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नैतिक आभा खो चुकी है नरेंद्र मोदी सरकार?

यह सरकार और इस दल की पूर्ववर्ती सरकारें और राज्य सरकारें ऐसे  क़ानूनों को बनाने के लिए कुख्यात रही हैं, जिन्हें बाद में काला क़ानून कहा गया था। उन्होंने यूपीए सरकार के ज़माने में बनाये गए आरटीआई क़ानून को भी कमज़ोर करने के सारे प्रयास किये।
शीतल पी. सिंह
नरेंद्र मोदी सरकार अपनी नैतिक आभा खो चुकी लगती है। उसके अटॉर्नी जनरल श्री के. के. वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के बचाव में कहा 'वोटर को यह जानने की कोई ज़रूरत नहीं कि राजनैतिक दल चुनाव में जो पैसा खर्च करते हैं उसे लाते कहाँ से हैं।'
सुप्रीम कोर्ट में मौजूद हर इंसान सरकार का यह बयान सुन कर सन्न था। समझ से परे था कि कोई लोकतांत्रिक सरकार ऐसा दृष्टिकोण न सिर्फ रख सकती है, बल्कि उसको दलील के तौर पर सुप्रीम कोर्ट तक में पेश कर सकती है ! इस मामले के याचिकाकर्ता और एडीआर नामक स्वयंसेवी संगठन के फाउंडर मेंबर जगदीश चोकर ने कहा कि श्री वेणुगोपाल ने इसे दो बार दोहराया।
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अलोकतांत्रिक बयान

इसी सरकार का ऐसा ही अस्वाभाविक अलोकतांत्रिक बयान उस समय भी सामने आया था जब आधार प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही थी। सरकारी वकील ने कहा था कि आम लोगों को अपने शरीर पर भी कोई अधिकार तब नहीं है जब सरकार को उसकी जरूरत हो!

इस सरकार के हर नेता का ज़ोर शोर से दावा है कि मोदी सरकार देश की अब तक कि सबसे पारदर्शी सरकार है, लेकिन सरकार में शामिल और सरकार से बाहर आते लोग और फ़ैसले की दूसरी तसवीर पेश करते हैं । 

मोदी की शैक्षिक योग्यता पर सवाल

यह सरकार और इस दल की पूर्ववर्ती सरकारें और राज्य सरकारें ऐसे  क़ानूनों को बनाने के लिए कुख्यात रही हैं, जिन्हें बाद में काला क़ानून कहा गया था। उन्होंने यूपीए सरकार के ज़माने में बनाये गए आरटीआई क़ानून को भी कमज़ोर करने के सारे प्रयास किये।आज तक देश के प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता के घोषित दावों की जाँच नहीं की जा सकी है, जबकि दो-दो मुख्य सूचना आयुक्त बदले जा चुके हैं। सरकार ने लोकपाल के मामले को पूरे पांच साल लटकाए रखा और आम चुनाव घोषित होने के बाद ही नियुक्ति की। इसी सरकार के समय में सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ जजों ने खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा कि लोकतंत्र ख़तरे में है ।

स्वायत्तता पर सवाल

दरअसल बीते पाँच बरसों में मोदी सरकार ने जिस तरह से सरकार चलाई है उसने देश की स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता ख़तरे में डाल दी है । सबसे ताज़ा मामला चुनाव आयोग का है जिसके रवैये के बारे में रिटायर्ड प्रशासनिक सेवाओं के अफसरों के बहुत बड़े समूह ने गंभीर आरोपों का पत्र सार्वजनिक किया है। 

इस दौरान हुए बहुत सारे फैसले अब सुप्रीम कोर्ट की स्क्रूटिनी में जा पहुँचे हैं । हालांकि मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के रवैये से बहुत आशा बांधना भविष्य में भूल साबित हो सकता है, फिर भी रफ़ाल और इलेक्टोरल बॉन्ड के मामलों में उन्होंने लोगों को चौंकाया है और सरकार को कठिनाई में डाला है। सरकार ने अपने अलोकतांत्रिक आचरण को देशभक्ति का चोला डाल कर  ढँकने की कोशिश की है। 
तमाम ऐसे लोग जो स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, मानवाधिकारवादियों, इतिहासकारों कलाकारों, पत्रकारों, बौद्धिकों, अकादमिकों और मौजूदा नेतृत्व के आलोचकों को एक विशाल संगठित गिरोह बनाकर धमकाने अपमानित करने गालियाँ बकने के काम में लिप्त हैं, वे प्रधानमंत्री के ट्विटर एकाउंट पर मित्र हैं।

देशभक्ति का चोला

कई लोगों को तो 130 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश के प्रधानमंत्री से निज़ी मुलाकात और सेल्फी खिंचवाने का गौरव प्राप्त है। यही गिरोह इस देश के अजीबोग़रीब बन चुके मीडिया के साथ बहुमत आबादी और उसके सामाजिक सांस्कृतिक राजनैतिक प्रतिनिधियों को देशद्रोही साबित करने  के आपराधिक कारनामे को चौबीसों पहर प्रचारित करते रहते हैं।

2017 के बजट सत्र में फाइनेंस बिल में इलेक्टोरल बॉन्ड्स पेश किया गया था। इस पर कोई ब्याज नहीं लगना था। 
निजी या कंपनी के लिए एक हज़ार से एक करोड़ तक के लिए ये बॉन्ड कोई भी ख़रीद सकता है। राजनैतिक दलों के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वे बताएंँ कि उन्हें किसने ये बॉन्ड दिए।

काला धन का मुक्ति द्वार

एडीआर ने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए कहा था कि यह एक ऐसा मुक्ति द्वार है जिसके ज़रिये राजनैतिक दल और कॉरपोरेट जगत अपने काले धन के देश विदेश से राजनीति को प्रभावित करने में मनमाना स्तेमाल करेंगे।

सरकार का दावा था कि यह बॉन्ड चुनाव में काले धन को रोकेगा और चुनाव को पारदर्शी बनाएगा। साथ ही यह दानदाताओं की किसी तरह के प्रताड़ण से निजात दिलाने में मदद करेगा। इस धन को इनकम टैक्स फ्री भी रखा गया ।

बॉन्ड पर आपत्ति

चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाब में इस बॉड सिस्टम पर आपत्ति जताई। अपने एफ़ीडेविट में आयोग ने कहा कि उसने अप्रैल 2017 में क़ानून मंत्रालय को पत्र लिख कर आपत्ति जताई थी कि इस बॉन्ड से चुनावों में खर्च होने वाले धन के बारे में पारदर्शिता ख़त्म हो जाएगी।

आयोग ने लिखा कि विदेशों से धन लेने के लिए क़ानून के बदलाव के मामले में भी हमें आपत्ति है। अब विदेशी कंपनियां पैसे देकर राजनैतिक दलों से नीतियों में मनचाहे बदलाव करने के प्रयास करेंगी।
मज़ेदार बात यह है कि देशभक्ति बेचने वाले गिरोह के कारकुन या तो इस सत्य से अनभिज्ञ हैं या जानबूझकर इसकी अनदेखी करते हैं।
फिलहाल सरकारी जवाब से असन्तुष्ट कोर्ट ने बंद लिफ़ाफ़े में अब तक मिले चंदे के दानदाताओं के विवरण 30 मई तक चुनाव आयोग में जमा करने के आदेश दिए हैं। सीलबंद लिफाफों की अलग कथाएँ हैं। अभी मोदी सरकार द्वारा एक लाख पंद्रह हजार करोड़ के अमीरों के कर्ज़माफ़ करने वाले लिफ़ाफ़े भी बंद पड़े हैं, रफ़ाल वाले लिफ़ाफ़े तो बंद पड़े रहे पर खबरें खुल ही गयीं। अब फिर से सुनी जाने का फ़ैसला आ चुका है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति थिओडोर रूज़वेल्ट ने कहा था, 'देशभक्ति का मतलब राष्ट्रपति के साथ खड़े होना नहीं होता देश के साथ खड़े होना होता है!' ऐसा कहने वाले नेता फ़िलहाल इस देश के अगुआ नहीं हैं, इसीलिए हम ऐसे सवालों से जूझ रहे हैं जिन्हें दुनिया हल कर चुकी है।
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