शहरी और मध्यमवर्गीय मतदाताओं के बीच पारंपरिक रूप से गहरी पैठ रखने वाली भारतीय जनता पार्टी को हाल में हुए विधानसभा चुनावों में अच्छा ख़ासा नुक़सान इन्हीं इलाक़ों में हुआ है। इसलिए यह सवाल उठने लगा है कि बीजेपी की पकड़ शहरी मतदाताओं पर ढीली क्यों पड़ने लगी है। चुनाव नतीजों पर एक नज़र डालने से यह साफ़ हो जाता है कि मध्य प्रदेश के शहरी इलाक़ों में सत्तारूढ़ दल को पहले की तुलना में लगभग 7 फ़ीसद अंक यानी परसेंट पॉयंट कम वोट मिले। यह प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से कम तो है ही, ख़ुद इसके पिछले चुनाव यानी 2013 में हुए चुनाव से भी कम है। ज़ाहिर है, शहरी और अर्द्धशहरी मतदाताओं के बीच इसकी अपील कम हुई है।
यह ट्रेंड एक राज्य तक सीमित नहीं रहा। राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों ही जगहों पर शहरी मतदाताओं ने पार्टी से समान रूप से दूरी बना ली है। पार्टी को इन जगहों पर वोट शेयर कम मिल हैं। बीजेपी भले ही मध्य प्रदेश में हार गई है, पर वहां उसे कांग्रेस की तुलना में बहुत ही कम वोट मिले है, ऐसा भी नहीं है। उसका कुल वोट शेयर प्रतिद्वंद्वी के वोट शेयर से थोड़ा ही कम है। उसे कांग्रेस की तुलना में सिर्फ़ 0.10 फ़ीसद कम वोट ही मिले है, हालांकि वह इतने ही अंतर की वजह से पूरा राज्य हार गई। लेकिन शहरी इलाक़ों में उसे अधिक नुक़सान उठाना पड़ा है।
बेरोजगारी, महँगाई और शहरी मतदाताओं की दूसरी दिक्क़तों को ठीक करने में बीजेपी नाकाम रही। उसे पार्टी के मुख्य विंदु मसलन हिदुत्ववाद और राम मंदिर जैसे मुद्दों ने अधिक आकर्षित नहीं किया। यह निष्कर्ष भी निकलता है कि शहरी मतदाताओं के बीच नरेंद्र मोदी की चमक फीकी हो गई है।
यह हाल मध्य प्रदेश और राजस्थान दोनों ही राज्यों में एक सा रहा है। दोनों ही सूबों में शहरी इलाक़ों में पार्टी को कम वोट मिले हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में उसे इसकी तुलना में कम नुक़सान हुआ है। इसे आँकड़ों पर एक नज़र डाल कर समझा जा सकता है।
यह पार्टी के लिए ख़तरे की घंटी है, क्योंकि इसका आधार तो शहरों में ही ज़्यादा मजबूत रहा है। शायद यह पार्टी की उन कोशिशों का नतीजा भी है, जिसके तहत यह ख़ुद को अखिल भारतीय और सबको स्वीकृत पार्टी के रूप में स्थापित करना चाहती है। पार्टी अपने पुरानी पहचान से निकल कर खुद को नए रूप में रखना चाहती है। यह दांव उल्टा पड़ा है और इसे नुक़सान उठाना पड़ा है।
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