बुरे फँसे अब्दुल्ला
उमर के बयान को लेकर सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें ट्रोल किया। नैशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता आगा रूहुल्लाह ने विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कश्मीरी युवाओं ने भी सोशल मीडिया पर उमर अब्दुल्ला को आड़े हाथों लिया।उमर अब्दुल्ला को 'मोदी सरकार का एजेंट' तक कहा गया। घबरा कर उमर को बार-बार सफ़ाई देनी पड़ी। उन्होंने यहाँ तक कहा कि जब तक वह ज़िंदा हैं, 5 अगस्त वाले दिल्ली के फ़ैसले को स्वीकार नहीं करेंगे।
क्या हुआ था 5 अगस्त को?
पिछले साल 4-5 अगस्त के बीच जम्मू-कश्मीर में कर्फ्यू लगा कर सभी टेलीफोन संचार, यहाँ तक कि लैंडलाइन फोन कनेक्शन भी काट दिए गए थे। इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी। अगले दिन संसद में एक विधेयक पारित कर भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 में संशोधन किया गया, अनुच्छेद 35 'ए' को समाप्त कर दिया गया। साथ ही जम्मू-कश्मीर को मिला हुआ पूर्ण राज्य का दर्जा भी ख़त्म करके इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया गया। इस तरह एक झटके में जम्मू-कश्मीर राज्य से विशेष दर्जा छिन गया।बदल गया जम्मू-कश्मीर
इस तरह, बीजेपी सरकार ने केवल जम्मू-कश्मीर के इतिहास को नहीं, बल्कि उसके भूगोल को भी बदल दिया। पिछले साल 4 अगस्त तक जम्मू-कश्मीर भारत का एकमात्र मुसलिम बहुल राज्य था, जिसके पास अर्ध-स्वायत्तता थी। इस राज्य का अपना संविधान और अपना झंडा था। यहाँ कोई भी बाहर का व्यक्ति भूमि और संपत्ति नहीं खरीद सकता था। किसी बाहरी को जम्मू-कश्मीर में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती थी। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में किसी भी बाहरी को प्रवेश नहीं मिल सकता था।जम्मू-कश्मीर को यह विशेष दर्जा इसलिए हासिल था कि 1947 में महाराजा हरि सिंह ने भारत में कुछ शर्तों के साथ राज्य का विलय किया था। ये शर्तें थीं कि नई दिल्ली के पास केवल विदेशी मामले, रक्षा और मुद्रा के मामले रहेंगे। अन्य सभी मामलों में जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता को बनाए रखा जाएगा।
छिन गई संप्रभुता?
हालांकि पिछले 70 वर्षों में जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे नई दिल्ली ने छीन लिया। उदाहरण के लिए, आजादी के बाद 18 साल यानी 1964 तक इस राज्य का अपना सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री था। संसद और उच्चतम न्यायालय के निर्णय जम्मू-कश्मीर में सीधे लागू नहीं किए जा सकते थे। लेकिन पिछले सात दशकों में इन सभी कानूनों को निरस्त कर दिया गया और बाकी को पिछले साल 5 अगस्त को एक झटके में समाप्त कर दिया गया।अब्दुल्ला पर उठे सवाल
यही वज़ह है कि उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयान से घाटी में विवाद पैदा हुआ है। लोगों ने पूछना शुरू कर दिया कि उमर ने चुनाव लड़ने के लिए राज्य के दर्जे को बहाल करने की शर्त क्या इसलिए रखी है ताकि जब वह मुख्यमंत्री बनें तो उनके पास अधिक शक्तियाँ हों।जम्मू-कश्मीर के लोग पूछने लगे हैं कि क्या उमर अब्दुल्ला को विशेष दर्जा और स्थायी निवास के क़ानून की कोई चिंता नहीं है, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों से छीन लिया गया है?
चुप्पी से संदेह
अपनी रिहाई के बाद दोनों ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा छीनने और उसकी भौगोलिक स्थिति को बदलने के लिए नई दिल्ली द्वारा उठाए गए एकतरफ़ा कदम पर कोई चर्चा नहीं की। उमर अब्दुल्ला ने कहा कि वह महामारी (कोरोना वायरस) की समाप्ति के बाद ही बोलेंगे। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अपनी रिहाई के बाद कोई भी राजनीतिक बयान देने से इनकार कर दिया।80 साल का रिश्ता
कश्मीर में एक सामान्य धारणा है कि राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति के बारे में चर्चा करने की नैतिक ज़िम्मेदारी अब्दुल्ला परिवार की है, क्योंकि उसका कश्मीर के इतिहास के साथ पिछले 80-90 वर्षों से गहरा संबंध है। इस महत्त्वपूर्ण मोड़ पर कुछ पर्यवेक्षक उनकी चुप्पी को 'आपराधिक' चुप्पी कह रहे हैं।शेख के साथ क्या गुज़री थी?
शेख अब्दुल्ला ने ही 1947 में धर्म के नाम पर स्थापित पाकिस्तान के ऊपर 'धर्मनिरपेक्ष' भारत को प्राथमिकता दी थी। शेख ने उपमहाद्वीप के विभाजन से बहुत पहले दिवंगत जवाहरलाल नेहरू से अपनी दोस्ती को आगे बढ़ाया था। कश्मीर और भारत के बीच संबंधों की स्थापना के कुछ वर्षों बाद शेख को उनकी वफादारी के लिए 'पुरस्कृत' किया गया था। ये नेहरू थे, जिन्हें शेख ने अपना दोस्त माना, लेकिन जिन्होंने 1953 में उनसे सत्ता छीन कर उन्हें एक लंबी जेल यात्रा पर भेज दिया।
शेख जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री थे जब एक जूनियर पुलिस अधिकारी ने उनका दरवाजा खटखटा कर सूचित किया कि वह अब प्रधान मंत्री नहीं रहे, उन्हें स्वयं को अब एक क़ैदी समझना चाहिए।
11 साल की जेल, 11 साल की चुप्प
शेख 11 साल तक जेल में रहे और 11 साल तक भटकते रहे। इस अवधि के दौरान राज्य के विशेष दर्जे को क्रमिक संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से कम किया गया। शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के अनुयायी उन्हें 'कश्मीर का शेर' कहते थे, क्योंकि 1930 के दशक में तानाशाह डोगरा शासकों के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा उठा वह एक शेर की तरह दहाड़े थे। लेकिन 11 साल जेल में रहने के बाद शेख अब टूट से गये थे।
इस समझौते में शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को कमज़ोर करने के लिए 22 साल की इस अवधि के दौरान नई दिल्ली द्वारा किए गए सभी संवैधानिक संशोधनों को स्वीकार कर लिया था।
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