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फ़ोटो क्रेडिट - MumbaiLive

लॉकडाउन ने रातों को भी जागने वाले और जीवंत शहर मुंबई को किया वीरान

'चौपाटी जायेंगे-भेलपूरी खायेंगे', मुंबई के जुहू बीच चौपाटी की आकर्षक शाम और वहां जुटने वाले हुजूम की यह खासियत थी कि बॉलीवुड की दर्जनों फ़िल्मों में वहां पर दृश्य फ़िल्माए गए और गानों में उसका जिक्र भी हुआ लेकिन कोरोना त्रासदी के बाद क्या इस चौपाटी की वही पुरानी रंगत लौट पायेगी? 

अनेकों बम धमाकों और आतंकी हमलों के बाद भी यह शहर कुछ दिनों नहीं कुछ घंटों में ही सामान्य हो उठता था और सबकुछ पहले की तरह चलने लगता था। लेकिन लॉकडाउन इस शहर की आत्मा या यूं कह लें कि जीवटता को बड़े गहरे घाव दे रहा है। जिन बातों की कभी कल्पना तक नहीं की थी, वे बातें भी हो रही हैं। 

क्या किसी ने सोचा था कि जिस शहर में सोने के लिए सड़क किनारे फुटपाथ पर जगह हासिल करने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती थी, वहां बस्तियां वीरान हो जाएंगी और उनमें कोई रहने वाला नहीं होगा!

रात-दिन लाखों लोगों को लेकर दौड़ती लोकल रेल के खचाखच भरे रहने वाले प्लेटफॉर्म इतने निर्जन हो जाएंगे कि कोई शख्स वहां फांसी का फंदा लगाकर आत्महत्या कर ले? लेकिन ऐसा हो रहा है। 

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वीरान हो गयी है भैयावाड़ी 

जुहू चौपाटी के पास मछुवारों की बस्ती कोलीवाड़ा से लगती एक झोपड़पट्टी है - भैयावाड़ी। इसके नाम से ही पता चलता है कि यह बस्ती उत्तर भारतीय प्रवासियों ( जिन्हें मुंबई में भैया कहकर संबोधित किया जाता है) की बहुलता वाली जगह है। लॉकडाउन से पहले यहां करीब तीन साढ़े तीन हजार लोग रहा करते थे। चौपाटी पर भेलपुरी, चाय-नाश्ते का धंधा करने वाले, होटल्स और बार में काम करने वाले वेटर्स तथा ऑटो रिक्शा चलाने वाले लोग मुख्यतः इस बस्ती में रहते थे। लेकिन आज यह बस्ती पूरी तरह से वीरान पड़ी है। 

कल को यदि लॉकडाउन ख़त्म भी हुआ तो जुहू की चौपाटी की उस भेलपूरी का स्वाद लोगों को कब मिलेगा, यह कहना मुश्किल होगा क्योंकि इस बस्ती में रहने वाले वे भेलपूरी वाले अपने गांवों की तरफ लौट गए हैं। वापस कब आयेंगे या आयेंगे ही नहीं, यह समय ही बताएगा।

बढ़ते लॉकडाउन ने तोड़ दी उम्मीद

आज इस पूरी बस्ती में कोई नहीं रहता। सभी अपनी जान बचाने के लिए अपने-अपने गांव चले गए हैं। एक के बाद एक लॉकडाउन और दिन-प्रतिदिन बिगड़ते हालात ने इनकी उम्मीद तोड़ दी। इस बस्ती से लोगों का पलायन दूसरे लॉकडाउन के बाद शुरू हुआ और जब चौथे लॉकडाउन की घोषणा हुई तो एक बड़ा समूह यहां से अपने गांव चला गया। ये लोग बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे। करीब दो दर्जन ऑटो रिक्शा और 40 मोटर साइकिल पर सवार होकर करीब 200 लोग एक रात को यहां से अपने गांव के लिए रवाना हो गए। 

इस क्षेत्र के स्थानीय नगरसेवक अनीश मकवाना ने बताया कि यहां रह रहे 1200 परिवारों को भोजन सामग्री पहुंचाने के लिए उन्होंने महानगरपालिका को सूची दी थी लेकिन उन्हें खाद्यान्न की आपूर्ति शुरू नहीं हो पायी। स्थानीय गुरुद्वारों और स्वयंसेवी संगठनों ने कुछ दिन तक खाना दिया लेकिन स्थिति हर दिन बिगड़ती गयी और लोगों का पलायन भी बढ़ता गया। 

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आत्महत्या का रास्ता चुना

इस झोपड़पट्टी की तरह ही कहानी है मुंबई लोकल के एक बड़े रेलवे स्टेशन तुर्भे की। नवी मुंबई के भीड़भाड़ वाले इलाके में स्थित इस रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक की सीलिंग से रस्सी बांधकर सोमवार रात को एक शख्स ने आत्महत्या कर ली। सुनील पवार (45) नामक यह व्यक्ति मुंबई कृषि उत्पन्न बाजार में काम करता था। बताया जाता है कि घर में पति-पत्नी के बीच अक़सर छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ा होता था। सोमवार रात को भी झगड़ा हुआ और उसके बाद सुनील पवार रेलवे स्टेशन पर गया और फांसी लगा ली। अगले दिन सुबह वहां से गुजरने वाले किसी व्यक्ति ने जब उसको लटकता देखा तो पुलिस को सूचना दी। 

ये दोनों घटनाएं मुंबई की जीवंतता को विचलित कर देने वाली हैं। झोपड़पट्टी शब्द भले ही कोई उत्सुकता न जगाये लेकिन मुंबई में इनमें बहुत बड़ी श्रम शक्ति रहती है जो सही मायने में इस शहर के औद्योगिक से लेकर घरेलू कार्यों को संचालित करती है। लेकिन आज इनमें वीरानी बढ़ती जा रही है। 

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संजय राय

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