नीतीश कुमार आजकल बहुत अकेले हैं। निराश भी हैं और हताश भी। बौखलाए हुए हैं। रह-रह कर वो अनाप-शनाप बोलने लगते हैं। नीतीश की छवि एक शालीन नेता की रही है लेकिन अब वो रैलियों में निजी टिप्पणियां करने लगे हैं। उनके स्वभाव में ये बदलाव दरअसल इस बार के बिहार चुनाव की असली कहानी है।
नीतीश को बिहार की राजनीति का चाणक्य कहा जाता है। ऐसा चाणक्य जो बिहार में पिछले पंद्रह सालों से शासन के शीर्ष पर रहा। उनके राजनीतिक चातुर्य का करिश्मा ये है कि बीजेपी और आरजेडी दोनों, उनके नीचे रह कर सरकार में शामिल रहे।
मज़ेदार बात ये है कि जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) दोनों दलों से छोटा ही रहा। फिर भी मुख्यमंत्री वही बने। अब चाणक्य का अस्तित्व ख़तरे में है। वो चक्रव्यूह में फंस गए हैं। ये चक्रव्यूह किसी और ने नहीं, खुद नीतीश कुमार ने रचा और अब वो बाहर जाने का रास्ता खोज रहे हैं। चक्रव्यूह के दरवाज़े उनसे टूट नहीं रहे हैं और लगता है कि अभिमन्यु की तरह वो भी खेत रहेंगे।
नीतीश जब 2013 में एनडीए से निकले थे और बीजेपी से गठबंधन तोड़ा था तो उन्हें भविष्य के प्रधानमंत्री के तौर पर देखा जा रहा था।
छवि को लगा धक्का
2015 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव की मदद से जब वो फिर सत्ता में लौटे तब भी उनका जलवा बरक़रार था लेकिन लालू का साथ छोड़कर जब वो फिर से बीजेपी की गोद में जा बैठे और कोई साफ कारण नहीं बता पाये कि क्यों उन्होंने पाला बदला, क्यों लालू की पीठ में छुरा घोपा, तो अचानक उनकी छवि को जबरदस्त धक्का लगा।
एक ईमानदार, शालीन नेता को लोगों ने अवसरवादी के रूप में देखा। जो पहले कुर्सी के लिए बीजेपी का साथ छोड़ता है और फिर कुर्सी के लिए ही बीजेपी से जा जुड़ता है। उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि बीजेपी सांप्रदायिक है या लालू भ्रष्ट, उन्हें अपनी कुर्सी से मतलब है। यहां से उनके महात्म्य के टूटने की कहानी शुरू होती है जिसका पटाक्षेप इस चुनाव में हो सकता है।
आज जब नीतीश की राजनीतिक पूंजी चुकने के कगार पर है तो ये सवाल उठना ज़रूरी है कि बीजेपी क्यों नीतीश को अपने कंधे पर बिठा कर घूमेगी? वो क्यों न नीतीश के राजनीतिक अंत का तमाशा देखे?
पोस्टर से तसवीर ग़ायब
बीजेपी क्यों न नीतीश के अंत में कमल को मज़बूती से खिलता हुआ देखे? वो क्यों न इस चुनाव में नीतीश को हराने की कोशिश करे? वैसे कहने को बीजेपी कह रही है कि नीतीश ही एनडीए गठबंधन के नेता हैं और वही चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनेंगे। पर इस ज़ुबानी जुगाली से अलग ज़मीन पर साफ दिख रहा है कि बीजेपी ने गरम आलू की तरह उन्हें ज़मीन पर छोड़ दिया है। बीजेपी के पोस्टर से नीतीश की तसवीर ग़ायब हो गयी। जब बवाल बढ़ा तो पहले चरण के मतदान के दिन नीतीश की बीजेपी के पोस्टर में वापसी हुई।
चिराग को बीजेपी की शह!
ज़मीन पर बीजेपी के कार्यकर्ता जमकर नीतीश को कोस रहे हैं और उनका साथ दे रहे हैं अपने सीने में मोदी की मूर्ति लेकर घूमने का दावा करने वाले चिराग पासवान। चिराग को अगर एक फ़ोन मोदी या अमित शाह का चला जाता तो वह नीतीश के ख़िलाफ़ बोलना बंद कर देते। लेकिन न केवल वो बोल रहे हैं बल्कि नीतीश को जेल भेजने की भी बात कर रहे हैं।
यानी अपने तमाम दावों के बाद भी बीजेपी नीतीश के साथ मज़बूती से नहीं खड़ी है और चिराग को नीतीश पर हमले करने के लिए छोड़ दिया गया है? सवाल ये उठता है कि बीजेपी क्यों अपने ही साथी को कमजोर करेगी क्योंकि ऐसा करने से उसे ही नुक़सान हो सकता है! तो फिर?
बीजेपी की सियासी ख़्वाहिश
इसका जवाब कठिन नहीं है। बीजेपी पिछले पंद्रह सालों से नीतीश की पिछलग्गू बनी हुई है। वो कब तक बनी रहेगी। राजनीति परोपकार का नाम नहीं है! राजनीति सत्ता तक पहुंचने का नाम है और कोई किसी को कब तक कंधे पर उठाकर घूमेगा। पंद्रह साल बहुत लंबा वक़्त होता है। कब तक बीजेपी अपनी महत्वाकांक्षा को दबा कर रखेगी।
अब जबकि नीतीश की अलोकप्रियता के लक्षण दिखने लगे हैं और नीतीश बीजेपी के लिए उपयोगी नहीं रह गए हैं तो फिर उन्हें छोड़ बीजेपी अपना स्वतंत्र रास्ता क्यों न तलाशे और वो इस दिशा में आगे बढ़ रही है।
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के मुताबिक़, 2010 में नीतीश की स्वीकारोक्ति 77% थी तो 2015 में ये बढ़कर 80% हो गयी। लेकिन 2020 में नीतीश की स्वीकारोक्ति घट कर 52% हो गयी। यानी लोकप्रियता में 28% की कमी। ये आंकड़ा असाधारण है।
पिछड़े नेताओं का उभार
बीजेपी को अब लगने लगा है कि बिहार में मंडल राजनीति एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंच गयी है जहां से नई राजनीति शुरू होगी। मंडल की राजनीति के चार बड़े योद्धा लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान और शरद यादव माने जाते हैं। लालू जेल में हैं। उनका बेटा तेजस्वी सामने है। रामविलास पासवान अब इस दुनिया में नहीं हैं, उनका बेटा चिराग चुनाव लड़ रहा है।
शरद बीमार हैं और उनकी बेटी भाग्य आज़मा रही है। नीतीश अलोकप्रिय हो रहे लगते हैं। ऐसे माहौल में मंडल से इतर नई राजनीति, नये नेता के लिए जगह बन सकती है। तेजस्वी के पोस्टरों से लालू का ग़ायब होना मजाक नहीं है। लालू के राज को भले ही जंगल राज कहा जाये पर ये वो समय था जब बिहार में सामंती व्यवस्था के ख़िलाफ़ पिछड़ी जातियों ने विद्रोह किया और अगड़ों को राजनीति के बियाबान में फेंक दिया।
1990 के बाद से बिहार में सवर्ण जाति का कोई नेता मुख्यमंत्री नहीं बना। इस दौरान कमान लालू और नीतीश के हाथ में रही और कुछ महीनों के लिए दलित नेता जीतनराम मांझी मुख्यमंत्री रहे। अन्यथा 1990 से पहले बिहार की राजनीति में सवर्ण जातियों का ही बोलबाला था।
मंडल की राजनीति ने जो जाति आधारित चेतना का जागरण किया उसमें अब निकट भविष्य में अगड़ी जाति के नेताओं का सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना मुश्किल लगता है।
लालू के बाद नीतीश ने पिछड़ों और दलितों में आकांक्षाओं को हवा दी। रोज़गार, कानून व्यवस्था, शिक्षा और स्वास्थ्य का सपना दिखाया, एक बेहतर जीवन और जीविकोपार्जन का भविष्य दिखाया। इस दिशा में उन्होंने काम भी किया पर अपने दूसरे टर्म के बाद के सालों में वो भटकते हुए दिखे और तीसरे टर्म में पूरी तरह रास्ते से दूर हो गए।
बिहार में आज रोज़गार की बुरी हालत है। स्वास्थ्य और मानवीय मानदंडों के मामले में बिहार देश के सबसे पिछड़े राज्यों में है। बिहार से पलायन बढ़ता ही गया और रोज़गार के अवसर खत्म होते गए। ऐसे में तीस साल के बाद अगर बिहार में नौजवान पिछड़े नेता तेजस्वी में नया सपना, नई अपेक्षाएं और आकांक्षा उछाल मारने लगे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
यानी ये कह सकते हैं कि तेजस्वी पोस्ट-मंडल राजनीति का नया चेहरा हो सकते हैं और बीजेपी मोदी की अगुवाई में एक नया नैरेटिव देकर बिहार में अपनी स्वतंत्र ज़मीन तलाश सकती है।
पंख फैलाएगी बीजेपी?
उत्तर भारत में बिहार पंजाब के बाद अकेला राज्य हैं, जहां वो अपने बल पर अब तक सरकार नहीं बना पायी है। केंद्र में 303 सीट पाने वाले मोदी और शाह को ये बात ज़रूर अखरती होगी। नीतीश के कंधे पर अगर बीजेपी सवार नहीं होती तो कई बार गिर कर भी वो बिहार में अपना व्यापक जनाधार बना सकती थी। ये कह सकते हैं कि बीजेपी नीतीश की पिछलग्गू बन सत्ता में तो रही पर बरगद के नीचे सिमटी, सकुचाई बैठी रही। अब मौक़ा है अपने पंख फड़फड़ाने का। नीतीश के साये से बाहर निकलने का।
ये मत भूलिएगा कि ये मोदी और शाह की बीजेपी है। अटल-आडवाणी काल की बीजेपी नहीं कि लिहाज़ करेगी, नीतीश की उपयोगिता ख़त्म हो गई तो उन्हें उठा कर फेंकने में भी वो गुरेज़ नहीं करेगी। और अगर एक नेता और दल के तौर पर बीजेपी अपनी सरकार बनाने का ख़्वाब देखती है तो हैरानी कैसी। यही तो राजनीति है।
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