loader

पहली कक्षा के बच्चों के बीच कहाँ से और क्यों चली आई छोकरी?

काश हिंदी के पाठ्यक्रम और एक भाषा के रूप में उसके इस्तेमाल को लेकर हम ज़्यादा सजग होते, वरना इन दिनों फ़िल्मों और टीवी सीरियलों और समाचार चैनलों पर जितनी अशुद्ध, भ्रष्ट और स्मृतिविहीन हिंदी लिखी हुई दिखाई पड़ती है, वह अपने-आप में एक डरावना परिदृश्य बनाती है।

पहले यह कविता देख लें।

 

'छह साल की छोकरी,

भरकर लाई टोकरी।

टोकरी में आम हैं,

नहीं बताती दाम है।

दिखा-दिखाकर टोकरी,

हमें बुलाती छोकरी।

हम को देती आम है,

नहीं बुलाती नाम है।

नाम नहीं अब पूछना,

हमें आम है चूसना।'

पहली कक्षा के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार हिंदी पाठ्य-पुस्तक की इस कविता को लेकर इन दिनों विवाद छिड़ा हुआ है। बहुत सारे लोगों का कहना है कि यह अश्लील कविता है- इसमें 'छोकरी' और 'चूसना' जैसे वे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं जिनमें कुछ फूहड़ता भी है और कुछ अवांतर- यौनिक- अर्थ भी। 
ख़ास ख़बरें

दूसरी तरफ़ बहुत सारे लोग हिंदी की क्षेत्रीय शब्द संपदा की याद दिलाते हुए कह रहे हैं कि ऐसे शब्द खूब चलते हैं और बच्चों को इनसे परिचित होना चाहिए। फिर जो अवांतर अर्थ इसमें पढ़ा जा रहा है, वह दरअसल लोगों की अपनी यौन-कुंठा की उपज है- उसे बच्चों के लिए लिखी गई एक अच्छी कविता पर नहीं थोपना चाहिए।

 फूहड़ता भी, यौनिकता भी!

लेकिन मेरे लिए इस विवाद के तीन पहलू महत्वपूर्ण हैं। पहली बात तो यह कि अरसे बाद भाषा पर बात हो रही है।

दूसरी बात यह कि उससे भी ज़्यादा समय बाद हिंदी के शब्दों पर बहस हो रही है, वरना हिंदी के फैलाव को लेकर हम चाहे जितने प्रमुदित हों, एक बौद्धिक भाषा के रूप में उसका क्षरण तमाम माध्यमों में बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है। 

तीसरी बात यह कि अरसे बाद बच्चों के मनोविज्ञान और उन पर भाषा के असर पर बात हो रही है।

अश्लीलता का आरोप

इन तमाम तर्कों को एक-एक कर समझने की कोशिश करें। पहली बात तो यह कि कोई भी शब्द श्लील या अश्लील नहीं होता- उसका संदर्भ अश्लील हो सकता है। एक संदर्भ में 'कुत्ता' बहुत सहजता से इस्तेमाल किया जा सकता है तो दूसरे संदर्भ में वह किसी के लिए गाली हो सकता है। छोकरा या छोकरी शब्द भी अपनी व्युत्पत्ति में कहीं से अश्लील नहीं है। बहुत सारे इलाक़ों में, बहुत सारी बोलियों में यह शब्द सहजता से इस्तेमाल होता है। इस शब्द पर पहले एतराज़ होता नहीं देखा गया। 

एनसीईआरटी ने जो सफाई दी है उसमें भी यही कहा है कि इस कविता का एक उद्देश्य स्थानीय शब्दों से बच्चों को परिचित कराना है। 

लेकिन कविता में लोगों को यह शब्द क्यों चुभ रहा है? 

यह सच है कि इस शब्द में अवहेलना की एक अंतर्ध्वनि है। किसी को छोकरा या छोकरी पुकारते हुए अमूमन प्रेम का नहीं, एक उद्यंडता का भाव होता है कि वह हैसियत में कुछ नीचा या नीची है।

बाल श्रम?

वह हैसियत या पहचान इतनी कम है कि हमें उसका नाम लेने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इस कविता के संदर्भ में दूसरी बात यह है कि छह बरस की इस छोकरी के सिर पर आम की टोकरी है। यानी छह साल की जिस बच्ची को पहले कविता ने उसकी व्यक्तिवाचक संज्ञा से- उसके नाम से- वंचित कर दिया- बाद में अनायास उसके सिर पर टोकरी रखवा कर उसे बाल श्रमिक बना डाला। 

कह सकते हैं कि भारतीय समाज में- ख़ासकर ग्रामीण संदर्भों में- बच्चों या बच्चियों का टोकरी उठाना कोई अनूठी बात नहीं है। सिर पर टोकरी लिए बच्चों या बच्चियों के बहुत सारे प्यारे चित्र हमें देखने को मिलते रहते हैं। लेकिन फिर दुहराना होगा कि जो सहज-स्वाभाविक हो, वह ज़रूरी नहीं कि ठीक भी हो। 

यह सच है कि गरीबी की वजह से बहुत सारे बच्चे यहाँ काम करने को मजबूर होते हैं और हम उन्हें देखने के आदी भी होते हैं, लेकिन एक पाठ्य पुस्तक में कविता के रूप में उसकी स्वीकार्यता दरअसल इसे बनाए रखने का, दिमागों को इसके प्रति सहज बनाने का ही काम करती है। 

इस कविता के साथ जो तीसरा एतराज़ है- 'आम चूसने' पर- वह वाहियात है और कुंठित दिमाग़ों की उपज है। लेकिन यह सच है कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में बच्चों या किशोरों के मनोविज्ञान को ठीक से समझे बिना रचनाएँ डाली जाती हैं।

निस्संदेह, इस कविता के साथ जो तीसरा एतराज़ है- 'आम चूसने' पर- वह वाहियात है और कुंठित दिमाग़ों की उपज है। लेकिन यह सच है कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में बच्चों या किशोरों के मनोविज्ञान को ठीक से समझे बिना रचनाएं डाली जाती हैं। 

लैंगिक अवमानना

बरसों पहले अपने स्कूल के दौरान नवीं में पढ़ते हुए हम सब एक शब्द से टकराए थे- ‘शीलहरण’। कुछ अर्थ इसका तब भी मालूम था, लेकिन इसमें निहित लैंगिक अवमानना के बहुत गहरे पूर्वग्रह को समझने में बरसों लग गए। 

बहरहाल, यह याद है कि इसकी व्याख्या से जुड़ी दुविधा बच्चों के भीतर भी थी और शिक्षक के भीतर भी। लेकिन क्या ऐसे शब्द फिर किताबों में नहीं आने चाहिए? हम ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन यह ज़रूरी है कि ऐसे शब्दों के बारे में बताते हुए कुछ संवेदनशील ढंग से बच्चों को पढ़ाएं। 

इस मोड़ पर यह समझ में आता है कि कविता जितनी बुरी या आपत्तिजनक नहीं है, उसका पाठ उतना बुरा या आपत्तिजनक हो सकता है। एक अच्छा शिक्षक इस कविता की मार्फ़त भी पहली कक्षा के अपने बच्चों को वह सिखा सकता है जो लैंगिक और आर्थिक समता की दिशा में पहला पाठ हो। ठीक इसका उलट भी हो सकता है- यानी कोई शिक्षक किसी अच्छी कविता का सत्यानाश करके अपना एक मनचाहा पाठ पैदा कर उसे बच्चों के दिमाग़ में डाल दे। 

 NCERT, Hindi syllabus over word chhokri - Satya Hindi

शिक्षक महत्वपूर्ण

कहने का मतलब यह कि बच्चों के शिक्षण में पाठ्य पुस्तक जितना महत्व रखती है, उतना ही शिक्षक भी रखते हैं। हालांकि इस बात पर हमारी शिक्षा व्यवस्था बहुत कम ध्यान देती है। अभी की स्थिति में शिक्षक बस एक एजेंट हैं जो किसी और द्वारा तैयार की गई पाठ्य पुस्तकों को बच्चों के दिमाग़ में उतारने का काम करते हैं। उनके पास अपनी कल्पनाशीलता या संवेदनशीलता के इस्तेमाल की गुंजाइश कम होती है। 

इस कविता पर बहस ने यह अवसर सुलभ कराया है कि हम फिर से हिंदी, भाषा, शिक्षण और शिक्षक के महत्व पर विचार करें और समझें कि बच्चों के लिए रचनाओं का चयन करते हुए कितनी सावधानी बरतने की ज़रूरत है। 

यह श्लील या अश्लील हो या नहीं, बहुत मामूली कविता है- इस मायने में बुरी भी कि अपने पहले पाठ में यह एक वर्गीय हेठी का प्रदर्शन करती है। क्या ही अच्छा होता कि कवि ने छोकरा या छोकरी लिखने की जगह टोकरी उठाए लड़की को कोई नाम दिया होता, और बेचने की जगह बांटने का काम दिया होता।

बच्चों के मनोविज्ञान की परवाह नहीं?

बहरहाल, यह कविता इतना तो बताती ही है कि इतिहास को लेकर बार-बार तलवार तान लेने वाली और सम्राटों के नाम और योगदान के साथ हेरफेर करने वाली बौद्धिकता अपने बच्चों के मनोविज्ञान की परवाह नहीं करती। दूसरी बात यह कि हिंदी की चिंता करने वाले श्लील-अश्लील शब्दों की सतही बहस के आगे जाकर यह देखने को अब भी तैयार नहीं हैं कि भाषा दरअसल एक माध्यम है जिसे बरतने वाला उसे मनचाहे अर्थ दे सकता है। 

तीसरी और आख़िरी बात- काश हिंदी के पाठ्यक्रम और एक भाषा के रूप में उसके इस्तेमाल को लेकर हम ज़्यादा सजग होते, वरना इन दिनों फ़िल्मों और टीवी सीरियलों और समाचार चैनलों पर जितनी अशुद्ध, भ्रष्ट और स्मृतिविहीन हिंदी लिखी हुई दिखाई पड़ती है, वह अपने-आप में एक डरावना परिदृश्य बनाती है।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रियदर्शन ।

अपनी राय बतायें

देश से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें