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महंगाई कम करने के लिए क्या सरकार यह कदम उठा पाएगी?

भारत के क़रीब-क़रीब सभी पड़ोसी देशों में पेट्रोल का दाम भारत से कम है। हालाँकि उतना कम नहीं है जितना अफवाहों में बताया जाता है। नेपाल और बांग्लादेश में एक लीटर पेट्रोल अठहत्तर रुपए के कुछ ऊपर नीचे मिलता है तो पाकिस्तान में बावन रुपए लीटर और श्रीलंका में क़रीब अड़सठ रुपए का। 
आलोक जोशी

पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस यानी पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? इस सवाल का जवाब यूँ तो रोज़ बदलता है। पिछले दो चार दिन में देखें तो घट रहे हैं खासकर सरकार के एक्साइज ड्यूटी घटाने के एलान के बाद। लेकिन साल भर का हाल देखें तो बेतहाशा बढ़त दिखती है। आगे क्या होगा कहना बहुत मुश्किल है। राजनीति की नज़र से देखें तो अब पांच राज्यों के चुनाव आने हैं इसलिए सरकारों की तरफ़ से राहत दी जाएगी या राहत देने की कोशिश तो ज़रूर की जाएगी। फिर भी कितनी राहत मिल पाएगी यह कहना मुश्किल है।

वजह यह है कि पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की क़ीमतें अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के भाव पर बहुत हद तक टिकी हैं। भारत अपनी ज़रूरत का पच्चासी परसेंट से ज़्यादा कच्चा तेल बाहर से ही मंगवाने पर मजबूर है और इसीलिए देश में इन चीजों के दाम कम करना सिर्फ़ सरकार के बस की बात नहीं है।

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अंतरराष्ट्रीय बाज़ार का हाल देखिए तो वहाँ अजब ही चाल दिख रही है। बीते हफ्ते के बीच में कच्चे तेल ने दो हफ्ते की नई ऊँचाई छुई तो अगले ही दिन यह गिरकर बंद हुआ। तेल निर्यातक देशों का संगठन ओपेक एक तरफ़ तो कह रहा है कि तेल की मांग में कमी होगी लेकिन साथ ही उसका यह भी कहना है कि मांग के मुक़ाबले सप्लाई में अच्छी खासी कमी दिखाई देगी। यानी मांग कम होने से किल्लत कम नहीं होगी और इसका सीधा अर्थ यह भी है कि दाम भी कम नहीं होंगे। उधर रूस की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी रोजनेफ्ट के सीईओ ने चेतावनी दी है कि दुनिया के एनर्जी मार्केट में एक सुपर साइकिल शुरू होने के आसार दिख रहे हैं। 

एनर्जी मार्केट का अर्थ है कि बिजली, तेल और कोयला यानी ऐसी सभी चीजें जिनसे बिजली बन सकती हैं, गर्मी पैदा हो सकती है या कारखाने और गाड़ियाँ चल सकती हैं। इनमें बड़ा बाज़ार फ़िलहाल तेल और गैस का ही है। और यहाँ उन्हीं की बात भी हो रही है। 

दरअसल, हुआ यह है कि पिछले साल कोरोना के कारण तगड़े झटके और लॉकडाउन के बाद से दुनिया भर में कारोबार और बाक़ी कामकाज पहले धीरे धीरे और अब तेज़ी से वापस पटरी पर लौटता दिख रहा है। इसी वजह से कोयले, तेल और गैस की मांग भी बढ़ रही है। दूसरी तरफ़ सप्लाई लाइन उतनी तेजी से पटरी पर लौटी नहीं है। कच्चा माल और तैयार माल फैक्टरियों तक और बाज़ार तक पहुँचने में जैसी बाधाएँ आ रही हैं वैसी ही मुश्किलें तेल और गैस के मामले में भी हैं। रोजनेफ्ट के सीईओ का कहना है कि जैसे-जैसे मांग और आपूर्ति के बीच की खाई पाटने की दिक्कतें सामने आएंगी, हमें तेल और गैस के बाज़ार में एक नया सुपर साइकल देखने को मिल सकता है। सुपर साइकल का अर्थ है तेज़ी का एक लंबा दौर। यानी दाम जहां हैं वहाँ से काफी ऊपर जा सकते हैं और वहाँ काफी समय तक बने भी रह सकते हैं।

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रूस भी अब ओपेक के साथ मिलकर ही तेल के बाज़ार में काम करता है और इसीलिए अब संगठन को ओपेक प्लस कहा जाता है। लेकिन दोनों बयानों में जो फर्क दिख रहा है वो कोई मतभेद नहीं है बल्कि उस विकट परिस्थिति का संकेत है जिसने दुनिया के तेल बाज़ार को दुविधा में डाल रखा है। एक हफ्ते पहले ही ओपेक प्लस की बैठक में तेल उत्पादन में हर महीने चार लाख बैरल प्रतिदिन की बढ़त ही करने का फ़ैसला किया गया। जबकि अमेरिका इससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी की मांग कर रहा था। अमेरिका को तेल की ज़रूरत भी है और उसका यह तर्क भी था कि दाम काबू में रखने के लिए यह बढ़ोत्तरी ज़रूरी है। 

अमेरिका इकत्तीस साल की सबसे ऊंची महंगाई से जूझ रहा है और इस वक़्त उसके लिए महंगाई वैसी ही चुनौती बनी हुई है जैसी विकासशील देशों की जनता के लिए हर तीसरे चौथे महीने बन जाती है।

उनके लिए समस्या विकट है क्योंकि अमेरिका में सर्दी की छुट्टियाँ आनेवाली हैं जब क़रीब-क़रीब पूरा देश गाड़ियाँ लेकर निकल पड़ता है और सभी को अपनी गाड़ियों की टंकी फुल करवानी होती है। कोरोना का असर कम होने के साथ ही वो लोग भी वापस गाड़ियाँ लेकर निकल पड़े हैं जो अब तक वर्क फ्रॉम होम करते थे और वो लंबे-लंबे सफर भी कर रहे हैं। इसके अलावा जाड़े में घरों और दफ्तरों को गर्म रखने के लिए वहाँ बहुत बड़ी मात्रा में हीटिंग ऑयल की मांग भी बढ़ जाती है। पिछले साल के मुक़ाबले तेल का भाव वहाँ भी क़रीब डेढ़ गुना हो चुका है। अमेरिका में अगले साल मध्यावधि चुनाव भी हैं और इस वक़्त यह दाम राष्ट्रपति बाइडेन के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। उनके हाथ में बहुत कुछ है नहीं हालांकि उन्होंने यह आह्वान ज़रूर किया है कि देश को फॉसिल फ्यूल यानी तेल गैस और कोयले जैसी चीजों पर निर्भरता घटानी होगी। लेकिन जब साथ ही वो ओपेक प्लस पर उत्पादन बढ़ाने का दबाव बनाते हैं तो दोनों ही बातों का वजन कम होता है। 

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भारत में भी पिछले काफी समय से तेल, गैस और कोयले जैसी चीजों का चलन घटाने की बातें चल रही हैं। इन दिनों इलेक्ट्रिक कार या टू व्हीलर पर भी ख़ूब जोर दिया जा रहा है। लेकिन क्या उससे तेल और गैस की मांग में भारी कमी आ पाएगी, यह गंभीर सवाल है। और फिर इन सब गाड़ियों के लिए बिजली कहाँ से आएगी? उसके लिए पवन ऊर्जा या सौर ऊर्जा किस हद तक कारगर होगी अभी कहना बहुत मुश्किल है। और बिजली से चलनेवाली गाड़ियों की क़ीमत और फिर उनके सेल बदलने का ख़र्च जोड़कर जब गाड़ी की पूरी ज़िंदगी का हिसाब जोड़ा जाए तो खास कुछ हासिल होता नहीं दिखता है।

शायद यही वजह है कि भारत में ही नहीं, दुनिया भर में फ़िलहाल पेट्रोल-डीजल की मांग या दाम में कमी के आसार दिख नहीं रहे हैं। पिछले दिनों इस बात की भी बहुत चर्चा हुई कि भारत के पड़ोसी देशों में बहुत सस्ता पेट्रोल मिलता है। और बहुत सालों से हम सुनते आए हैं कि अमेरिका में भी पेट्रोल काफी कम दाम पर मिलता है। लेकिन असलियत क्या है? 

दुनिया में सबसे सस्ता पेट्रोल मिलता है वेनेज़ुएला में जो खुद एक बहुत बड़ा तेल उत्पादक देश है। भारतीय मुद्रा में हिसाब लगाएं तो वहां पेट्रोल का दाम है करीब डेढ़ रुपए लीटर, इसके बाद नंबर आता है ईरान का जहां यह पांच रुपए के आसपास मिलता है।

दुनिया में सबसे ज़्यादा तेल पैदा करनेवाले देश सऊदी अरब में पेट्रोल का दाम क़रीब छियालीस रुपए लीटर है और यही हाल दुबई यानी यूएई का भी है। सबसे महंगा पेट्रोल मिलता है हॉंगकॉंग में जहां यह एक सौ पच्चासी रुपए से ऊपर है। उसके बाद सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक का नंबर है और उसके बाद हैं नीदरलैंड और सारे स्कैंडेनेवियाई देश। 

अमेरिका में पेट्रोल का दाम सड़सठ रुपए यानी एक डॉलर से कम है जबकि ब्रिटेन में यह एक सौ पैंतीस रुपए लीटर का मिल रहा है।

भारत के क़रीब-क़रीब सभी पड़ोसी देशों में पेट्रोल का दाम भारत से कम है। हालाँकि उतना कम नहीं है जितना अफवाहों में बताया जाता है। नेपाल और बांग्लादेश में एक लीटर पेट्रोल अठहत्तर रुपए के कुछ ऊपर नीचे मिलता है तो पाकिस्तान में बावन रुपए लीटर और श्रीलंका में क़रीब अड़सठ रुपए का। 

दुनिया के सभी देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल का दाम तो एक ही है। फिर अगर वो बिकता अलग अलग दाम पर है तो उसकी एक ही वजह है। अलग अलग देशों में इसपर लगनेवाला टैक्स। पिछले कई सालों में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम गिरने के बावजूद भारत में भी पेट्रोल-डीजल महंगा होने की सबसे बड़ी वजह यही रही कि सरकारें इसपर एक्साइज ड्यूटी और टैक्स बढ़ाती रहीं। हाल में इसमें कुछ कटौती हुई है लेकिन वो ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुई है। भारतीय जनता पार्टी के नेता और जाने माने एनर्जी एक्सपर्ट नरेंद्र तनेजा का कहना है कि थोड़ी नर्मी के बाद आनेवाले महीनों में पेट्रोल और डीजल के दाम फिर बढ़ाने पड़ सकते हैं। उनका कहना है कि दुनिया भर में सरकारें सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को बढ़ावा दे रही हैं और तेल गैस पर नया निवेश हो नहीं रहा है। इसकी वजह से भी अगले साल कच्चे तेल के दाम सौ डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच सकते हैं। उनका यह भी कहना है कि तेल के दाम घटाना किसी सरकार के बस में नहीं है। 

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लेकिन इतना तो साफ़ है कि जो सरकार पिछले कई साल से सस्ते तेल पर ऊँचा टैक्स वसूल करती रही है उसे अब कोरोना और इकोनॉमी के संकट का बहाना छोड़कर एक्साइज और टैक्स में बड़ी कटौती करनी होगी तभी आम आदमी को पेट्रोल-डीजल के दामों से और इकोनॉमी को महंगाई के दबाव से राहत मिल पाएगी।
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