बसवराज बोम्मई
भाजपा - शिगगांव
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भगना! हाथरस ज़िले का गाँव है भगना। क़द में छोटा लेकिन हैसियत में बड़ा है भगना। ठाकुर परिवारों से अटा पड़ा है भगना। बीते शुक्रवार ठाकुरों की एक बड़ी पंचायत सज़ी थी भगना में। इस पंचायत में हाथरस सहित आसपास के कई ज़िलों के ‘प्रभावशाली' ठाकुर जुड़े थे। एजेंडा था बूलगढ़ी गाँव के 4 'अबोध' और 'निरपराध' लड़कों को 'बिलावजह' बलात्कार और हत्या के आरोप में जेल भेज देना। यह सब दलितों का 'षड्यंत्र' है। इसका मुक़ाबला करना होगा।
इस पूरी पंचायत का संयोजन सिकन्दराराव (हाथरस) के बीजेपी विधायक वीरेन्द्रसिंह राणा कर रहे थे। बताते हैं कि इस पंचायत का आइडिया विक्रांतवीर सिंह (आईपीएस) का था जिन्हें 'टिप' मिल गई थी कि हाथरस पुलिस कप्तान पद पर रहते उनके ख़िलाफ़ कोई 'एक्शन' हो सकता है। विक्रांतवीर सिंह ख़ुद को 'खाँटी ठाकुर' मानते हैं। ज़िले के ठाकुर इस ख़ातिर उनका बड़ा सम्मान करते हैं। कप्तान साहब उनका बड़ा ख़याल रखते थे। इस पंचायत की बाबत उन्होंने डीएम से भी स्वीकृति ले ली थी। डीएम ख़ुद भले ही 'ठाकुर साब' नहीं थे लेकिन प्रदेश की सियासत और प्रशासन में ठाकुरों के प्रभुत्व के मानी बख़ूबी जानते थे। क्या यही ठाकुर एंगल था जिस पर लखनऊ से लेकर हाथरस तक के तार जुड़े थे और जो एक मासूम दलित लड़की के साथ हुए जघन्य काण्ड का बचाव कर रहा था या इसके पीछे दूसरी वजहें भी थीं?
हाथरस ज़िला ठाकुरों की बड़ी आबादी वाला ज़िला है। इनके अलावा जाट, ब्राह्मण और दलित आबादियाँ हैं जो अलग-अलग इलाक़ों में अपना प्रभुत्व रखती हैं। पिछले कई संसदीय चुनावों में ठाकुर और जाट मिलकर बीजेपी के पक्ष में एक बड़ा समीकरण बनते हैं। भगना, बिसना, पारसोली, बारू हसनपुर, मांगरू आदि गाँवों में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी ठाकुरों की है। इनमें बिसना सबसे बड़ा गाँव है जहाँ बहुसंख्य ठाकुर ही हैं। सिकन्दराराव विधानसभा क्षेत्र के बीजेपी विधायक वीरेंद्रसिंह राणा इसी गाँव के हैं, लिहाज़ा यह समूचे जनपद की ठाकुर जाति की गतिविधियों का केंद्र भी है।
उत्तर प्रदेश विधान सभा परिचय पत्र के अनुसार बड़े किसान होने के अलावा वीरेंद्रसिंह कोल्ड स्टोरेज, आइस फ़ैक्ट्री और चिलिंग प्लांट के मालिक भी हैं। राणा लम्बे समय से इस पूरे क्षेत्र में दलित विरोध का प्रबल स्वर रहे हैं। 'आरक्षण' से लेकर दूसरे तमाम सवालों पर 'सदन' के भीतर और बाहर वह काफ़ी मुखरित रहते हैं।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में फ़िल्म ‘पद्मावत’ को लेकर उठे प्रबल विरोध का नेतृत्व करने वाले राणा ही थे। इतना ही नहीं, सन 2012 में बीजेपी के ज़िला अध्यक्ष के चुनावों में हथियारों के उग्र प्रदर्शन की खातिर पार्टी ने उन्हें कुछ समय के लिए निलंबित भी कर दिया था।
2017 में वह पहली बार विधान सभा का टिकट पाकर चुनाव जीते। फ़िलहाल वह मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की 'गुडबुक' में हैं जिसके चलते स्थानीय प्रशासन पर उनका दबदबा क़ायम है। हाथरस के हालिया हंगामे को लेकर ज़िला प्रशासन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच 'कोऑर्डिनेशन' भी राणा ही देख रहे थे। ठाकुर समाज के 'निरपराध बच्चों' को 'अपराधमुक्त' किये जाने की माँग से भरी शुक्रवार की पंचायत में पारित प्रस्ताव को मुख्यमंत्री तक पहुँचाने का दायित्व इन्हीं विधायक को सौंपा गया था।
हाथरस की निर्भया कांड में लखनऊ से लेकर हाथरस तक के हुक़्मरानों की क्रूर और अनैतिक कार्रवाइयों के पीछे क्या राजनीति काम कर रही थी, इसे समझा जाना ज़रूरी है। वस्तुतः समूचा ब्रज क्षेत्र ठाकुर बाहुल्य वाला क्षेत्र है। हाथरस, मथुरा, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, एटा, मैनपुरी और अलीगढ़ ज़िलों में 250 से ज़्यादा गाँव हैं जहाँ ठाकुर जातियों का न सिर्फ़ बहुमत है बल्कि वे प्रभावशाली और दबंग समुदाय के रूप में वहाँ विचरते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ये सभी शत-प्रतिशत बीजेपी का बहुत बड़ा वोट बैंक हैं। योगी के कुर्सीनशीं होने के बाद न सिर्फ़ ये बीजेपी के प्रति और अधिक नतमस्तक भूमिका में आ गए बल्कि स्थानीय स्तर पर अन्य उपेक्षित जातियों (विशेषकर दलितों) के विरुद्ध इनका दमनकारी रूप खुल कर बाहर निकल आया जो पिछली ‘पिछड़ा’ और ‘दलित’ सरकारों (मुलायम सिंह, अखिलेश, और मायावती) के कार्यकाल के दौरान दबा-सिमटा रह गया था।
जैसे-जैसे मीडिया में हाथरस प्रकरण उघड़ कर बाहर आता गया और विरोधी दल इसे बीजेपी तथा योगी विरोध की धुरी बनाते गए, वैसे-वैसे स्थानीय ठाकुरों का बल एकत्रित होता गया।
समाजशास्त्री प्रो. एच के सिंह कहते हैं,
“मैं अपने रिश्तेदारों में देख रहा हूँ। ये सभी राज्य सरकार पर दबाव बना रहे थे कि उनके 'अबोध' लड़कों की रिहाई हो। यह मानना कि हाथरस काण्ड में अपराधियों का बचाव और बलात्कार के सभी तथ्यों को मिटाने की कोशिश करना केवल हाथरस के 'ठाकुर' एसपी की करतूत थी, समूचे प्रकरण को 'माइक्रो' नज़रिये से देखना होगा।”
उत्तर प्रदेश के रिटायर्ड डीजी सुधीर अवस्थी कहते हैं कि एसपी ज़िले के प्रोटोकॉल में काफ़ी नीचे आता है। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह कहते हैं,
‘एसपी वही करने के लिए बाध्य है जो डीएम उसे कहता है। यह मानना की हाथरस में जो हो रहा है वह एसपी अपने जातिवादी कारणों के दम पर कर पाने में सक्षम है, उचित नहीं होगा।’
उधर 'प्रदेश' के एक रिटायर्ड एडीजी ब्रिजेंद्र सिंह कहते हैं,
‘डीएम ज़िले में चीफ़ मिनिस्टर का प्रतिनिधि होता है। वही उसे नियुक्त करता है और वही उसे हटाता है। ऐसे में डीएम अपने दम पर मृत लड़की के ताऊ को लात मार सकता है या उसके घरवालों को अपने दम पर धमका रहा है, यह सोच लेना उस बेचारे डीएम पर ज़्यादा वज़न डाल देना होगा। सचाई यह है कि न एसपी अपने बूते कुछ कर सकता है, न डीएम और न एडीजी अपने स्तर पर क़ानून की व्याख्या करने की हिम्मत रखता है।’
उधर वक़ीलों के राष्ट्रीय संगठन 'ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन' के प्रदेश उपाध्यक्ष अरुण सोलंकी का कहना है कि प्रदेश में जिस रफ़्तार से बलात्कार और हत्याएँ हो रही हैं और इनके विरुद्ध जनाक्रोश फैल रहा है, यह सब उसे रोकने की कोशिश है। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह कहते हैं,
‘आप कोई भी केस देखिए, चाहे वह चिन्मयानन्द हो, विधायक सेंगर हो या कोई और घटना, सब जगह पीड़िता, उसके घरवाले या आम जनता, जिसने भी आवाज़ उठाने की कोशिश की, उसकी आवाज़ दबाई गई है। वे जानते हैं कि विरोध के ये स्वर आख़िरकार मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ होंगे और यही वे नहीं चाहते।’
ओह! लोकतंत्र के चश्मे से देखें तो आख़िर कौन सा तर्क ज़्यादा न्यायसंगत ठहरेगा?
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