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क्या आज़ादी का अमृत महोत्सव सबके लिए अमृतवर्षा बन पाएगा?

यह सवाल उठना लाजमी है कि आँकड़ों में, सरकारी फाइलों में विदेशी निवेश कितना भी बढ़ता दिखे। क्या वह आम आदमी को रोजगार देने में मदद करेगा? और सरकार ऐसा क्या करेगी कि इस सवाल का जवाब हां में ही मिले, ना में नहीं? तभी आज़ादी का अमृत महोत्सव सबके लिए अमृतवर्षा का सबब बन पाएगा।
आलोक जोशी

स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने की शुरुआत करते हुए यानी 75वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जो कहा, उसमें कम शब्दों में एक बड़ी बात थी 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस' यानी व्यापार करना आसान बनाने पर।

यह सरकार कई साल से 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' पर काम कर रही है और उन्होंने कहा भी कि देश के व्यापार और उद्योग आज इस बदलाव को महसूस कर रहे हैं। 

लेकिन इसके बाद जो अगली बात उन्होंने कही वह ध्यान देने लायक है। उन्होंने कहा, 

इस तरह के सुधार सिर्फ सरकार तक सीमित न रहें, बल्कि ग्राम पंचायत और नगर निगमों, नगरपालिकाओं तक पहुँचे, इस पर देश की हर व्‍यवस्‍था को मिलकर के काम करना होगा।


नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

क्या कहा प्रधानमंत्री ने?

उन्होंने इसके आगे कहा, "मैं आज आह्वान कर रहा हूँ और बड़े आग्रह से कर रहा हूँ, केंद्र हो या राज्‍य सभी के विभागों से मैं कह रहा हूँ, सभी सरकारी कार्यालयों से कह रहा हूँ। अपने यहाँ नियमों और प्रक्रियाओं की समीक्षा का अभियान चलाइए। हर वो नियम, हर वो प्रक्रिया जो देश के लोगों के सामने बाधा बनकर, बोझ बनकर खड़ी हुई है उसे हमें दूर करना ही होगा। मुझे पता है, जो ये 70-75 साल में जमा हुआ है वो एक दिन में या एक साल में नहीं जाएगा। लेकिन मन बनाकर काम शुरू करेंगे तो हम ऐसा जरूर कर पाएंगे।"
प्रधानमंत्री की यह बात इसलिए ध्यान देने लायक है कि इसके अंदर यह अंतर्निहित है कि सरकार ने भले ही 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस' कर दिया हो और बड़े उद्योगपतिययों की ज़िंदगी आसान हो गई हो, लेकिन छोटे व्यापारियों और कारोबारियों को आज भी बहुत सारी रुकावटें झेलनी पड़ रही हैं।

व्यापार में बाधाएं

इनमें भी सबसे ज्यादा बाधाएँ उन लोगों के सामने हैं जो नया काम शुरू करना चाहते हैं। इस वक़्त नए कारोबार करनेवाले ज़्यादातर लोग ई कॉमर्स यानी ऑनलाइन कारोबार के भरोसे हैं और इनमें से भी अधिकतर लोग एमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे बड़े प्लैटफॉर्म के सहारे या खुद अपनी साइट या ऐप बनाकर काम कर रहे हैं। इन सबके लिए सबसे ज़रूरी है कि बाज़ार खुलें और माँग बनी रहे।  

 

पिछले साल लॉकडाउन लगने के कुछ ही समय बाद आल इंडिया मैन्युफैक्चरर्स ऑर्गनाइजेशन ने नौ और उद्योग संगठनों के साथ मिलकर एक देशव्यापी सर्वे किया था। 

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कोरोना की मार

इससे पता चला कि देश में एक तिहाई से ज़्यादा छोटे और मध्यम उद्योग बंद होने की कगार पर हैं। व्यापारियों से बात कीजिए तो उन सबका कहना है कि कोरोना के पहले झटके ने उनकी कमर तोड़ दी थी, क्योंकि यह मुसीबत अचानक आई थी। 

इसके बाद वे किसी तरह सब कुछ समेटकर अपने नुक़सान का हिसाब ही जोड़ रहे थे कि दूसरी लहर आ गई। इस बार यह सिर्फ कारोबार के लिए ही नहीं उनकी मानसिक स्थिति के लिए भी बड़ा झटका था।

हालांकि इन दो मुसीबतों के बाद भी आशा का दामन न छोड़नेवाले लोग हैं और उनका कहना है कि कम से कम अब वो हर हाल के लिए तैयार तो हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कभी भी फिर ऐसी हालत आ सकती है।  

मैनेजमेंट के जानकारों का भी कहना है कि छोटे हों या बड़े सभी व्यापारी अब ऐसा सोचकर तैयारी कर रहे हैं कि कोरोना का अगला झटका आ गया और फिर लॉकडाउन जैसी स्थिति आई तो काम कैसे जारी ऱखा जाए। 
ऐसा करने में उनके सामने जो दो सबसे बड़ी रुकावटें आती हैं उनमें से एक तो होती माँग की कमी, यानी ग्राहकों की तरफ से कंजूसी शुरू हो जाना और दूसरा पैसे की कमी यानी बैंकों की तरफ से या जिससे भी वे कर्ज लेते थे उसकी तरफ से कंजूसी।

पैसे की किल्लत

सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म फ़ेसबुक ने पिछले साल ओईसीडी और विश्व बैंक के साथ मिलकर भारत में छोटे और मझोले कारोबारियों के बीच एक सर्वे किया था, जिसमें एक तिहाई लोगों ने आशंका जताई थी कि पैसे का इंतजाम यानी कैश फ्लो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होनेवाली है। 

पिछले ही हफ़्ते फ़ेसबुक ने ऐसे व्यापारियों को पाँच से 50 लाख रुपए तक का क़र्ज़ दिलवाने की मुहिम भी शुरू की है। इसका फायदा उन्हीं व्यापारियों को होगा जो फ़ेसबुक या उसके दूसरे ऐप इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप पर छह महीने तक विज्ञापन दे चुके हों।

और फिर फ़ेसबुक को उम्मीद भी है कि जो लोग इस रास्ते अपना कारोबार बढ़ाएंगे वे आगे चलकर अपने विज्ञापन के लिए फिर उसे ही इस्तेमाल करेंगे। यानी दोनों हाथ में लड्डू।

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सबक सीखेंगे?

इससे देश के दूसरे मीडिया संस्थान क्या सबक सीख सकते हैं, और क्या वे भी अपने ग्राहकों के लिए ऐसी ही समर्थन योजना शुरू करने की सोचेंगे, यह तो एक अलग सवाल है। 

लेकिन यहाँ यह बात ज़रूर है कि जिस तरह फ़ेसबुक जैसी बड़ी कंपनी छोटे व्यापारियों के लिए सहारा बनने की सोचती है क्या देश में आनेवाली दूसरी बड़ी कंपनियां भी ऐसा ही कर सकती हैं। 

यह सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि पुराने वक़्त से यह देखा गया है कि जब कहीं कोई बड़ा कारखाना लगता था तो उसके आसपास बहुत से छोटे कारखाने, दुकानें, होटल, रेस्त्रां यानी करीब करीब पूरा बाज़ार लग जाता था और ज्यादा बड़े उद्योग तो अपने आसपास पूरे पूरे शहर ही बसा लेते थे।

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चीन का उदाहरण

और इसके साथ यह सवाल भी उठता है कि देश में कितने ऐसे बड़े उद्योग आ रहे हैं, जिनसे यह उम्मीद की जा सके? 

यहाँ चीन से एक ख़बर आई है जिसपर नज़र डालनी चाहिए। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ग़रीबी मिटाने के अभियान में अपनी जीत का एलान करने के बाद अब उसी दिशा में एक नया एलान कर दिया है। 

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पिछले हफ्ते ही उन्होंने अपनी पार्टी के शीर्ष नेताओें से कहा कि सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिससे देश में संपत्ति का फिर से बँटवारा किया जा सके और सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो। चीनी समाचार एजेंसी के अनुसार, उन्होंने कहा कि बहुत ऊँची कमाई पर नियंत्रण लगाना और बहुत पैसा कमानेवाले लोगों और कंपनियों को प्रेरित करना होगा कि वो समाज को ज्यादा से ज्यादा वापस दें।
इसका चीन पर क्या असर होगा औऱ गरीबों को कितना फायदा होगा यह अलग बहस का मुद्दा है, लेकिन इतना तय है कि इसका अर्थ अमीरों पर ज्यादा टैक्स हो सकता है।

ऐसा होने के बाद या ऐसा होने के डर से बहुत सी बड़ी कंपनियां फिर चीन से भागने की तैयारी में लगेंगी। 

भारत पर असर?

लेकिन जो कंपनी चीन से भागेंगी, उनमें से कितनी भारत आएँगी? यह सवाल आज पहली बार नहीं पूछा जा रहा है। पिछले साल इसी महीने दावा किया गया था कि दो दर्जन बड़ी कंपनियाँ चीन छोड़कर भारत आ रही हैं और वो यहाँ डेढ़ अरब डॉलर का निवेश करेंगी। 

ये वे कंपनियाँ थीं जो पहले ही चीन से निकलने का मन बना चुकी थीं और तब तक यह चिंता सामने आ चुकी थी कि उन्हें अपनी तरफ खींचने के मामले में भारत वियतनाम, कंबोडिया, म्यानमार, बांग्लादेश और थाइलैंड जैसे देशों से पिछड़ चुका था।तब भी सरकार को उम्मीद थी कि इसके बाद जब यह कंपनियां आएंगी तो दस लाख लोगों को रोजगार मिलेगा और करीब डेढ़ सौ अरब डॉलर का उत्पादन भी होगा।  

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सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, साल 2020-21 में भारत में कुल 81.72 अरब डॉलर का सीधा विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई आया है। यह रकम इससे पिछले साल से 10 प्रतिशत ज्यादा है। 
एक अमेरिकी रिसर्च ग्रुप का कहना है कि अगर भारत को पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना है तो उसे हर साल कम से कम सौ अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तो लाना ही होगा। यानी दिल्ली अभी दूर है।

निवेश का असर?

दूसरी बात यह है कि जो पैसा आ रहा है उसमें से काफी कुछ वेंचर कैपिटल या प्राइवेट इक्विटी के रास्ते भी आ रहा है। इनमें से ज्यादातर टेक्नोलॉजी कंपनियों में जा रहा है जहाँ ज़मीन पर बहुत कुछ नहीं होता।

इसीलिए इतना निवेश आने के बाद भी देश में ग्रॉस कैपिटल फॉर्मेशन या ऐसे कारोबार में निवेश जिनमें ज़मीन पर आर्थिक गतिविधि हो, फैक्टरी लगे, बिल्डिंग बने, बहुत से लोगों को रोज़गार मिले और जीडीपी में बढ़ोत्तरी हो, कम हो रहा है। 

2011 से 21 के बीच ऐसा निवेश जीडीपी का 34.3% रहा यानी एक तिहाई से ऊपर, लेकिन 2020-21 में यह सिर्फ 27.1% रह गया है।  

ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आँकड़ों में, सरकारी फाइलों में विदेशी निवेश कितना भी बढ़ता दिखे। क्या वो आम आदमी को रोजगार देने में मदद करेगा? और सरकार ऐसा क्या करेगी कि इस सवाल का जवाब हां में ही मिले, ना में नहीं? तभी आज़ादी का अमृत महोत्सव सबके लिए अमृतवर्षा का सबब बन पाएगा।

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