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अमेरिका ने भारत को ऑकस से बाहर क्यों रखा?

ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिल कर बने सैन्य समझौते ऑकस (ऑस्ट्रेलिया-यूके-यूएसए यानी एयूकेयूएस) में अमेरिका भारत को शामिल नहीं करेगा, यह तो पहले से तय था, गुरुवार को ह्वाइट हाउस की प्रेस सचिव जेन साकी ने इसका एलान कर स्थिति एकदम साफ कर दी। 

कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में कब क्या और कितना बोला जाए, यह बहुत ही अहम होता है। जेन साकी ने ऑकस में भारत को शामिल नहीं करने की बात ठीक उसी दिन कही, जिस दिन भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन से बात की और अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस से भी मुलाकात की। इसके अगले ही दिन मोदी को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से भी मिलना है।

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अमेरिका का संकेत

बाइडन प्रशासन ने ऑकस से भारत को बाहर रखने का एलान ठीक ऐसे समय किया है जब क्वैड की शिखर बैठक होने वाली है।

भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के संगठन क्वैडिलैटरल स्ट्रैटजिक डायलॉग यानी क्वैड में चारों देशों के राष्ट्र प्रमुख खुद शिरकत करेंगे। इस बैठक की मेजबानी खुद बाइडन कर रहे हैं। 

सवाल उठता है कि क्वैड में भारत को बेहद अहम कहने वाला अमेरिका ऑकस से भारत को बाहर क्यों रख रहा है। चीन को दक्षिण चीन सागर में रोकने के लिए क्वैड का गठन किया गया, ताकि बीजिंग हिन्द-प्रशांत में अपने पैर न पसार सके। ऑकस का मक़सद भी हिन्द-प्रशांत की सुरक्षा है, यानी चीन को हिन्द-प्रशांत में पैर पसारने से रोकना है।

दक्षिण चीन सागर को हिन्द-प्रशांत का ही हिस्सा माना जाता है और उसमें भी निशाने पर चीन है। सवाल यह है कि जब निशाने पर भी एक ही देश है और उसे एक ही इलाक़े में रोकने के लिए अलग-अलग संगठन बनाए गए हैं तो भारत को एक में रख कर दूसरे से बाहर क्यों रखा गया है।

पेच पनडुब्बी का!

  • ऑकस एक सैन्य संधि है, जिसके तहत अमेरिका परमाणु पनडुब्बी बनाने की प्रौद्योगिकी ऑस्ट्रेलिया को देगा। ऑस्ट्रेलिया परमाणु ईंधन से चलने वाली आठ पनडुब्बियाँ बनाएगा।
  • इसके अलावा अमेरिका उसे आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेन्स से चलने वाले हथियार बनाने की तकनीक भी देगा।
  • ऑस्ट्रेलिया को अंडर वाटर सर्वीलांस और साइबर टेक्नोलॉजी दी जाएगी।
  • अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की खुफ़िया एंजेन्सियां एक दूसरे के साथ जानकारियाँ भी साझा करेंगी। 

परमाणु पनडुब्बी का मतलब?

परमाणु पनडुब्बी सामान्य पनडुब्बियों से अलग इस मामले में होती है कि वह परमाणु ईंधन से चलती है। उसमें परमाणु भट्ठी लगी होती है। इसमें यूरेनियम के आइसोटोप यू- 238 पर न्यूट्रॉन्स की बमबारी की जाती है। इससे परमाणु ऊर्जा निकलती है, जो पनडुब्बी को चलाती है।

इसके लिए 50 प्रतिशत तक संवर्द्धित यूरेनियम से काम चल जाता है। इस स्तर का यूरेनियम हथियार की श्रेणी में नहीं आता है, यह नागरिक परमाणु ऊर्जा की श्रेणी में आता है। इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है और इसके इस्तेमाल पर कहीं कोई रोक नहीं है। 

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लेकिन यह बात इतनी आसान भी नहीं है।
परमाणु ईंधन से चलने वाली पनडुब्बियों के इंजन को ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इसके अलावा एक बार पनडुब्बी में परमाणु ईंधन डाल देने से वह ईंधन 30 साल के लिए काफी होता है।
एक पनडुब्बी इससे लंबे समय तक चलती भी नहीं है और बदलती हुई प्रौद्योगिकी के साथ वह इतने समय बाद बेकार हो जाती है। यानी परमाणु पनडुब्बी को दुबारा ईंधन भरने की ज़रूरत ही नहीं है, यही इसकी सबसे बड़ी खूबी है।
सामान्य पनडुब्बी को ईंधन यानी डीज़ल भरने की ज़रूरत होती है और उसके इंजन को ऑक्सीजन भी चाहिए, यानी उसे हवा लेने के लिए पानी के ऊपर निकलना पड़ता है। इससे यह होता है कि सामान्य पनडुब्बी लंबे समय तक पानी के नीचे नहीं रह सकती।

टोही पनडुब्बी

आज के समय में पनडुब्बियों का इस्तेमाल शत्रु की टोह लेने में होता है। वह समुद्र के नीचे दूसरों की पनडुब्बियों, युद्धक पोत, पानी के नीचे लगाए गए उपकरणों और यहां तक कि विमान वाहक पोत तक के बारे में जानकारियाँ एकत्रित करती रहती है।

वह जितने समय तक सतह पर आए बग़ैर पानी के अंदर रहेगी, उसकी कार्यकुशलता उतनी ज़्यादा होगी।

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भारत की पनडुब्बी

यदि किसी को लगता है कि अमेरिका अपनी यह प्रौद्योगिकी भारत को दे देगा, तो वह ग़लतफहमी में है।

परमाणु पनडुब्बियाँ अब तक सिर्फ  छह देशों के पास है। ये हैं अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और भारत। 

अमेरिका के पास 68, रूस के पास 29, चीन के पास 12, ब्रिटेन के पास 11, फ्रांस के पास 8 और भारत के पास सिर्फ एक परमाणु पनडुब्बी है। 

अमेरिका वैसे भी उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नेटो का सदस्य देश है और उसे यह उन्नत तकनीक नेटो के बाहर किसी देश को देश को देने के पहले इस संगठन की अनुमति लेनी होगी। शीत युद्ध में रूस के साथ खड़े रहने वाले देश भारत को नेटो भला यह प्रौद्योगिकी क्यों देने देगा?

दूसरे हथियार

मामला सिर्फ पनडुब्बियों का ही नहीं है। आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेन्स से चलने वाले हथियार अभी तक साइन्स फ़िक्शन में ही दिखे हैं, अमेरिका उस पर काम कर रहा है। फिलहाल यह किसी देश के पास नहीं है। भारत को यह प्रौद्योगिकी देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है। 

यही हाल अंडर वॉटर सर्वीलांस और खुफ़िया एजेन्सियों के बीच समन्वय का भी है।

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आार्टिफ़िशियल इंटेलीजेन्स से चलने वाले हथियार अब सच्चाई बनने जा रहे हैं।

भौगोलिक-रणनीतिक स्थिति

ऑस्ट्रेलिया के साथ भौगोलिक रणनीतिक लाभदायक स्थिति यह है कि वह उस जगह स्थित है, जहाँ से पूरे हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर पर नज़र रखी जा सकती है। 

कुछ ग़ैर राजनीतिक कारण भी हैं। भारत सरकार चाहे जो कहती रहे, पर सच यह है कि यह अभी भी चीन के ख़िलाफ़ खुल कर नहीं आई है।

चीन भारत का सबसे बड़ा वाणिज्यिक व व्यापारिक साझेदार है। चीन के साथ उसका दोतरफा व्यापार कोरोना संकट और सीमा पर तनातनी के बावजूद 60 अरब डॉलर से ज़्यादा का रहा।

अमेरिका का पार्टनर भारत

यह सच है कि भारत की विदेश नीति में बदलाव आया है। पर्यवेक्षकों के अनुसार, वह अमेरिका का जूनियर पार्टनर बन चुका है, वह अमेरिका और जापान के उकसावे में आकर दक्षिण चीन सागर में चीन को घेरने की रणनीति में उन देशों के साथ है जबकि इस इलाक़े से भारत कोई सीधा मतलब नहीं है। पर भारत ऑस्ट्रेलिया की तरह खुल्लमखुल्ला चीन के ख़िलाफ़ दम ठोंक कर खड़ा नहीं है। 

ऑकस में अपने-अपने हित हैं, भारत के हित अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया के हित से अलग हैं। भारतीय विदेश नीति के लिए यह ठीक भी नहीं है कि वह किसी तीसरे देश के लिए चीन जैसे ताक़तवर पड़ोसी देश से दुश्मनी मोल ले, जबकि उसके रिश्ते पहले से ही तनावपूर्ण रहे हैं। 

यह भारत के लिए अच्छा है कि उसे ऑकस में शामिल नहीं किया गया है। वह चीन से अपनी ज़रूरतों के मुताबिक नीति रखे और उससे निपटे, अमेरिका को अलग से निपटने दे।

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प्रमोद मल्लिक

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