loader

रफ़ाल पर सरकार को ‘क्लीन चिट’? हाँ भी, नहीं भी

सुप्रीम कोर्ट ने रफ़ाल सौदे की जाँच कराने के मुद्दे पर जो फ़ैसला दिया, उसे भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ‘क्लीन चिट’ बता रही हैं। क्या वाक़ई सरकार को ‘क्लीन चिट’ मिल गई है? यानी अदालत ने क्या सरकार को इस मामले में बिल्कुल दोषमुक्त बताया है? यह सवाल अहम है। आइए, नीचे हम इसकी पड़ताल करते हैं बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के। 

प्रक्रिया सही या ग़लत?

पहला मामला है प्रक्रिया का। यानी क्या सरकार ने इन विमानों की ख़रीद में सही प्रक्रिया अपनाई थी। देखें, कोर्ट इसके बारे में क्या कहता है। कोर्ट का कहना है, 
'हम अपनाई गई प्रक्रिया से बिलकुल संतुष्ट हैं और हमें इस मामले में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं नज़र आती। यदि कहीं कोई छोटा-मोटा विचलन हुआ भी है तो वह ऐसा नहीं है जिसके कारण कॉन्ट्रैक्ट के रद्द होने की नौबत आ जाए या कोर्ट द्वारा विस्तृत जाँच की ज़रूरत आन पड़े।'
यहाँ तक तो ठीक है। कोर्ट स्पष्ट तौर पर सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया को सही ठहरा रहा है और विपक्ष ने जो आरोप लगाए थे कि रक्षा मंत्री से सलाह किए ही यह नई डील फ़ाइनल कर दी गई थी, उसे वह सही नहीं मान रहा। लेकिन 126 विमानों की जगह 36 विमान लेने के सवाल पर कोर्ट क्या कहता है, आगे पढ़ें - 
‘126 लड़ाकू जहाज़ों के बदले 36 जहाज़ ख़रीदने के सरकार के निर्णय पर भी हम कोई राय नहीं दे सकते। हम सरकार को 36 के बदले 126 जहाज़ ख़रीदने के लिए बाध्य कैसे कर सकते हैं!’
कोर्ट के इस वक्तव्य का क्या अर्थ है? यही कि अदालत कार्यपालिका यानी सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकती न ही करना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट यही कह रहा है कि यह सरकार का नीतिगत निर्णय है कि वह कितने विमान ख़रीदे और कौनसे विमान ख़रीदे। लेकिन कोर्ट की इस टिप्पणी को यह कह कर प्रचारित करना ग़लत होगा कि अदालत ने सिर्फ़ 36 जहाज़ खरीदने के फ़ैसले को सही ठहराया है। सच तो यह है कि कोर्ट ने इस मामले में अपना हाथ डाला ही नहीं।

क़ीमत का मामला

अब बात क़ीमत की। आरोप था कि यूपीए सरकार इस मामले में जो डील कर रही थी, उसके तहत विमान सस्ते में मिल रहे थे और एनडीए सरकार की डील में विमान महँगे पड़ रहे हैं। इस बारे में कोर्ट ने कहा, 
'दसॉ और हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स के बीच कुछ मामले तीन साल से अटके हुए थे। बताया गया है कि इसका असर विमानों की क़ीमत पर पड़ा है क्योंकि ऑफ़र में ही 'समय के साथ दाम बढ़ने' की शर्त पहले से शामिल थी और उसपर यूरो-रुपया एक्सचेंज रेट में हुए परिवर्तन का भी प्रभाव पड़ा।'
अदालत की इस टिप्पणी का क्या अर्थ निकलता है? पहली नज़र में यही लगता है कि वह विमानों की बढ़ी हुई क़ीमतों को उचित ठहरा रही  है। उसने साफ़ कहा भी है कि दाम बढ़ सकते हैं, यह बात ऑफ़र में ही थी और यह संभावना भी जता रही है कि एक्सचेंज रेट बढ़ने से भी क़ीमत बढ़ी होगी।
लेकिन क्या वाक़ई कोर्ट बढ़ी हुई क़ीमत को सही ठहरा रहा है? आइए, इसी मुद्दे पर कोर्ट की आगे की टिप्पणी पर ग़ौर करते हैं। 
'क़ीमत के बारे में इतना कहना पर्याप्त होगा कि सरकार का दावा है कि 36 जहाज़ ख़रीदने के वाणिज्यिक लाभ हैं। प्रतिवादियों (सरकार) का कहना है कि नए समझौते में रखरखाव और हथियार-संबंधी बेहतर शर्तें हैं। लेकिन अदालत का यह काम बिल्कुल नहीं है कि वह इस तरह के मामले में क़ीमतों की तुलना करे। हम इस मामले में और नहीं कह सकते क्योंकि कुछ चीज़ें गोपनीय रखी जानी ज़रूरी हैं।
देखिए, सुप्रीम कोर्ट ने क़ीमत को जायज़ नहीं ठहराया है। उसने फिर यहाँ अपने हाथ खींच लिए हैं और कहा है कि यह सुप्रीम कोर्ट का काम नहीं है कि वह दो तरह के सौदों के बीच तुलना करके पता लगाए कि कौनसा सौदा सही है।
अदालत साफ़ कहती है कि 'सरकार का दावा है...। कोर्ट ने यह नहीं कहा है कि ये दावे सही हैं या ग़लत। यानी सरकार के दावे सही हो सकते हैं और ग़लत भी। अदालत ने दूसरी बात यह कही है कि वह इस तरह के मामलों में क़ीमत की तुलना नही कर सकती। यानी, अदालत ने यह साफ़ कर दिया दाम की तुलना करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है या उसका काम नहीं है। जब अदालत ख़ुद कह रही है कि दाम की तुलना वह नहीं कर सकती तो यह किस आधार पर कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन लड़ाकू विमानों की बढ़ी हुई क़ीमत को सही माना है और सरकार को इस पर ‘क्लीन चिट’ दी है?

ऑफ़सेट पार्टनर

अब तीसरा मामला। आरोप है कि सरकार ने दबाव डलवा कर अनिल अंबानी की कंपनी को दसॉ का ऑफ़सेट पार्टनर बनवाया जबकि उनकी कंपनी को रक्षा मामलों में कोई अनुभव नहीं था और इस तरह से अनिल की कंपनी को करोड़ों का फ़ायदा पहुँचाया। इशारा साफ़ है कि यदि अनिल अंबानी को सरकारी मदद से यह काम मिला होगा तो उन्होंने उनकी मदद करने वाले सत्ताधारियों को भी हिस्सा पहुँचाया होगा। आइए, देखते हैं कि  सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में क्या कहा है। 
‘इसमें कोई संदेह नहीं कि रिलायंस एरोस्ट्रक्चर हाल-फ़िलहाल ही अस्तित्व में आई है। लेकिन कंपनी की प्रेस रिलीज़ से स्पष्ट होता है कि इसकी मूल कंपनी रिलायंस और दसॉ के बीच साल 2012 की शुरुआत में ही सहमति बन गई थी।’
इस पर विचार करने की ज़रूरत है। अदालत यह मानती है कि जिस कंपनी को पार्टनर बनाया गया, वह पुरानी नहीं है, कुछ दिन पहले ही शुरू की गई है। अब यह सोचने की ज़रूरत है कि जब कंपनी कुछ दिन पहले ही शुरू की गई है तो उसके पास काम का अनुभव भी नहीं है। ऐसी कंपनी को क्यों और कैसे ऑफ़सेट पार्टनर बनाया गया, यह सवाल उठता तो है। यह विपक्ष के इस तर्क को वैधता भी देता है कि जिस कंपनी के पास एविएशन का कोई अनुभव नहीं, उसे क्यों चुना गया। संदेह होता कि कहीं कोई गोलमाल तो नहीं। गोलमाल के इस संदेह पर कोर्ट क्या कहता है, पढ़ें - 
'हमारे सामने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया जिससे मालूम होता हो कि भारत सरकार ने किसी कंपनी के साथ पक्षपात करते हुए उसे वाणिज्यिक लाभ पहुँचाया हो क्योंकि ऑफ़सेट पार्टनर चुनना उसके अधिकार में नही था।’
अदालत यह मानती है कि ऑफ़सेट पार्टनर चुनना सरकार के वश में नहीं था, या उसके सामने ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया है जिसके आधार पर यह कहा जाए कि सरकार ने अंबानी की कंपनी को आर्थिक लाभ पहुँचाया है। इस मामले में हम कह सकते हैं कि अदालत ने सरकार और अंबानी की कंपनी में मिलीभगत के मामले में क्लीन चिट दे दी है। और यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि कांग्रेस का नारा 'चोकीदार चोर है' का आधार ही यही है कि मोदी सरकार ने अनिल अंबानी को करोड़ों का ठेका दिलवाया है। जब कोर्ट कह देता है कि इस सरकार और अंबानी की कंपनी में मिलीभगत का कोई सबूत नहीं है तो यह सरकार को क्लीन चिट देने जैसा ही है
Is Supreme court verdict on Rafale deal clean chit to Modi government? - Satya Hindi
दसॉ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के साथ अनिल अंबानी और उनका परिवार। (फ़ाइल फ़ोटो)
पर यहाँ भी एक पेच है। कोर्ट का यह फ़ैसला उसे 'मुहैया कराए गए सबूतों' पर आधारित है। आज की तारीख़ में ऐसा कोई सबूत कोर्ट के सामने पेश नहीं किया गया है क्योंकि ऐसा कोई सबूत याचिकाकर्ताओं के पास भी नहीं है जिससे सरकार की बदनीयती प्रमाणित होती हो।
लेकिन कल को कोई सबूत आ जाए तो? तब क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फिर से निगाह नहीं डालेगा?
हमारी इस पड़ताल का निष्कर्ष यह कि रफ़ाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को क्लीन चिट दी भी है और नहीं भी दी है क्योंकि... 
  1. प्रक्रिया के मामले में कोर्ट ने कहा है ऊपरी तौर पर सबकुछ सही नज़र आता है। बाक़ी विमान कितने लेने है, इसका फ़ैसला करने का सरकार को अधिकार  है और कोर्ट इसमें दख़ल नहीं दे सकता। 
  2. क़ीमत के बारे में भी कोर्ट ने कहा है कि अलग-अलग शर्तों वाले दो सौदों की तुलना करना कोर्ट का काम नहीं है। यहाँ भी कोर्ट ने क़ीमत को सही नहीं ठहराया है। बस, अपने हाथ खींच लिए हैं।
  3. ऑफ़सेट पार्टनर के मामले में कोर्ट ने कहा है कि उसके सामने ऐसा कोई सबूत नहीं पेश किया गया है जिससे साबित हो कि सरकार ने किसी कंपनी को फ़ायदा पहुँचाया हो। यहाँ सरकार को बेदाग़ बताया गया है और यह उसकी बड़ी जीत है।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
क़मर वहीद नक़वी

अपनी राय बतायें

देश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें