पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाक़ों में भारत और चीन के बीच सैन्य तनातनी ख़त्म करने के लिये चीनी पक्ष शुरू में जिस तरह अपना रुख़ नरम करता हुआ दिखा वह अब चीन के अड़ियल रुख़ में बदलता हुआ दिख रहा है। अब तक के संकेत यही हैं कि भारत और चीन की सेनाओं के बीच वार्ता में भारी गतिरोध पैदा हो गया है और चीनी सेना ने संघर्ष के इलाक़ों से अपने सैनिकों को और पीछे हटाने से साफ़ इनकार कर दिया है। यही वजह है कि गत 17 जुलाई को लद्दाख दौरे में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को सैनिकों को सम्बोधित करते हुए यह कहना पड़ा कि बातचीत चल रही है लेकिन इसका क्या नतीजा निकलेगा वह इसकी गारंटी नहीं दे सकते।
पाँच दिनों बाद नई दिल्ली में वायुसेना के कमांडरों के छमाही सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए रक्षा मंत्री के इस बयान से भी साफ़ संकेत मिलता है कि भारत और चीन के आला सैन्य कमांडरों और राजनयिकों के बीच वार्ता टूट गई है। यही वजह है कि रक्षा मंत्री को 22 जुलाई को वायुसेना से कहना पड़ा कि अल्प नोटिस पर किसी भी वक़्त कार्रवाई करने को तैयार रहें। दोनों सेनाओं के स्थानीय कमांडरों के बीच पिछली वार्ता दस जुलाई को हुई थी जिसमें हुई सहमतियों को लागू करने से चीनी सेना मुकर रही है।
लेकिन क्या चीनी सेना को पीछे जाने के लिये मजबूर करने के लिये भारतीय सेना चीन के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करने पर विचार कर रही है या सीमांत इलाक़ों में भारतीय सेना चीनी सेना के समक्ष आमने-सामने की स्थिति में तैनात रहने को तैयार हो रही है। भारतीय सेना के सामने यही दो विकल्प हैं। अहम सवाल यही है कि चीनी सेना को पीछे धकेलने के लिये जिस स्तर की सैन्य कार्रवाई की ज़रूरत होगी क्या उसके लिये ज़रूरी संसाधन भारतीय सेनाओं के पास हैं?
यह बोलना आसान है कि हम एक-एक इंच ज़मीन की रक्षा करेंगे और अपनी एक इंच ज़मीन भी नहीं छोड़ेंगे लेकिन इसके लिये किस तरह की सैन्य कार्रवाई करनी होगी और उसका नतीजा क्या भारत के पक्ष में ही निकलेगा यह भारतीय रक्षा कर्णधारों के मन में कौंध रहा है।
भारत के सामने दो विकल्प हैं - या तो वह सीमित युद्ध के ज़रिये चीनी सेना को पीछे धकेल दे या फिर वहीं आमने-सामने की स्थिति में बैठी रहे। सर्दी का बर्फीला मौसम कुछ महीनों में शुरू होने वाला है और वहाँ तामपान शून्य से 10-20 डिग्री नीचे चला जाता है। उन दुर्गम पहाड़ी इलाक़ों में कई हज़ारों सैनिकों को कितने वक़्त तक तैनात रखा जा सकता है यह सवाल भारतीय रणनीतिकारों के मन में चल रहा है। उन चट्टानी इलाक़ों में जहाँ हज़ारों सैनिकों को पानी से लेकर चाय-नाश्ता-भोजन की सप्लाई करने की ज़रूरत पड़ेगी, भारतीय सैनिकों को वहाँ टिकाए रखने के लिये क्या उसकी आर्थिक क़ीमत हम चुकाने को तैयार हैं?
चीन को भौगोलिक लाभ
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़ चीनी सैनिक उन इलाक़ों में 40 हज़ार से भी अधिक संख्या में तैनात हैं। भारतीय सेना के भी पीछे के इलाक़ों में क़रीब बराबरी के स्तर पर तैनात होने की रिपोर्टें हैं। चीनी सेना को भारत की तुलना में भौगोलिक लाभ है। चीन की ओर का इलाक़ा पठारी है जहाँ वे समतल इलाक़ों पर रह सकते हैं लेकिन वास्तविक नियंत्रण रेखा का जो भारतीय इलाक़ा है वह ऊँची-नीची पहाड़ियों वाला है जहाँ अपने सैनिक साज-सामान और रसद की नियमित सप्लाई के साथ रहना अत्यधिक दुष्कर साबित होगा।
भारतीय सैनिक अधिकारी चीन के रवैये से उकता कर यह कहने लगे हैं कि हमें धैर्य के साथ लम्बे तनाव भरे दिनों के लिये तैयार होना होगा। यानी सीमांत इलाक़ों में जिस देश की सेना जहाँ तक अपने क़दम आगे बढ़ा चुकी है या पीछे हट चुकी है, वे दोनों वहीं आमने सामने तैनात रहेंगी और बातचीत के ज़रिये चीन पर दबाव बनाया जाएगा कि वह वास्तविक नियंत्रण रेखा तक लौट जाए। यानी पाँच मई से पहले की यथास्थिति बहाल करे।
जिस तरह वार्ता टेबल पर तनाव ख़त्म करने के प्रस्तावों को मानने की बात मान कर चीन मुकर रहा है उसके मद्देनज़र भारतीय सेना के समक्ष यही विकल्प बचता है कि वह सैनिक कार्रवाई कर चीनी सेना को पीछे जाने को मजबूर करे लेकिन क्या चीनी सेना को आसानी से पीछे धकेला जा सकता है? क्या ऐसा करने में भारतीय सेना सक्षम होगी?
चीनी सेना जिस तरह के हथियारों और अन्य सैन्य प्रणालियों के साथ वहाँ तैनात है, भारतीय सेना भी उतने ही संहारक हथियारों के साथ तैनात हो चुकी है। भारतीय लड़ाकू विमान और हेलीकॉप्टर सीमांत इलाक़ों में अपनी ताक़त का इज़हार कर रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि युद्ध होने पर क्या युद्ध पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाक़ों तक ही सीमित रहेगा? यदि यह युद्ध पूरे भारत चीन सीमांत इलाक़ों तक फैला तो इसमें चीन को भले ही भारी नुक़सान हो, भारतीय पक्ष को भी भारी तबाही के लिये तैयार होना होगा। चीन को भारतीय पक्ष में हो रहे इन आकलनों का पता है इसलिये उसे लग रहा है कि भारतीय रक्षा कर्णधार किसी सीमित सैन्य कार्रवाई के लिये अपनी मांसपेशियाँ तो दिखा रहे हैं लेकिन इसका इस्तेमाल करने को वे तैयार नहीं हैं।
अब तक की रिपोर्टों के मुताबिक़ चीनी सेना गलवान घाटी और गोगरा – हॉट स्प्रिंग के इलाक़ों से तो वास्तविक नियंत्रण रेखा तक पीछे लौट चुकी है लेकिन पैंगोंग त्सो झील और देपसांग के इलाक़े से वह पीछे हटने को तैयार नहीं। रिपोर्टों के मुताबिक़ चीनी सेना ने इन दोनों इलाक़ों को छोड़ने से साफ़ मना कर दिया है। पैंगोंग त्सो झील इलाक़े की फिंगर-4 चोटी से चीनी सेना कुछ पीछे हट कर फिंगर-5 तक चली गई है जबकि उसे आठ किलोमीटर पीछे फिंगर-8 तक वापस पुरानी स्थिति पर चले जाना चाहिये। इसी तरह देपसांग इलाक़े में भी भारतीय सेना जिस बिंदु तक रोज़ाना सैन्य गश्त करती रही है वहाँ चीनी सेना ने उन्हें ऐसा करने से रोका हुआ है। भारतीय सेना के लिये देपसांग की अधिक अहमियत इसलिये है कि वहाँ से पीछे हटने पर भारत हाल में बने 255 किलोमीटर लम्बा दौलतबेग ओल्डी रोड पर अपना नियंत्रण खो सकता है।
भारत के लिये यह लद्दाख के काफ़ी बड़े इलाक़े की रक्षा का सवाल है जिसे किस क़ीमत पर बचाया जाए यह सबसे बड़ा सवाल भारतीय सेना के सामने पैदा हो गया है।
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