loader

बिहार में जेडीयू और बीजेपी का नकली युद्ध

क्या बिहार विधानसभा के चुनाव (नवंबर 2020) से पहले बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन टूट जाएगा। इसके बाद दोनों पार्टियों की अगली रणनीति क्या होगी? क्या नीतीश कुमार फिर से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ जाएँगे? क्या बीजेपी कोई नया समीकरण तैयार करेगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लगातार बने हुए हैं। 
शैलेश
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए पेशबंदी अभी से शुरू होने लगी है। चुनाव अगले साल यानी 2020 के नवंबर में होने हैं लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) सधे हुए क़दमों से बीजेपी को क़ाबू में करने की मशक़्क़त में जुटी दिखाई दे रही है। नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी की मुलाक़ात और जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेता पवन वर्मा के बीजेपी विरोधी बयान को दो अलग-अलग रणनीतियों के तौर पर देखा जा रहा है। पवन वर्मा ने तो बीजेपी को अकेले चुनाव लड़ने की खुली चुनौती दे डाली है। 
ताज़ा ख़बरें

वैसे भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बीजेपी के साथ कभी सहज नहीं रहे हैं। बीजेपी और जेडीयू का साथ सत्ता में बने रहने की राजनीतिक मजबूरी है। नीतीश कुमार अपनी धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों को सम्मान के साथ अपना बनाए रखने की छवि कायम रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ़, बीजेपी के कई नेता मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुला अभियान चलाते रहते हैं। इस मुद्दे पर दोनों असहज दिखाई देते हैं। इसके चलते जेडीयू और बीजेपी के बीच टकराव की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। 

सवाल यह है कि क्या बिहार विधानसभा के चुनाव (नवंबर 2020) से पहले बीजेपी और जेडीयू का गठबंधन टूट जाएगा। इसके बाद दोनों पार्टियों की अगली रणनीति क्या होगी? क्या नीतीश कुमार फिर से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ जाएँगे? क्या बीजेपी कोई नया समीकरण तैयार करेगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लगातार बने हुए हैं। 

नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अकेले दम पर चुनाव जीतने की स्थिति में कभी नहीं रही। 2014 से पहले जेडीयू और बीजेपी साथ थे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू अकेले उतरी और बुरी तरह पराजित हुई। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश और आरजेडी साथ आए और जीते लेकिन 2017 में नीतीश ने आरजेडी का साथ छोड़ दिया और बीजेपी के ख़ेमे में पहुँच गए। 

2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश और बीजेपी गठबंधन ने कमाल का प्रदर्शन किया। बीजेपी के कुछ नेताओं को छोड़ दें तो पार्टी में कोई नीतीश विरोधी अभियान नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद नीतीश और जेडीयू के दूसरे नेता अक्सर आशंकित दिखाई देते हैं।

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा चलती रहती है कि असल में बीजेपी एक लंबी योजना पर काम कर रही है जिसके जरिए नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को सत्ता और सियासत दोनों से बेदख़ल किया जा सके। नीतीश की पूरी राजनीति और उनका वजूद अति पिछड़ा और अति दलित वर्ग के समर्थन पर टिका हुआ है और यही वर्ग बीजेपी के निशाने पर है। 

बिहार और उत्तर प्रदेश सहित हिंदी पट्टी के लगभग सभी राज्यों में सामान्य जातियाँ बीजेपी के पाले में आ चुकी हैं लेकिन जीत के आंकड़े तक पहुँचने के लिए अति पिछड़ों और अति दलितों का साथ ज़रूरी है। जेडीयू और बीजेपी में टकराव का एक बड़ा कारण यह भी है। हाल में बिहार के राज्यपाल के रूप में फागू चौहान की नियुक्ति को बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। चौहान बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश के घोसी क्षेत्र से हैं और वह अति पिछड़ा जाति से आते हैं। 

अति पिछड़ों के बीच सक्रिय है संघ 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पिछले कुछ समय से अति पिछड़ों के बीच सक्रिय है। संघ प्रमुख मोहन भागवत लगातार तीन बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। भागवत बिहार में प्रांत प्रचारक भी रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश का किला फतह करने के बाद हिंदी पट्टी में बिहार संघ के एजेंडे में सबसे ऊपर है। संघ अच्छी तरह समझता है कि बिहार की सबसे समृद्ध पिछड़ी जाति यानी यादवों के बीच उसकी पैठ सीमित ही रहेगी। लालू यादव के राजनीतिक क्षेत्र से बाहर होने के बाद यादवों पर उनके बेटे तेजस्वी यादव की पकड़ ठीक-ठाक होती जा रही है। यादव-मुसलमान समीकरण अभी भी बिहार में जिताऊ गठबंधन माना जाता है।  हालाँकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने तेजस्वी को धो डाला परंतु उनकी वापसी की संभावना भी बनी हुई है। 

बिहार से और ख़बरें
2015 के विधानसभा चुनाव में कुल 243 सीटों में से आरजेडी को 81 और जेडीयू को 70 सीटें मिली थीं तब दोनों दल साथ चुनाव लड़े थे। बीजेपी ने एनडीए को ठीक-ठाक विस्तार दिया तब भी उसे सिर्फ़ 53 सीटें मिलीं। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश और बीजेपी साथ आ गए तो 40 में से 39 सीटें गठबंधन को मिलीं। लोकसभा चुनाव के पहले भी सीटों के बंटवारे को लेकर बीजेपी और जेडीयू में घमासान मचा था। आख़िरकार दोनों पार्टियों को बराबर-बराबर यानी 17-17 सीटें मिलीं और 6 सीटें रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को गई। दोनों चुनावों से एक बात साफ़ है कि नीतीश कुमार अभी भी जिताऊ फ़ैक्टर बने हुए हैं। 
ताज़ा बयानबाजियों को भी 2020 में सीटों के बंटवारे से जोड़कर देखा जा रहा है। लोकसभा की तरह का फ़ॉर्मूला भी बनता है तो क़रीब 100 सीटें बीजेपी और जेडीयू तथा 40 एलजेपी को मिल सकती हैं। इसके बाद भी नीतीश की मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में पड़ सकती है।

2015 में 100 सीटों पर लड़कर नीतीश की पार्टी 70 सीटें जीत पायी। जरा भी उतार-चढ़ाव की स्थिति में एलजेपी का महत्व बढ़ सकता है। राजनीतिक हलकों में माना जाता है कि पासवान की पहली पसंद बीजेपी से कोई नया मुख्यमंत्री होगा। नीतीश और पासवान राजनीति में एक-दूसरे की पसंद नहीं हैं। 

बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार के विरोधी नहीं हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि नीतीश ने सांप्रदायिक दंगा या धार्मिक भेदभाव का कभी साथ नहीं दिया। अब्दुल बारी सिद्धिकी से उनकी मुलाक़ात को भी कई राजनीतिक रंगों के चश्मे से देखा जा रहा है। पहला तो यह कि आरजेडी के साथ जाने का विकल्प भी नीतीश खोल कर रखना चाहते हैं। चाहे ना चाहे आरजेडी की मजबूरी होगी नीतीश के साथ रहना। इससे कम से कम चुनाव में जीत की स्थिति बेहतर हो सकती है। 

लालू यादव के जेल जाने और मीसा यादव के ख़िलाफ़ इनकम टैक्स और सीबीआई की कार्रवाई से परेशान आरजेडी के पास ज़्यादा विकल्प भी नहीं हैं। हाल ही में लालू यादव से मुलाक़ात के बाद आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने कहा कि एनडीए की हलचलों पर उनकी नज़र है। इसे भी एक संकेत माना जा रहा है कि आरजेडी एक बार फिर से नीतीश विरोध की नीति को छोड़ सकती है। 

बिहार में बीजेपी का वोट शेयर लगातार बढ़ा है।  2015 में भी बीजेपी को सबसे ज़्यादा क़रीब 24% वोट मिले थे। आरजेडी को 18 और जेडीयू को लगभग 17 फ़ीसदी वोट से संतोष करना पड़ा था। लोकसभा चुनाव में तो मोदी लहर ने इतिहास ही बना डाला। बीजेपी के लिए ज़मीन तो तैयार है लेकिन नीतीश से अलग होना एक बड़े ख़तरे को मोल लेने की तरह होगा। इसलिए इस वक़्त बीजेपी और संघ के नेताओं का ज़्यादा ध्यान अति पिछड़ी जातियों में अपनी पैठ बढ़ाने पर है। 

संबंधित ख़बरें
नीतीश और उनकी पार्टी के लिए यह ख़तरे का संकेत तो है लेकिन बीजेपी का साथ छोड़ना भी नीतीश के लिए आसान नहीं है। राजनीतिक हलकों में यह माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव तक यह खींचातानी और बयानबाज़ी जारी रह सकती है। नीतीश के विरोध में बीजेपी के गिरिराज सिंह जैसे नेता भी बयानबाज़ी में पीछे नहीं है। हाल में बिहार पुलिस की विशेष शाखा ने आरएसएस और उससे संबद्ध अट्ठारह संगठनों के बारे में सूचना एकत्रित करने के लिए जिलों के पुलिस अधिकारियों को पत्र लिखा तो विरोध में सबसे मुखर स्वर गिरिराज सिंह का ही था। यह चिट्ठी तो वापस हो गई लेकिन इससे एक संकेत तो मिलता है कि बिहार सरकार आरएसएस को लेकर सशंकित है। 
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
शैलेश

अपनी राय बतायें

बिहार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें