद्रों का विकास करना। यानी चीन की रोड एंड बैल्ट योजना का मुक़ाबला करने के लिए एक पारदर्शी लोकतांत्रिक सप्लाई चैन तैयार करना।
लेकिन क्या क्वॉड के देश चीन पर किसी भी तरह का दबाव डालने के लिए एकजुट रह पाएँगे?
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