सिद्धारमैया
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कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई में जो वैक्सीन ही अभी तक सबसे महत्वपूर्ण साबित हुई हैं अब उसके बारे में भी चिंतित करने वाली रिपोर्टें आने लगी हैं। लांसेट ने एक शोध प्रकाशित किया है। इसमें पता चला है कि फाइज़र और एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन से बनी कोरोना के ख़िलाफ़ एंटीबॉडी यानी प्रतिरोधी क्षमता 2-3 महीने में ही धीरे-धीरे घटने लगती है। रिपोर्ट के अनुसार 6 हफ़्ते में इस घटने की प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है और क़रीब 10 हफ़्ते में यह घटकर आधी रह जाती है। इन दोनों में से फाइजर की वैक्सीन को तो अभी तक भारत में मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा विकसित फ़ॉर्मूले को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया कोविशील्ड के नाम से वैक्सीन तैयार कर रहा है।
यूके में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने ग़ौर किया कि यदि एंटीबॉडी का स्तर इस दर से गिरता रहा तो चिंताएँ हैं कि टीकों के सुरक्षात्मक प्रभाव भी कम होने लग सकते हैं। खासकर नए वैरिएंट के ख़िलाफ़। हालाँकि, उन्होंने साफ़ किया कि यह कितनी जल्दी हो सकता है, इसकी अभी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।
शोध में यह भी पाया गया कि एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन की दो खुराक की अपेक्षा फाइजर वैक्सीन की दो खुराक के बाद एंटीबॉडी का स्तर काफ़ी अधिक है। उन्होंने कहा कि पहले से ही कोरोना संक्रमण वाले लोगों की तुलना में टीकाकरण वाले लोगों में एंटीबॉडी का स्तर काफ़ी ज़्यादा था।
शोधकर्ताओं के अनुसार, 18 वर्ष और उससे अधिक आयु के 600 से अधिक लोगों के आँकड़े के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है। शोधकर्ताओं ने इस बात का उल्लेख भी किया है कि हालाँकि एंटीबॉडी के स्तर में कमी के क्लिनिकल प्रभाव अभी तक स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन इस गिरावट के बावजूद टीके गंभीर बीमारी के ख़िलाफ़ प्रभावी रहते हैं।
इस शोध में कोरोना वैक्सीन से बनी एंटीबॉडी को लेकर जिस तरह की चिंताएँ सामने आ रही हैं वैसी ही चिंताएँ पहले तब आ रही थीं जब कोरोना से ठीक हुए लोगों में दुबारा कोरोना संक्रमण हो रहा था।
तब रिपोर्टें आई थीं कि कोरोना संक्रमण से ठीक हुए मरीज में जो एंटीबॉडी यानी प्रतिरोधी क्षमता तैयार हो रही थी वह 2-3 महीने में धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी थी।
पिछले साल कोरोना की पहली लहर के दौरान भी ऐसी ही शोध की रिपोर्टें आ रही थीं। तब कोरोना वैक्सीन नहीं बनी थी और ठीक हुए मरीज़ों में ही बनी एंटीबॉडी पर शोध किया जा रहा था। तब उम्मीद जताई जा रही थी कि जब वैक्सीन आएगी तो शायद इस समस्या का समाधान हो जाए। हालाँकि वैक्सीन के कारगर रहने की अवधि को लेकर तब भी सवाल उठ रहे थे।
जब वैक्सीन लगाए गए लोगों को भी कोरोना संक्रमण होने की रिपोर्टें आने लगीं तो इस पर शोध किया गया कि आख़िर वैक्सीन कितनी अवधि तक कारगर हो सकती है। कोरोना का डेल्टा वैरिएंट पूरे टीके लिए हुए लोगों को भी संक्रमित कर रहा है, अब लगातार ऐसे मामले आ रहे हैं।
पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड यानी पीएचई ने शुक्रवार को कहा कि ब्रिटेन में डेल्टा वैरिएंट के साथ अस्पताल में भर्ती कुल 3,692 लोगों में से 58.3% लोगों का टीकाकरण नहीं हुआ था और 22.8% को पूरी तरह से टीका लगाया गया था। डेल्टा वैरिएंट से प्रभावित सिंगापुर में सरकारी अधिकारियों ने बताया कि इसके कोरोना वायरस के तीन चौथाई मामले टीकाकरण वाले व्यक्तियों में हुए, हालाँकि कोई भी गंभीर रूप से बीमार नहीं था।
संयुक्त राज्य अमेरिका में नये संक्रमण के मामलों में डेल्टा वैरिएंट के क़रीब 83% मामले आ रहे हैं। अब तक जितने भी गंभीर मामले आए हैं उनमें ग़ैर-टीकाकरण वाले क़रीब 97% लोग हैं।
इज़राइली स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा है कि वर्तमान में अस्पताल में भर्ती कोरोना के 60% मामले टीकाकरण वाले लोगों में हैं। उसमें से अधिकतर 60 साल के ऊपर के हैं।
इस बीच विशेषज्ञ इस बात पर भी जोर दे रहे हैं कि वैक्सीन की दो खुराक लगवाए लोगों को बूस्टर खुराक यानी एक और खुराक लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है।
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