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परीक्षाएँ रोककर मराठा आरक्षण की अग्नि परीक्षा कैसे पास करेगी ठाकरे सरकार?

मराठा समाज को आरक्षण महाराष्ट्र की महाविकास आघाडी के लिए अग्नि परीक्षा जैसा साबित होता जा रहा है। सरकार नौकरी, भर्तियाँ या परीक्षाएँ टाले जा रही है लेकिन इससे दूसरे वर्ग के लोगों में ग़ुस्सा बढ़ रहा है। मराठा आरक्षण को लेकर प्रदेश में घमासान मचा हुआ है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण गत एक माह में विभिन्न स्तरों पर मराठा समाज के नेताओं को मनाने में जुटे हुए हैं। मराठा नेताओं से चल रहे वार्ताओं के दौर में राज्य के गृह मंत्री ने 16 सितंबर को 12 हज़ार से अधिक पुलिसकर्मियों की भर्ती की घोषणा की लेकिन एक दिन बाद ही उन्होंने कहा कि 13 फ़ीसदी मराठा समाज के लिए आरक्षित स्थान छोड़ शेष पदों पर भर्ती की जाएगी। इसके बाद 200 पदों के लिए एमपीएससी परीक्षा को स्थगित करने की घोषणा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने की। उद्धव ठाकरे की इस घोषणा से 10 अक्टूबर का मराठा समाज का महाराष्ट्र बंद आंदोलन तो थम गया लेकिन इससे ग़ैर मराठा समाज में आक्रोश बढ़ने लगा है। 

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सरकार में मंत्री कांग्रेस नेता विजय वड्डेटीवार और एनसीपी नेता छगन भुजबल ने इस निर्णय पर अफसोस जताया है तथा नाराज़गी भी व्यक्त की है। दोनों नेता ओबीसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों ने कहा है कि मराठा आरक्षण को लेकर उनका कोई विरोध नहीं है लेकिन इसके लिए दूसरे वर्ग के लोगों का आरक्षण या परीक्षाएँ रोकना कहाँ तक जायज़ है? मराठा आरक्षण को लेकर क़ानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और उस पर फ़ैसला होने में समय भी लग सकता है। ऐसे में शेष भर्तियाँ कब तक रोकी जा सकती हैं। इन नेताओं का कहना है कि ऐसा करने से अन्य वर्ग के लोगों में सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पनपने लगेगा जो ख़तरनाक साबित हो सकता है। 

9 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने जब से इस आरक्षण पर स्थगन का आदेश दिया है तब से प्रदेश में राजनीति गरमाई हुई है। विपक्ष सरकार को इस मुद्दे पर सही पक्ष पेश करने में विफल रहने का आरोप लगा रहा है तो सत्ता में सहभागी कांग्रेस और राष्ट्रवादी की तरफ़ से राज्य सरकार पर दबाव डाला जा रहा है कि वह मराठा समाज को आरक्षण दे, लेकिन ओबीसी आरक्षण कोटे पर उसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यानी मराठा आरक्षण का अलग से ही प्रावधान हो। सरकार तर्क दे रही है कि दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु में जब आरक्षण की सीमा बढ़ाकर आरक्षण दिया जा सकता है तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं। 

महाराष्ट्र में राज्य सरकार ने नौकरियों में मराठा समाज को 13 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया है। मुंबई हाई कोर्ट ने इसे वैध भी करार दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी।

उल्लेखनीय है कि प्रदेश में मराठा आरक्षण की माँग साल 1980 से चल रही थी और 2009 के विधानसभा चुनाव में विलासराव देशमुख ने यह घोषणा की थी कि यदि कांग्रेस की सरकार आयी तो मराठा समाज को आरक्षण देने पर विचार किया जाएगा। 2009 से 2014 तक विभिन्न राजनीतिक दलों व सत्ताधारी दलों के नेताओं ने यह माँग सरकार के समक्ष रखी। 25 जून 2014 को तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने मराठा आरक्षण को मंजूरी दे दी। उस आदेश के अनुसार शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा समाज को 16% आरक्षण दिये जाने की बात कही गयी। साथ ही 5 फ़ीसदी आरक्षण मुसलिम समाज को देने का निर्णय भी लिया। लेकिन नवम्बर 2014 में इस आरक्षण को अदालत में चुनौती दी गयी। इस दौरान राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और बीजेपी- शिवसेना की सरकार आ गयी। 

साल 2018 में कोपर्डी में हुई बलात्कार की घटना के बाद मराठा आरक्षण का यह मुद्दा गरमा गया और प्रदेश भर में मराठा समाज के लोगों ने हर ज़िला स्तर, संभाग और राज्य स्तर पर मूक मोर्चा निकाला। हर मोर्चे में लाखों की संख्या में युवक-युवती एकत्र होते थे और बिना किसी नारेबाज़ी या प्रदर्शन के अपनी माँगों का ज्ञापन सम्बंधित अधिकारियों को सौंपते थे।

बाद में इस आन्दोलन का दूसरा चरण नवम्बर 2018 में शुरू हुआ। लेकिन जैसे ही इस चरण में आन्दोलन हिंसक होने लगा 18 नवम्बर 2018 को मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने आनन-फानन में बैठक बुलाकर 16 फ़ीसदी मराठा आरक्षण देने का क़ानून मंजूर करने की घोषणा कर दी। लेकिन इसको फिर से अदालत में चुनौती दी गयी। 6 फ़रवरी 2019 से 26 मार्च तक मुंबई उच्च न्यायालय में हर दिन इस मामले की सुनवाई होती रही। 26 मार्च को इस पर अदालत ने अपना निर्णय आरक्षित कर दिया। अदालत की ग्रीष्मकालीन अवकाश के बाद इस पर अपना फ़ैसला सुनाया। इस फ़ैसले को अधिवक्ता जयश्री पाटिल ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और क़रीब एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को स्थगित कर दिया।

अदालत ने कहा कि वर्ष 2020-21 में होने वाली सरकारी नौकरी भर्ती या शैक्षणिक प्रवेश के लिए मराठा आरक्षण लागू नहीं होगा। यह आदेश इस तर्क के आधार पर दिया गया कि प्रदेश में सभी जातियों को दिया जाने वाला आरक्षण 50% से ज़्यादा हो जाएगा।

न्यायाधीश हेमंत गुप्ता, एल. नागेश्वर  और  एस. रवींद्र भट ने यह फ़ैसला सुनाया। अब राज्य सरकार ने इस मामले की सुनवाई तथा स्टे हटाने के लिए नयी याचिका दायर की है। 

इस मामले में सरकार कितना दबाव में है इस बात का अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रमुख शरद पवार राज्यसभा के अधिवेशन में शामिल नहीं हुए। पवार ने सभी नेताओं तथा क़ानूनी सलाहकारों में सामंजस्य बिठाने के लिए अनेक बैठकें कीं तथा सुप्रीम कोर्ट में नयी पुनर्विचार याचिका दायर करायी। इन बैठकों के बाद सरकार मराठा समाज के आंदोलन को हाल फ़िलहाल शांत कराने में सफल तो हो गयी लेकिन उसे जिन बातों पर समझौता करना पड़ा है उसने अन्य समाज को नाराज़ करने का मार्ग खोल दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के अग्रिम आदेश तक मराठा समाज को क्या आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग के 10 फ़ीसदी वाला आरक्षण का लाभ दे दिया जाए के विकल्प पर भी चर्चाएँ हुईं लेकिन मराठा समाज अपने अलग कोटे पर ही अड़ा हुआ है। ओबीसी आरक्षण को लेकर प्रखर आवाज़ उठाने वाले कांग्रेस नेता व राज्य के मंत्री विजय वडेट्टीवार कह रहे हैं कि अगड़ी जाति के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए केंद्र सरकार द्वारा जो 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है, वह मराठा समाज को मिले इस बात से किसी को ऐतराज़ नहीं है। लेकिन मामला प्रदेश के बावन फ़ीसदी ओबीसी समाज से जुड़ा है लिहाज़ा वे स्पष्ट कर रहे हैं कि ओबीसी समाज के आरक्षण में किसी और समाज की हिस्सेदारी का वे विरोध करते हैं। ऐसे में सरकार के सामने एक तरह कुआँ और दूसरी तरफ़ खाई जैसी स्थिति बन आयी है। 22 फ़ीसदी मराठा समाज को ख़ुश करने के लिए वह बावन फ़ीसदी ओबीसी समाज को नाराज़ नहीं करना चाहती। विरोधी दल सरकार की इस असमंजसता का लाभ उठाने के मूड में हैं।
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संजय राय

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