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यदि बाबरी मसजिद की ज़मीन मुसलमानों ने ख़ुद हिन्दुओं को दे दी होती!

अयोध्या सिर्फ राजनीतिक मुद्दा नहीं था। जम्मू से लेकर तमिलनाडु तक और गुजरात से लेकर असम तक, यह करोडों श्रद्धालुओं के दिल से जुड़ा भावनात्मक मुद्दा था। मजहब को अपना सब कुछ समझने वाले मुसलमान यह मामूली-सी मनोवैज्ञानिक बात क्यों नहीं समझ पाए? देश में मसजिदें तो बहुत हैं, लेकिन जन्मस्‍थान एक ही है। भले राम का जन्म ठीक बाबरी मसजिद के तीन गुम्बदों की 0.30 एकड़ जमीन पर न हुआ हो, सदियों पुराना एक विश्वास है कि श्रीराम वहीं जनमे थे। क्यों न यह जमीन हिन्दुओं को ही दे दी जाए!
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कोई दस्तावेज़ नहीं

यह मानने की कोई वजह नहीं कि देश के अधिसंख्य मुसलमान ऐसा ही नहीं सोचते होंगे। लेकिन सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड जैसे संगठन इस सामान्य-सी भावना पर एकमत होकर फ़ैसला क्यों नहीं ले पाए और अपनी ही नहीं, पूरी कौम की फ़जीहत करा बैठे। क्या वे यह सोच रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट करोडों हिन्दुओं की भावनाओं को दरकिनार कर  ज़मीन का मालिक़ाना हक़ उन्हें दे देगा, वह ज़मीन जिसके बारे में उनके पास पूरे दस्तावेज़ तक नहीं हैं। 
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड बाबर द्वारा मसजिद बनाने यानी 1528 के बाद से 1857 ई तक का एक भी दस्तावेज़ नहीं दे पाया कि उस जमीन पर मुसलमानों का कब्जा था और वे वहाँ नमाज़ पढ़ते थे। यानी इन 329 सालों के दौरान वह एक लावारिस पड़ी मसजिद थी।
ऐसी वीरान पड़ी मसजिद के लिए दिन-रात साथ रहने वाले करोड़ो हिन्दू पडोसियों की भावनाओं का उन्हें जरा भी ख्याल नहीं आया। राजनीति से ऊपर उठ कर सोंचे तो यह वाकई तकलीफ़देह बात है। भारतीय मुसलमानों के साथ दिक्क़त यह है कि उनका कोई एक नेता नहीं, कोई एक संगठन नहीं, कोई एक स्कूल नहीं। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड, शिया वक़्फ़ बोर्ड को फूटी आँख नहीं सुहाता। बरेलवी स्कूल  देबबंद को नहीं देखना चाहता। ये दोनों अहमदियों को नहीं देखना चाहते। 

नेताविहीन कौम!

मुसलमानों का कोई लीडर इतना मुखर नहीं कि खुल कर अपनी राय रख सकें। एक तरफ ओबैसी जैसे सियासतदान हैं जिन्हें हैदराबाद के बाहर कोई विश्वसनीय नहीं मानता। दूसरी तरफ आरिफ़ मुहम्मद ख़ान जैसे मुसलमानों का भला चाहने वाले नेता हैं जिन्हें तमाम कट्टर मुसलमान अपनी कौम का दुश्‍मन समझते हैं। 
देश के मुसलमान चाह कर भी सड़क पर नहीं उतर सकते और नहीं कह सकते कि जो हुआ सो हुआ अब बाबरी मसजिद की ज़मीन हिन्दुओं को दे दो। ऐसा कह कर वे न केवल ‌हिन्दुओं का भरोसा जीतते बल्कि हमेशा के लिए उनका मान बढ़ जाता। 

यदि मुसलमानों ने ख़ुद ज़मीन दे दी होती!

कल्पना कीजिए, अयोध्या की 0.30 एकड़ विवादित जमीन अगर समझौते में मुसलिम पक्ष खुद ही छोड़ देता तो हिन्दुस्तान के मुसलमानों का सर सारी दुनिया के सामने फक्र से कैसे ऊंचा हो जाता। और मसजिद तोड़ने वाले नामुराद लोग कितने शर्मसार होते।
हिन्दू बहुसंख्यक हैं, इसलिए उनका रोना यह है कि हमारा देश, हम अकसरियत में और हमी पर जुल्मो-सितम। कांग्रेस की सात दशकों की तुष्टीकरण या कहें वोटों की सियासत ने अधिकांश हिन्दुओं को बहुत निराश किया।
उन्हें भड़काने की रही सही कसर कम्युनिस्टों और तथाकथित हिंदू सेकुलर बुद्धिजीवियों ने पूरी कर दी।  जन्मभूमि का मुद्दा हो या कश्मीर में धारा 370 हटाने का। मोदी-1 में इन्होंने इतना ज़हर बो दिया कि हिन्दू वोटर एकजुट हो गया। और मोदी सरकार बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में आ गई। और तब न केवल भारत के मुसलमानों बल्कि सारी दुनिया को लगने लगा कि मोदी के नेतृत्व में भारत हिन्दू राष्ट्र की तरफ बढ़ रहा है। 

हिन्दू एकीकरण

राम मंदिर को इतना बड़ा मुद्दा बाबरी एक्‍शन कमेटी जैसी तंजीमों ने बनाया। और उसके बाद बाबरी मसजिद एक्‍शन कमेटी और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने इसे हवा दी। यह एक बहुत बड़ी नासमझी थी, जिसने पहली बार सारे देश के हिन्दुओं को एकजुट कर दिया। भाजपा दो सीटों से बढ़कर 303 सीटों पर पहुंच गई और आज देश की लोकसभा और राज्यसभा उसके कब्जे में है। आज राजनीतिक ताक़त के रूप में भाजपा नेहरू के जमाने में 60 के दशक की कांग्रेस से भी ज्यादा मजबूत है। 
लखनऊ के मुसलिम धर्मगुरु अली मियां ने 80 के दशक में ही इस ख़तरे को भाँप लिया था। अली मियां वाहिद ऐसे धर्मगुरु थे जिनकी सभी फिरके के मुसलमान इज्ज़त करते थे। मुझे याद है बाबरी मसजिद का मुद्दा जब पूरे उफान पर था। उन्होंने अपनी आत्मकथा 'कारवां-ए-ज़िन्दगी' में लिखा था : 

मैं खुली आँख से देख रहा हूँ, बाबरी मसजिद आंदोलन जिस तरह से चलाया गया, उसने बहुसंख्यकों के दिलों में हिन्दू जागृति का जोश पैदा कर दिया है, जो बड़े से बड़े हिन्दू पेशवा और प्रचारक पैदा नहीं कर पाए थे। इसलामी लिहाज से यह नासमझी और अंधापन ही नहीं, मुसलमानों के लिए ख़ुदकुशी की तरह है।


अली मियां, मुसलिम धर्मगुरु

अली मियां ने अपनी आत्मकथा में इसके आगे लिखा : आपकी करतूतों से पडोसी समुदाय में अपने धार्मिक जागरण का खानदानी और दुश्मनी से भरा जोश पैदा हो जाए जो किसी मसजिद या मरदसे और इसलामी जीवन शैली के ख़िलाफ़ हो। इनकी नाअक्ली और नासमझी इस समस्या का समाधान नहीं होने देगी।
यही हुआ। समस्या का समाधान तो हो गया, लेकिन मुसलिम समुदाय के हाथ कुछ नहीं आया। एक फ़ारसी कहावत है, 'रोजा छुड़ाने गए और नमाज गले पड़ गई।' उर्दू का ही एक शेर  है- न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए। 
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दयाशंकर शुक्ल सागर

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