देश की अर्थव्यवस्था की हालत तो ख़राब है ही, इसमें भी कृषि की हालत ज़्यादा ही बदतर है। देश का निर्यात लगातार घट रहा है। दूसरे सामान को छोड़िये खेती-किसानी के निर्यात की भी ऐसी ही स्थिति है। देश से चावल का निर्यात काफ़ी गिरा है यानी दूसरे देशों में भारत के चावल की माँग कम हो गई है। इस साल की शुरुआत में चावल के निर्यात में क़रीब तीस फ़ीसदी की गिरावट रही है। क्या यह सरकार की ग़लत नीतियों का नतीजा नहीं है?
न्यूनतम समर्थन मूल्य, फ़ूड प्रोसेसिंग यानी खाद्य प्रसंस्करण और निर्यात का चोली-दामन का साथ है। यदि कृषि उत्पाद के न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई अप्रत्याशित वृद्धि होती है तो उसका सीधा प्रभाव उस उत्पाद के प्रसंस्करण और निर्यात पर पड़ता ही है। लेकिन निर्यात के प्रोत्साहन के लिए कुछ उपाय कर निर्यात में गिरावट से बचा जा सकता था, लेकिन उल्टे सरकार ने पहले से मिल रहे निर्यात प्रोत्साहन को हटा लिया। इसका चावल के निर्यात पर असर पड़ा।
पिछले वित्तीय वर्ष में चुनावी वर्ष होने के कारण केंद्र सरकार ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 200 रुपये प्रति क्विंटल की भारी बढ़ोतरी की जो कि सामान्य रूप से 50-60 रुपये प्रति क्विंटल तक ही होती रही है। किसान को ज़्यादा मूल्य मिले, इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन ऐसी वृद्धि के कारण इससे जुड़े व्यवसायों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करने और इसके अनुसार उचित क़दम उठाना भी सरकार का ही दायित्व है। लेकिन ऐसा करने में केंद्र सरकार असफल रही है। इतना ही नहीं, ग़ैर-बासमती चावल पर दिया जाने वाला 5% निर्यात प्रोत्साहन भी समाप्त कर दिया गया। इस कारण चावल से जुड़ी मिलों और निर्यातकों को भारी नुक़सान उठाना पड़ रहा है।
ग़ैर-बासमती चावल का निर्यात 37 फ़ीसदी गिरा
पिछले साल की तुलना में चालू वित्त वर्ष के शुरुआती चार महीनों में यानी अप्रैल-जुलाई के दौरान भारतीय ग़ैर-बासमती चावल के निर्यात में 37.0% की ज़बरदस्त गिरावट दर्ज की गई, क्योंकि इसका निर्यात ऑफ़र मूल्य अन्य निर्यातक देशों की तुलना में ऊँचा रहा। पाकिस्तान, वियतनाम और म्यांमार जैसे देशों के चावल अपेक्षाकृत सस्ते दाम पर उपलब्ध थे। यही कारण है कि अफ़्रीकी देशों में भारतीय चावल की माँग कमज़ोर पड़ गई।
बांग्लादेश का ही उदाहरण लीजिए। वर्ष 2017-18 में बांग्लादेश ने भारत से 10.87 लाख टन ग़ैर-बासमती चावल आयात किया था। वहीं वर्ष 2018-19 में भारत के इस निर्यात में 70% की भारी गिरावट आई और यह सिर्फ़ 4.81 लाख टन रहा।
चीन का निर्यता क्यों बढ़ा?
चीन से भी पुराने स्टॉक के चावल का निर्यात तेज़ी से बढ़ा, क्योंकि उसने इसका दाम काफ़ी घटा दिया था। इसके अलावा सरकार ने ग़ैर बासमती चावल के लिए दिए जाने वाले निर्यात प्रोत्साहन को 1 अप्रैल 2019 से बंद कर दिया जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता घट गई है।
केंद्रीय संस्था- वाणिज्यिक सतर्कता एवं सांख्यिकी महानिदेशालय के आँकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल-जुलाई 2019 के दौरान देश से क़रीब 31.40 लाख टन चावल का निर्यात हुआ जो पिछले साल से 26.5 प्रतिशत कम रहा। इसमें भी ग़ैर-बासमती चावल का शिपमेंट तो 37.0% लुढ़ककर 17 लाख टन के आसपास सिमट गया। अन्य देशों की तुलना में भारतीय चावल के निर्यात मूल्य में क़रीब 20 डॉलर प्रति टन का अंतर रहा।
2018-19 में चुनावी वर्ष में धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी बढ़ोतरी ( 200 रुपये प्रति क्विंटल) की गई जिससे चावल का दाम 20 डॉलर प्रति टन ऊपर चला गया है। इसके फलस्वरूप चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में चावल का निर्यात क़रीब 30 प्रतिशत लुढ़क गया। इस वर्ष 2019-20 में भी धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 65 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई है, अब मोटे धान का मूल्य है 1815 रुपये प्रति क्विंटल।
निर्यात पर प्रोत्साहन नहीं मिला तो होगा नुक़सान
यदि ग़ैर-बासमती चावल पर 5% का निर्यात प्रोत्साहन जारी रहता तो न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई वृद्धि के प्रभाव को घटाने में मदद मिलती और चावल के निर्यात के मामले में प्रदर्शन बेहतर होता। लेकिन सरकार ने इसे वापस लेकर निर्यातकों की मुसीबत बढ़ा दी। निर्यातकों ने इसका भार आयातक देशों पर डालने का प्रयास किया तो वे अन्य निर्यातक देशों की तरफ़ मुड़ गए। अफ़्रीका के रवांडा, अंगोला तथा तंजानिया जैसे देशों में इससे भारतीय चावल की ख़रीद प्रभावित हुई। अफ़्रीका में चावल का निर्यात 50% तक घटने की आशंका है। यदि सरकारी प्रोत्साहन नहीं मिला तो भारतीय चावल का निर्यात प्रदर्शन काफ़ी कमज़ोर पड़ सकता है।
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