देश में जब 24 मार्च को लॉकडाउन घोषित हुआ था, तब दिल्ली में कोरोना के सिर्फ 30 मरीज थे और एक भी शख़्स की मौत नहीं हुई थी। लॉकडाउन का दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने बढ़-चढ़कर स्वागत किया था और इसे बहुत ज़रूरी बताया था। मई और जून में जब दिल्ली में आंकड़ा रोजाना 100 मौतों तक पहुंच गया था, तब दिल्ली सरकार शराब के ठेकों से लेकर मार्केट तक सब कुछ खोलने के लिए आमादा थी।
मेट्रो अब शुरू हुई है लेकिन दिल्ली सरकार इसे दो महीने पहले से ही चलाने की जिद कर रही थी। अब हालात ये हैं कि कोई माने या न माने लेकिन दिल्ली में कोरोना की वापसी हो गई है।
जब कोरोना अपने चरम पर था और संक्रमण के मामलों ने एक बार भी चार हजार का आंकड़ा नहीं छुआ था, तब दिल्ली के हुकमरान कह रहे थे कि दिल्ली कोरोना की चपेट में आ चुकी है। तब 23 जून को सबसे ज्यादा 3947 नए मामले आए थे। अब सितंबर के पहले 15 दिनों में 6 बार आंकड़े 4 हजार से कहीं ज्यादा आ चुके हैं लेकिन दिल्ली सरकार चैन की बंसी बजा रही है।
केजरीवाल सरकार कह रही है कि कोरोना नहीं फैल रहा है और बस 5-7 दिन में केस कम होने शुरू हो जाएंगे। अब जिम भी खोल दिए गए हैं और सिनेमाओं और स्कूलों को ही खोलने की हिचक है। 21 सितंबर से नौवीं से 12वीं तक के बच्चों को अपने अभिभावकों की मंजूरी से स्कूल जाने की इजाजत दी जा रही है।
सिसोदिया, जैन चपेट में
आखिर इसे क्या कहा जाए? दिल्ली सरकार के सारे नुमाइंदों का यह कहना है कि अब हमें कोरोना के साथ ही जीना होगा। ऐसा कहने वाले डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया खुद भी कोरोना का शिकार हो गए हैं और दिल्ली में स्वास्थ्य क्रांति लाकर प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने वाले स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन भी बमुश्किल जान बचा सके हैं।
इसके बावजूद दिल्ली सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि दिल्ली में कोरोना की वापसी हो रही है और यह वास्तव में बड़ी ही चिंता की बात है।
दिल्ली सरकार को चेताने के लिए आंकड़ों से माथापच्ची भी करनी पड़ सकती है। दिल्ली में मार्च महीने में कोरोना के कुल 120 केस आए थे और 2 लोगों की मौत हुई थी। तब बहुत-से लोग यह मानने के लिए तैयार ही नहीं थे कि दिल्ली में कोरोना फैल सकता है। अप्रैल के शुरू में जब तब्लीग़ी जमात के सैकड़ों की तादाद में केस आए, तब यह आभास हुआ कि केंद्र और दिल्ली सरकार के निकम्मेपन के कारण पूरे देश में ये लोग कोरोना फैला रहे हैं तो पहली बार लोगों के माथे पर शिकन आई।
तेज़ी से बिगड़े हालात
अप्रैल में दिल्ली में कुल 3515 मामले आए और मरने वालों की तादाद 59 तक पहुंच गई थी। लेकिन मई महीने में 16,329 नए मामले आ गए और कोरोना के खतरे की घंटी इसलिए बजी क्योंकि 414 और लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। उस दौर में दिल्ली सरकार के पास न तो टेस्ट का कोई इंतजाम था और न ही अस्पतालों में बेड थे। लोग टेस्ट कराने के लिए मारे-मारे फिर रहे थे। सरकारी अस्पतालों को भी टेस्ट करने से मना कर दिया गया था।
मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा थी, इसका पता तब चला जब श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लाशों के अंबार लग गए और अंतिम संस्कार के लिए लोगों को घंटों नहीं दिनों का इंतजार करना पड़ा। जून महीने की 18 तारीख तक यही हालात थे।
केंद्र ने दिया दख़ल
उस वक्त में केंद्र सरकार ने दख़ल दिया और दिल्ली में टेस्ट दोगुने किए गए, अस्पतालों में बेड का इंतजाम किया गया, टेस्ट के रेट आधे कर दिए गए और अस्पतालों की फीस भी तय कर दी गई तो लगा कि शायद अब हालात कुछ काबू में आ जाएं। लेकिन सिर्फ जून में ही न सिर्फ 67,516 नए केस आए बल्कि 2742 लोगों को कोरोना ने निगल लिया। इसके बाद जुलाई में 48,238 और अगस्त में 39,150 नए केस आए।
जुलाई में मौतों का आंकड़ा भी कम हो गया और पूरे महीने में 1221 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा जबकि अगस्त में सरकार ने यह राग अलापना शुरू कर दिया कि दिल्ली मॉडल से कोरोना पर काबू पा लिया गया है और इस महीने में कुल 481 मौतें ही हुईं हैं।
सितंबर में बेकाबू हो रहे हालात
अब आते हैं सितंबर महीने के आंकड़ों पर। ये आंकड़े बहुत डराने वाले हैं और पिछले आंकड़ों से तुलना करें तो लगता है कि कोरोना फिर बेकाबू हो रहा है। सितंबर महीने के पहले 15 दिनों में 51,048 मरीज आ चुके हैं। जी हां, दिल्ली में सबसे ज्यादा मरीज जून में आए थे यानी 67,516 और सितंबर के पहले 15 दिन में ही उसके 70 फीसदी केस आ चुके हैं।
अस्पतालों में बेड्स की किल्लत
एक बार फिर दिल्ली के अस्पतालों में बेड्स की किल्लत नजर आने लगी है। सारे प्राइवेट अस्पतालों में बेड भर चुके हैं। सरकार को 30 फीसदी बेड बढ़ाने की मंजूरी देनी पड़ी है। सरकारी अस्पतालों की हालत देखकर कोई वहां जाना नहीं चाहता। दिल्ली में जून में एक दिन का औसत था 2250 मरीज लेकिन सितंबर के महीने का औसत अब तक 3403 हो चुका है यानी जून को हम कहीं पीछे छोड़ चुके हैं।
कोई हैरानी नहीं होगी अगर सितंबर महीने में मरीजों का आंकड़ा एक लाख को भी पार कर जाए। मगर, दिल्ली सरकार कहती है कि चिंता की कोई बात नहीं है।
ज्यादा टेस्ट का तर्क
दिल्ली सरकार का दावा है कि मरीजों की तादाद इसलिए बढ़ रही है कि वह ज्यादा टेस्ट कर रही है। यह बात सही भी है। जहां पहले जुलाई-अगस्त में 10-15 हजार टेस्ट करके कोरोना पर काबू पाने का दावा किया गया था, वहीं अब रोजाना टेस्टों का आंकड़ा 60 हजार तक पहुंच गया है।
सीएम अरविंद केजरीवाल तो इसे सारे विश्व में सबसे ज्यादा बताते हैं लेकिन सवाल यह है कि पहले टेस्ट कम क्यों किए गए थे। 20 हजार का आंकड़ा छूने के बाद भी टेस्ट में कटौती होती गई तो मरीज भी कम हो गए। यही नहीं रेपिड एंटीजन टेस्ट अब भी 85 फीसदी से ज्यादा किए जा रहे हैं जिनका पॉजिटिविटी रेट 6 फीसदी के आसपास ही रहता है।
दूसरी तरफ, आरटी-पीसीआर टेस्ट जो पूरी तरह सही बताया जाता है, उसका पॉजिटिविटी रेट 36 फीसदी से भी ज्यादा है। आज भी 13-14 फीसदी आरटी-पीसीआर टेस्ट हो रहे हैं। बहरहाल, अगर यह मान भी लिया जाए कि ज्यादा टेस्ट होने पर ज्यादा मरीज मिल रहे हैं तो फिर इसका मतलब यही हुआ न कि कोरोना तो बुरी तरह फैल रहा है।
स्वास्थ्य मंत्री दावा करते हैं कि अब भी 100 में से 7-8 मरीज मिल रहे हैं और जब कम टेस्ट हो रहे थे, तब भी दर यही थी। चलिए, आपकी बात मान लेते हैं कि कोरोना ज्यादा नहीं फैल रहा लेकिन एक बात किसी की समझ में नहीं आ रही कि क्या ज्यादा टेस्ट होने से मौतें भी बढ़ जाती हैं। सितंबर महीने में एकाएक मौतों में इजाफा हो गया है।
अगस्त के पूरे महीने में 481 मौतें हुई थीं लेकिन सितंबर के पहले 15 दिनों में 362 मौतें हो चुकी हैं। सवाल यह है कि अगर टेस्ट ज्यादा होने से ज्यादा मरीज मिल रहे हैं तो फिर मौतें ज़्यादा होने के पीछे क्या कारण है।
आंकड़ों से छेड़छाड़ हुई?
जाहिर है कि कोरोना दोबारा से अपने पांव फैला चुका है या यूं कहिए कि कोरोना कभी कम हुआ ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘दिल्ली मॉडल’ का प्रचार करने के लिए मरीजों के आंकड़ों को उसी तरह कम दिखाया गया जैसे दिल्ली में मौतों के आंकड़ों से छेड़छाड़ की गई थी। जब मीडिया ने असली मौतें दिखाई तो दिल्ली सरकार यह कहते हुए बगलें झांक रही थी कि हमें अस्पतालों से सही सूचना नहीं आ रही थी। सही सूचना न देने वालों के ख़िलाफ़ क्या कोई कार्रवाई हुई, यह आज तक नहीं बताया गया।
दिल्ली सरकार सब कुछ ‘नॉर्मल’ दिखाने की जल्दी में क्यों है? रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि हम अर्थव्यवस्था को जितना खोलने की कोशिश कर रहे हैं, कोरोना के केस उतने ही बढ़ते जा रहे हैं।
विज्ञापनों पर अंधाधुंध ख़र्च क्यों?
दिल्ली सरकार तो शुरू से ही सब कुछ खोलने की जल्दी में है। दिल्ली सरकार को लगता है कि ज्यादा से ज्यादा रेवेन्यू आए, तभी लगेगा कि सब नॉर्मल हो रहा है। एक तरफ वित्तमंत्री और डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया कहते हैं कि हमारे पास सैलरी देने के लिए भी पैसा नहीं है और अगले ही दिन करोड़ों रुपये खर्च करके अखबारों में सीएम केजरीवाल के चेहरे के साथ कई-कई फुल पेज विज्ञापन दिखाई देते हैं जिनमें दावा किया जाता है कि दिल्ली सरकार आपके लिए क्या कुछ कर रही है।
दिल्ली में सब कुछ नॉर्मल हो, यह सभी चाहते हैं और यह होना भी चाहिए लेकिन दिल्ली सरकार जिस तरह कोरोना की वापसी के बावजूद चैन से बैठी हुई है, इसका नतीजा काफी खराब निकल सकता है।
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