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असम में मदरसों को बंद करने के फ़ैसले के पीछे कहीं सांप्रदायिक सोच तो नहीं है?

हिमन्त विश्व शर्मा ने कहा है कि मदरसे और संस्कृत टोल बंद कर दिए जाएँगे। लेकिन शर्मा ने यह भी कहा कि संस्कृत टोलों को नए रूप में नलबाड़ी में स्थित कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय के साथ जोड़ा जाएगा। इसका अर्थ है कि संस्कृत की शिक्षा जारी रहेगी लेकिन अरबी भाषा की शिक्षा पर रोक लग जाएगी। 
दिनकर कुमार

असम के शिक्षा मंत्री हिमन्त विश्व शर्मा ने गुरुवार को कहा है कि असम में अगले नवंबर महीने से सरकारी सहायता से चलने वाले 614 मदरसे और 101 संस्कृत टोल (संस्कृत पाठशाला) बंद कर दिए जाएँगे। असम की बीजेपी सरकार ने 'धार्मिक आधार' पर शिक्षा नहीं देने की नीति के तहत यह फ़ैसला किया है। तर्क चाहे जो भी दिए जाएँ लेकिन जिस तरह 2016 के चुनाव में असम में सत्ता संभालने वाली बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करती रही है और संघ की योजनाओं पर अमल करती रही है, उसे देखते हुए मदरसों को बंद करने के फ़ैसले के पीछे भी उसकी सांप्रदायिक सोच नज़र आ रही है। 

सत्ता में आते ही बीजेपी सरकार ने असम में दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर 22 कॉलेजों की स्थापना करने की घोषणा की। पाँच मॉडल कॉलेजों के नाम दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर रखे गए। तब नागरिक संगठनों ने सड़क पर उतर कर इस फ़ैसले का तीव्र विरोध किया था। सरकार ने शेष कॉलेजों का नामकरण उपाध्याय के नाम पर नहीं करने का फ़ैसला किया। इसके बाद सरकार ने दिल्ली के एक प्रकाशक से 1.6 करोड़ रुपए में दीन दयाल उपाध्याय रचनावली ख़रीद कर 600 कॉलेजों में वितरित की थी।

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फिर ‘नमामि गंगे’ की तरह ‘नमामि ब्रह्मपुत्र’ नामक कार्यक्रम का आयोजन सरकारी ख़र्च से किया गया और हरिद्वार से पंडितों को बुलाकर ब्रह्मपुत्र की आरती की गई। इस आयोजन को भी संघ की साज़िश मानकर असमिया समाज ने विरोध किया था चूँकि ब्रह्मपुत्र के साथ आरती जैसी कोई परंपरा प्रचलित नहीं है। ब्रह्मपुत्र के प्रति पूर्वोत्तर के जनजातीय समाज में जो आस्था है वह किसी धर्म विशेष की आराधना पद्धति से जुड़ी हुई नहीं है। इसी तरह कामाख्या तीर्थ स्थल को भी बीजेपी सरकार ने संघ के कहने पर अंबुबासी मेले के समय मिनी कुम्भ मेले का रूप प्रदान करने की कोशिश की तो पुरोहित समुदाय ने तीव्र विरोध किया। स्थानीय बरदेउरी समाज (स्थानीय पुरोहित) ने कामाख्या में नागा साधुओं को जुलूस निकालने की अनुमति नहीं दी। उनका तर्क था कि अंबुबासी मेला धरती की उर्वरता का उत्सव है और इसे कुम्भ मेले का रूप नहीं दिया जा सकता। इस जनजातीय तीर्थ स्थल को संघ परिवार की तरफ़ से वैष्णो देवी तीर्थ की तरह विकसित करने की कोशिश चलती रही है। स्थानीय समाज ऐसे बदलाव को हरगिज स्वीकार नहीं करने वाला है।

जो शिक्षा मंत्री हिमन्त विश्व शर्मा धार्मिक आधार पर शिक्षा नहीं देने का तर्क दे रहे हैं, वे अपना पद संभालते ही मदरसों के साप्ताहिक अवकाश को शुक्रवार से बदल कर रविवार कर चुके हैं। तब उन्होंने तर्क दिया था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में शुक्रवार को मदरसे बंद रहते हैं लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो सकता।

पिछले दिनों विश्व शर्मा ने कोरोना के संकट के समय राज्य के 8 हज़ार नामघरों (वैष्णव समुदाय के उपासनागृह) को ढाई-ढाई लाख रुपए की वित्तीय सहायता देने की घोषणा की। उन्होंने मसजिदों और चर्चों के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं की है। इसके लिए उनकी आलोचना भी की गई।

इस घोषणा की आलोचना करते हुए प्रसिद्ध बुद्धिजीवी डॉ. हीरेन गोहाईं ने कहा है, ‘जिस समय सरकार को स्वास्थ्य सेवा के ढाँचे को दुरुस्त करने पर ख़र्च करना चाहिए उस समय नामघरों को पैसा देना दुर्भाग्यपूर्ण है। आम लोग अपने पूजा स्थल की देखभाल कर सकते हैं।’ 

असम के मदरसों और संस्कृत टोलों को बंद करने के पक्ष में तर्क देते हुए विश्व शर्मा ने कहा है, ‘धर्मनिरपेक्ष देश में सरकारी ख़र्च से धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। इसलामिक धर्म ग्रंथ और अरबी भाषा की शिक्षा देना सरकार का काम नहीं है। अगर सरकारी पैसे से चलने वाले मदरसों में धर्म ग्रंथ की शिक्षा दी जाएगी तो फिर गीता और बाइबल की शिक्षा भी ज़रूरी होनी चाहिए।’

कितना ख़र्च करती है सरकार?

शर्मा ने कहा कि संस्कृत टोलों को नए रूप में नलबाड़ी में स्थित कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय के साथ जोड़ा जाएगा। इसका अर्थ है कि संस्कृत की शिक्षा जारी रहेगी लेकिन अरबी भाषा की शिक्षा पर रोक लग जाएगी। 

सरकार मदरसों पर सालाना 4 करोड़ और संस्कृत टोलों पर 1 करोड़ रुपए ख़र्च करती है। विश्व शर्मा ने कहा है कि इनके शिक्षकों को घर बैठे ही सेवानिवृत्ति के समय तक वेतन मिलता रहेगा।

फ़ैसले पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (आमसू) ने कहा- 

यह मुसलमानों को परेशान करने और उनको संविधान द्वारा प्रदत्त सभी बुनियादी अधिकारों से वंचित करने के बीजेपी सरकार के अभियान का हिस्सा है।


ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन

आमसू अध्यक्ष रेजाऊल करीम सरकार ने कहा, ‘हिमन्त विश्व शर्मा बार-बार असम में मुसलमानों को परेशान करने की कोशिश कर रहे हैं - चाहे वह एनआरसी के माध्यम से हो या शिक्षा, नौकरी या रोज़गार से उनको वंचित रखना हो। यह उनकी साज़िश है। मदरसे केवल धर्म नहीं सिखाते हैं। अरबी का एक ही विषय है, लेकिन अन्य सभी विषय मदरसे में पढ़ाए जाते हैं।’

असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इसे अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय बताया है। उन्होंने ज़ोर दिया कि सरकार को इन संस्थानों के आधुनिकीकरण के लिए क़दम उठाना चाहिए था।

सरकार के इस फ़ैसले का विरोध

हिंदू परिवारों के कई लड़कों के साथ जोरहाट के एक मदरसे में पढ़ाई करने वाले गोगोई ने कहा, ‘सरकार को मदरसों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और उन्हें धर्म से जोड़ना नहीं चाहिए। संस्था को ख़त्म करने के बजाय सरकार को उन्हें मज़बूत करना चाहिए, उनका आधुनिकीकरण करना चाहिए।’

गोगोई ने संस्कृत टोलों का ज़िक्र करते हुए कहा कि संस्कृत भारत की ही नहीं, बल्कि विश्व की सबसे समृद्ध भाषा थी। इसमें न केवल वेदों के समृद्ध धार्मिक ग्रंथ हैं बल्कि ज्ञान की अन्य पुस्तकें भी हैं। 

असम राज्य जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अनफार और बदरुद्दीन अजमल गुटों ने इस क़दम का विरोध किया है। एआईयूडीएफ़ प्रमुख और सांसद बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाले जमीयत के राज्य सचिव मौलाना फजलुल करीम ने कहा,

‘यह सच नहीं है कि मदरसे केवल धार्मिक शिक्षा प्रदान करते हैं। वे एक इसलामी अध्ययन और एक विदेशी भाषा के रूप में अरबी पढ़ाते हैं जिससे कई छात्रों की डॉक्टर और इंजीनियर बनने और मध्य पूर्व के देशों में रोज़गार प्राप्त करने में सहूलियत होती है’।

मौलाना करीम ने कहा कि अन्य नियमित विषयों जैसे गणित, विज्ञान, असमिया, अंग्रेज़ी, सामाजिक अध्ययन इत्यादि को पढ़ाने वाले मदरसों में सामान्य शिक्षा पाठ्यक्रम को महत्व दिया जाता है और हिंदू समुदाय के बच्चे भी राज्य भर में इन संस्थानों में पढ़ते हैं।

मौलाना करीम ने कहा कि अगर राज्य सरकार मदरसों को बंद कर देती है, तो जमीयत इस क़दम को रोकने के लिए क़ानूनी प्रावधानों का सहारा ले सकती है। अभी तक सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ किसी भी संगठन ने अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया है। इसी तरह के विचारों को देखते हुए अनफार जमीयत गुट के राज्य सचिव मौलाना कलीमुद्दीन ने कहा कि उच्च मदरसा आज़ादी से पहले सरकारी वित्त पोषण के साथ काम कर रहे थे और इसे जारी रखना चाहिए।

इन संगठनों ने आरोप लगाया कि बीजेपी सरकार ने मदरसों के प्रति शुरू से विद्वेष की नीति अपनाई है और इनको बंद करने का फ़ैसला एक झटके में नहीं लिया गया है। हाल के वर्षों में सरकार ने मदरसों के लिए अपेक्षित संख्या में शिक्षकों की भर्ती की अनुमति नहीं दी, जबकि छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी।

असम मदरसा शिक्षक समन्वयरक्षी समिति के अध्यक्ष फारुख अहमद लश्कर ने सरकार के फ़ैसले का विरोध करते हुए कहा है, ‘मदरसों में राज्य शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम की शिक्षा दी जाती है। 70 हज़ार विद्यार्थी इन मदरसों में पढ़ रहे हैं। सरकार इनको बंद करने के लिए जो तर्क दे रही है उनका कोई आधार नहीं है।’

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