सिद्धारमैया
कांग्रेस - वरुण
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अल्का ने जो कुछ कहा है, वह नया नहीं है। केजरीवाल पार्टी में अपने अलावा किसी को कुछ नहीं समझते। उन पर आरोप हैं कि वह विधायकों को गधा और टुच्चा तक कह देते हैं। अल्का को भी कह दिया था कि तुम बक रही हो। आप जानते ही हैं कि कुछ दिन पहले ही केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ सांसद मनोज तिवारी के बारे में जो कुछ कहा था, उससे लगता है कि यही उनकी भाषा है। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि दिल्ली मनोज तिवारी के बाप की नहीं है या मोदी के बाप ने देश के लिए क्या किया था।
केजरीवाल यह नहीं कह सकते कि मैं तो आम आदमी हूँ, इसी तरह की भाषा बोलता हूँ। इसे आम आदमी की भाषा नहीं, बाजारू भाषा कहते हैं।
जब सार्वजनिक रूप से इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं कि पुलिस को ठुल्ला तक कह देते हैं तो फिर दीवारों के भीतर विधायकों को टुच्चा या फिर गधा कहने से क्यों परहेज करते होंगे।
लोग कहते हैं कि केजरीवाल के इस रवैये के कारण ही एक-एक करके उनके तमाम बड़े साथी उनका साथ छोड़ गए हैं। अल्का लांबा ने कहा है कि केजरीवाल को अपने साथियों पर विश्वास नहीं है। इसका एक और उदाहरण भी सामने है। पिछले लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जिन उम्मीदवारों को सात सीटों पर उतारा था, उनमें से एक भी उम्मीदवार को रिपीट नहीं किया। सारे उम्मीदवार नए हैं। यह तो तब है जब इन सारे उम्मीदवारों ने बीजेपी को ज़बरदस्त टक्कर देते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। कांग्रेस को तीसरे स्थान पर धकेल दिया गया था। उन सात में से सिर्फ़ राखी बिडलान और जरनैल सिंह ही आज उनके साथ हैं। बाक़ी सारे उम्मीदवार चाहे वो आशुतोष हों, राजमोहन गाँधी हों, प्रो. आनंद हों, आशीष खेतान हों या फिर देवेंद्र सहरावत हों- आज कोई भी उनके साथ नहीं खड़ा है। उन्होंने राखी या जरनैल को भी रिपीट नहीं किया।
जब सारे साथी केजरीवाल अस्वीकार कर रहे हैं तो क्या यह सवाल नहीं उठता कि कहीं कमी उन्हीं में तो नहीं है। अगर वह पहली बार सोच लेते कि आख़िर साथी क्यों साथ छोड़ रहे हैं तो फिर आज साथ छोड़ने वालों की कतार इतनी लंबी नहीं होती और न ही केजरीवाल का कारवाँ लगातार छोटा होता जाता।
जब 2011 में अन्ना आन्दोलन शुरू हुआ तो उसका उद्देश्य भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करना था। दिल्ली और पूरे देश की जनता ने इस आन्दोलन को एक विश्वास के साथ देखा था। इसीलिए ऐसे बहुत-से लोग अपनी नौकरी छोड़कर केजरीवाल के कारवाँ में शामिल हो गए थे जिनका राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं था। मगर, उन सभी लोगों को केजरीवाल ने पूरी तरह निराश किया। इसीलिए एक-एक करके वे सभी आन्दोलन के बाद शुरू हुई राजनीति से अलग होते चले गए। केजरीवाल ने उनमें से किसी को रोकने की कोशिश भी नहीं की। यह भी कहा जा सकता है कि यह केजरीवाल का व्यवहार है कि वह अपने सामने सभी को गौण समझते हैं।
केजरीवाल का साथ छोड़ने वालों की लंबी फ़ेहरिस्त है। पत्रकार से राजनेता बने आशीष खेतान ने पिछले साल 15 अगस्त को आम आदमी पार्टी से अपना इस्तीफ़ा दे दिया। कारण यही था कि केजरीवाल ने उन पर विश्वास करना छोड़ दिया था। दिल्ली की तीन राज्यसभा सीटों के लिए केजरीवाल ने जिस तरह उम्मीदवार चुने, उससे आशुतोष में खामोश नाराज़गी थी तो कुमार विश्वास में मुखर विरोध। आशुतोष ने पार्टी छोड़कर किनारा कर लिया तो कुमार विश्वास पार्टी में ही किनारे कर दिए गए।
कपिल मिश्रा ने जिस तरह भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर पार्टी छोड़ी, उससे भी कई सवाल उठ खड़े हुए। अगर भ्रष्टाचार के आरोपों को अलग भी रख दें तो केजरीवाल के ख़राब व्यवहार की उन्होंने भी पुष्टि की। आज तक भ्रष्टाचार के आरोपों की भी कोई जाँच नहीं की गई।
लिस्ट ख़त्म नहीं हो रही। महाराष्ट्र में पार्टी के सबसे सीनियर नेता मयंक गाँधी ने पार्टी छोड़ते हुए केजरीवाल के बारे में कहा था कि वह पार्टी को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। 'आप' की संस्थापक सदस्य मधु भादुड़ी ने भी पार्टी में महिलाओं के साथ ग़लत व्यवहार का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी थी। आनंद कुमार, अजीत झा, अंजलि दमानिया, अश्विनी उपाध्याय, अशोक अग्रवाल, सुरजीत दासगुप्ता, नूतन ठाकुर, मौलाना मकसूद अली काजमी... सभी ने केजरीवाल पर मनमानी करने और तानाशाही का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ी।
अरविंद केजरीवाल ने 14 फ़रवरी, 2015 को रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए अपने पार्टीजनों से कहा था कि अहंकार को अपने पास नहीं फटकने देना। मगर, जिस तरह का आरोप लगाते हुए केजरीवाल के साथियों ने साथ छोड़ा है, उससे लगता है कि केजरीवाल ख़ुद ही अहंकार के शिकार हो गए। उन्हें लगता है कि मैंने ही कारवाँ को खड़ा किया है और पार्टी छोड़ने वालों का कोई महत्व ही नहीं है। वक़्त साबित करेगा कि आख़िर कौन सही है और कौन ग़लत।
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