टीवी पत्रकारिता इस समय जिस घनघोर संकट से गुज़र रही है उसके लिए आम तौर पर टीआरपी को दोषी ठहराकर छुट्टी पा ली जाती है। मगर यह अर्धसत्य है। भले ही टीआरपी ने न्यूज़ चैनलों को गड्ढे में गिरने को विवश किया हो, मगर वह इसके लिए अकेली कसूरवार नहीं है। सचाई यह है कि भारत में टीवी पत्रकारिता दोहरे हमले का शिकार हुई है। पहला हमला बेशक बाज़ार का था जो टीआरपी के ज़रिए हुआ, मगर दूसरा आक्रमण राजनीति की ओर से हुआ और इसकी शुरुआत छह साल पहले हुई जो कि अभी भी जारी है।
हमें दो महत्वपूर्ण तारीख़ें याद रखनी चाहिए। पहली 1991 की जब आर्थिक उदारवाद ने भारत को अपने नागपाश में लेना शुरू किया और दूसरी 2014 जब हिंदुत्व की उन्मादी राजनीति देश की सत्ता पर काबिज़ हुई। आज हम अगर न्यूज़ चैनलों के व्यवहार को लेकर सबसे ज़्यादा विचलित हैं तो इसलिए कि वे एकदम से सांप्रदायिक उन्माद से भर गए हैं और धार्मिक कट्टरता और नफ़रत का ज़हर पूरे देश में फैलाने में जुटे हुए हैं।
हिंदुत्व की राजनीति का चूँकि मूल चरित्र ही लोकतंत्र विरोधी और फासीवादी है, इसलिए वह मीडिया की स्वतंत्रता की बात भले ही करती हो, मगर व्यवहार में उसे कुचलने का हर संभव प्रयास कर रही है। वह उसका इस्तेमाल प्रोपेगेंडा मशीनरी की तरह करना चाहती है इसलिए हर तरह से उसे अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश कर रही है और इस कोशिश में सफल भी हो रही है। इसीलिए आज लोग उसे गोदी मीडिया कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते।
लेकिन यह मान लेना कि हिंदुत्व की राजनीति का बाज़ार या टीआरपी से कोई संबंध नहीं है या दोनों बिल्कुल अलग चीज़ें हैं, बहुत बड़ी भूल होगी। वास्तव में दोनों एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। हिंदुत्व की राजनीति पॉपुलर है या उसे पॉपुलर कर दिया गया है और वह टीआरपी दे रही है, इसलिए उसका मीडिया पर वर्चस्व कायम हो गया है।
यह तो सर्वविदित है कि भारतीय मीडिया में हिंदुत्व पहले से छिपा बैठा था और सांप्रदायिक दंगों या मुद्दों के समय वह उभरकर प्रकट भी होता रहा है। इसे रामजन्मभूमि मंदिर के अभियान में भली-भाँति देखा जा सकता है। इस पूरे आंदोलन के दौरान मीडिया का अधिकांश हिस्सा हिंदुत्व के पक्ष में झुका रहा। बाबरी मसजिद के ध्वंस और उसके बाद के दंगों में ये बखूबी प्रदर्शित हुआ था। इस विवाद पर चल रही क़ानूनी लड़ाइयों और अदालती आदेशों पर प्रकट होने वाली मीडिया की प्रतिक्रियाओं के समय भी इसके दर्शन हुए हैं।
फिर कई मीडिया संस्थानों का स्वामित्व हिंदुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुड़ा रहा है। इसकी मदद करके वे तरह-तरह से लाभान्वित होते रहे हैं और यहाँ तक कि लोकसभा-राज्यसभा आदि में भी पहुँचते रहे हैं।
यह भी एक सचाई है कि हिंदुत्ववादी दलों ने सुनियोजित तरीक़ों से अपने लोग मीडिया में प्लांट किए हैं, जो समय आने पर उनकी मदद के लिए हमेशा तैनात रहते हैं। राजनीति के साथ इस गठजोड़ ने मीडिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बहुत क्षति पहुँचाई है।
यह गठजोड़ पिछले तीन-साढ़े तीन दशकों में और भी मज़बूत हुआ है और उसने अधिक आक्रामक रुख़ भी अख़्तियार कर लिया है। ये अल्पसंख्यक समुदायों, बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं-संगठनों पर हमले भी करता रहा है। लेकिन जब हिंदुत्व लोकप्रिय होने लगा और मीडिया को लोकप्रियता और धंधा देने लगा तो वह और भी कट्टरता के साथ हिंदुत्व का पक्षधर बनने लगा।
सन् 2012-14 का कालखंड इस दिशा में निर्णायक साबित हुआ। मनमोहन सिंह की सरकार अलोकप्रिय हो चली थी। उसके अपने कर्म तो इसके लिए ज़िम्मेदार तो थे ही, मगर उसे अलोकप्रिय बनाने में मीडिया का भी बहुत बड़ा हाथ था। हिंदुत्ववादी राजनीति ही नहीं, मीडिया में बैठे हिंदुत्व ने भी इसे एक अच्छे मौक़े के रूप में देखा और मोर्चा खोल दिया। ठीक इसी समय कार्पोरेट जगत के उस हिस्से ने, जिसे केवल अपने फ़ायदे से मतलब था, पलटी खाई और वह गुजरात के विकास मॉडल और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व का ढोल पीटने में जुट गया।
कार्पोरेट और मीडिया की जुगलबंदी
यानी कार्पोरेट और मीडिया की जुगलबंदी साथ-साथ चल रही थी। टेलीविज़न मीडिया में इस कार्पोरेट का सीधा दखल भी था। मुकेश अंबानी के रिलायंस ने अब तक टीवी18 और ईनाडु समूह को खरीदकर एक बड़ा मीडिया घराना खड़ा कर दिया था। ज़ी समूह तो खुलकर बीजेपी के साथ आ ही चुका था। और भी दूसरे चैनलों ने बीजेपी और मोदी का साथ देना शुरू कर दिया और देखते ही देखते हिंदुत्ववादी राजनीति मीडिया के एजेंडे में सबसे ऊपर आ गई। इसी के साथ हिंदुत्व भी भारतीय राजनीति के केंद्र में आ गया।
लेकिन यहाँ टीआरपी का खेल भी समानांतर रूप से चल रहा था। न्यूज़ चैनल देख रहे थे कि मोदी की रैलियाँ टीआरपी दे रही थीं, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दूसरे कांग्रेसी नेताओं की रैलियों के लेकर लोगों में वैसा उत्साह नहीं था। यानी मोदी को दिखाने से टीआरपी मिल रही थी, इसलिए आलम यह हो गया कि तमाम चैनलों पर मोदी ही मोदी दिखने लगे। सीधा सा फ़ॉर्मूला था-मोदी दिखाओ, टीआरपी पाओ।
2014 के चुनाव टीवी चैनलों द्वारा मोदी और बीजेपी के पक्ष में निर्मित इसी वातावरण में हुए। नतीजा क्या हुआ हम सब इससे वाकिफ़ हैं।
लेकिन हिंदुत्ववादी राजनीति से गठजोड़ से शुरू हुआ यह ट्रेंड यहीं नहीं रुका, क्योंकि देश के बहुसंख्यकों की मानसिकता पर हिंदुत्व को बैठाने का एजेंडा जारी रहा और साथ ही उससे मिलने वाली टीआरपी हासिल करने का हथकंडा भी। मीडिया को यह राजनीतिक माहौल सूट कर रहा था, इसलिए वह हिंदुत्व की ख़ुराक़ बढ़ाता चला गया।
हिंदुत्ववादी राजनीति
यही वज़ह थी कि हिंदुत्ववादी राजनीति का हर मुद्दा और हर योद्धा न्यूज़ चैनलों पर छाने लगा। इसके विरोध में खड़े हर नेता, हर दल, हर व्यक्ति और संगठन पर मीडिया कोप बरसाने लगा, उन्हें खलनायक बनाने लगा। उसकी सामग्री में नफ़रत और हिंसा घुलती चली गई। टीआरपी का यह दूसरा फ़ॉर्मूला था। इसी ने जेएनयू गैंग, ख़ान मार्केट गैंग, देशद्रोही आदि जैसे जुमलों को भारतीय मानस पर चस्पाँ कर दिया। मुसलमानों को खलनायक बनाकर प्रस्तुत करना या पाकिस्तान पर नफ़रत के गोले बरसाना इसी फ़ॉर्मूले का हिस्सा है।
विभिन्न चैनलों के बीच इस समय टीआरपी का युद्ध इसीलिए गरमाया हुआ है कि वे जहाँ एक ओर इस तरह की पत्रकारिता के ज़रिए सत्ता में बैठे आकाओं को खुश करने में लगे हैं, वहीं इससे मिलने वाली टीआरपी को छीनना-झपटना उनका चरम उद्देश्य बना हुआ है। रिपब्लिक टीवी और टीवी 9 भारतवर्ष की कामयाबी ने उन चैनलों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित या विवश कर दिया है जो परदा रखते हुए हिंदुत्व का खेल खेल रहे थे।
ख़ास तौर पर रिपब्लिक टीवी की कामयाबी ने तमाम न्यूज़ चैनलों के लिए हिंदुत्ववाद का उग्र एजेंडा सेट कर दिया है। इसीलिए हम पाते हैं कि आजतक और दूसरे कई मध्यमार्गी समझे जाने वाले चैनलों की भाषा, तेवर और सामग्री सब कुछ बदल गया है। यहाँ तक कि अर्णब गोस्वामी की चीखने-चिल्लाने और ड्रामा करने वाली एंकरिंग की नकल करते हुए भी एंकरों को देखा जा सकता है।
न्यूज़ चैनलों में अतिवाद
टीआरपी का दबाव किसी भी ट्रेंड का पिच बढ़ाता रहता है। यानी चैनलों को अति की ओर धकेलता है, उन्हें भड़काऊ, नाटकीय और सनसनीखेज़ बनाता है। ऐसे में झूठ, अफ़वाह और अर्धसत्य का बोलबाला होना लाज़िमी है। न्यूज़ चैनलों में इसके दर्शन बख़ूबी हो रहे हैं। वे अतिवाद की ओर बढ़ते जा रहे हैं। तब्लीग़ी जमात से लेकर पालघर तक के मामलों में उनका ये अतिवाद हम देख ही रहे हैं।
माना जाता है कि हर ट्रेंड की एक उम्र होती है। वह चरम पर पहुँचकर विघटित होने लगता है। लोगों के सामने वह बेपर्दा होने लगता है और तब मोहभंग का दौर शुरू हो जाता है। क्या कभी मीडिया पर काबिज़ हिंदुत्व के साथ भी ऐसा होगा?
इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि हिंदुत्व भारतीय मीडिया के डीएनए में है। उसकी सामाजिक संरचना ऐसी है कि उससे आप धर्म निरपेक्ष होने की उम्मीद नहीं कर सकते। फिर हिंदू इस देश की पचासी फ़ीसदी आबादी हैं, जिसका मतलब है कि सबसे ज़्यादा उपभोक्ता हिंदू ही हैं और कोई भी विज्ञापनदाता इन्हें नाराज़ करके अपना उत्पाद प्रचारित नहीं कर सकता। उसे ऐसा मीडिया चाहिए जिसे हिंदू पसंद करते हों। स्वर्णाभूषण बनाने वाली टाटा की कंपनी तनिष्क के विज्ञापन का हश्र हमने हाल में देखा ही है। हमने यह भी देखा कि कैसे टाटा जैसा साम्राज्य भी बहुसंख्यकों के सामने घुटने टेक देता है।
इसलिए लाज़िमी है कि मीडिया हिंदू तीज-त्यौहारों को, उनकी मान्यताओं, धारणाओं को महिमामंडित करे उनको भरपूर कवरेज दे और उन समुदायों को अनदेखा करे जिन्हें हिदू या हिंदूवादी पसंद नहीं करते हैं। न्यूज़ चैनलों में इन हिंदू-तत्वों का अध्ययन किया जाए तो हम बाक़ायदा आँकड़ों के ज़रिए इसे आसानी से साबित भी कर सकते हैं।
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि नस्लवादी या बहुसंख्यकवादी राजनीति विश्वव्यापी परिघटना है। हम ग्लोबल गाँव में रह रहे हैं और इसलिए यहाँ रचे जा रहे राजनीतिक आख्यान को बाहर से खाद-पानी मिल रहा है। ये कार्पोरेट पोषित भी है और इसमें अब तो बहुसंख्यक समाज की बड़े पैमाने पर सहभागिता देखी जा रही है इसलिए ये दूसरे ट्रेंड के मुक़ाबले ज़्यादा दीर्घजीवी हो सकता है। ये मीडिया, लोकतंत्र और देश के लिए बहुत बुरी ख़बर है।
लेकिन हर व्यवस्था में उसके विनाश के बीज भी छिपे होते हैं, इसलिए मुमकिन है कि लोगों का इस राजनीति से भी मोहभंग हो जाए और हम जल्दी ही कंटेंट को अतिवादी हिंदुत्व से नीचे उतरता देखें। तब हमें टीआरपी का दूसरा पक्ष भी देखने को मिल सकता है।
(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)
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