निस्तेज विपक्ष!
पिछले कुछ सालों में संसद की भूमिका इतनी कमज़ोर शायद कभी नहीं रही होगी और न ही विपक्ष कभी इतना निस्तेज दिखायी पड़ा। इसके लिये विपक्ष ख़ुद भी ज़िम्मेदार है। विपक्ष बीजेपी की ताक़त से सामने इतना छितराया हुआ है कि संसद के बाहर वह कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर ले, हक़ीक़त यह है कि विपक्ष संसद में किसी भी सूरत में न तो एक दिखता है और न ही वह एक दिखने की कोशिश करता है।कमज़ोर निरीह विपक्ष के सामने अमित शाह ने बेहद हमलावर अंदाज में अपनी पीठ थपथपाई और यह अहसास कराया कि अगर वह न होते तो न जाने क्या होता।
क्या कहा गृह मंत्री ने?
अमित शाह ने तीन बातें कहीं। एक, दंगे पूर्वनियोजित थे। दो, पुलिस ने बहुत अच्छा काम किया। तीन, सरकार किसी को छोड़ेगी नहीं। उनके तर्क न केवल भोथरे हैं, बल्कि सचाई से भी कोसों दूर हैं।ख़ुफ़िया विभाग नाकाम
अमित शाह ने यह भी कहा है कि भारी संख्या में दिल्ली से बाहर यानी यूपी से लोग आये थे। दंगों में इनकी बड़ी भूमिका थी। दिल्ली की क़ानून-व्यवस्था सीधे अमित शाह के हाथ में है। यूपी में बीजेपी की सरकार है। योगी आदित्यनाथ कमज़ोर मुख्यमंत्री नहीं हैं, दबंग हैं। प्रशासन पर उनकी पकड़ है। तो क्या उनके ख़ुफ़िया विभाग को भी दंगे की साजिश की भनक नहीं लगी? क्या यह बात विश्वास के क़ाबिल है?अगर इंटेलीजेंस का यह हाल है तो फिर देश की राष्ट्रीय सुरक्षा मोदी सरकार या फिर बीजेपी सरकार के हाथ में कैसे सुरक्षित है? दंगे के इस पहलू पर अमित शाह ने कुछ नहीं कहा। क्यों? क्या उन्हें अपनी पोल खुलने का डर था?
कार्रवाई क्यों नहीं?
इसके उलट वह सोनिया गाँधी से लेकर वारिस पठान तक को दंगों का दोषी ठहराते रहे। अब सवाल यह है कि अगर इन लोगों के भड़काने से दंगा भड़का तो इनके ख़िलाफ़ उसी वक़्त कार्रवाई क्यो नहीं की गयी? बीजेपी का हर नेता आम आदमी पार्टी के नेता अमानतुल्ला के भड़काऊ भाषण का ज़िक्र करता है। जिस भाषण का ज़िक्र वे करते हैं, वह दिसंबर महीने का दिया हुआ है।हास्यास्पद, भयानक!
अमित शाह का दूसरा तर्क हास्यास्पद तो है ही साथ ही, एक भयानक सच से भी हमे रूबरू कराता है। दिल्ली दंगों के दौरान और बाद में एक बात पर सब एक राय थे कि पुलिस ने दंगा रोकने की कोई कोशिश नहीं की।कई वीडियो उपलब्ध हैं, जिनमें पुलिस वाले दंगाइयों के साथ खड़े दिखते हैं, कई में वे खुद पत्थर फेंकते नज़र आते हैं। एक समुदाय विशेष के दंगाई तो यह नारा लगाते भी देखे गये कि ‘ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है।’ तक़रीबन 48 घंटे तक वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रही।
नाकाम पुलिस
दंगा होते ही पुलिस को कर्फ़्यू लगाना था, नहीं लगाया। देखते ही दंगाईयों को गोली मारने के आदेश देने थे, नहीं दिये। दंगाइयों को रोकने के लिये अतिरिक्त पुलिस भेजनी थी, नहीं भेजी। पुलिस प्रशिक्षण में ये सारी बातें पहले दिन से ही सिखायी जाती है।अमित शाह को इस बात पर गर्व है कि पुलिस ने 36 घंटे में दंगे रोक लिये और ज़्यादा नहीं फैलने दिया। जिस बात पर पुलिस कमिश्नर को ‘सैक’ कर देना चाहिये, अगर उस पर उसकी पीठ ठोकी जाये तो समझ लेना चाहिये देश ‘पुलिस स्टेट’ की तरफ़ बढ़ रहा है और नागरिकों को संविधान द्वारा दिये अधिकारों का कोई अर्थ नहीं बचा।
क्या छिपा रही है सरकार?
अमित शाह ने मरने वालों का ब्योरा तो नहीं दिया। उल्टे कहा कि दंगाइयों को ऐसा सबक सिखाया जायेगा कि आगे के लिये नज़ीर साबित होगी। अगर ऐसा है तो वह ये क्यों नहीं बताते कि मरने वालों में दो तिहाई लोग मुसलिम समुदाय के हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक़, इलाक़े की कुल एक दर्ज़न से अधिक मसजिदों को नुक़सान पहुँचाया गया।जो सरकार संसद के अंदर और बाहर कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा के भड़काऊ बयानों को भड़काऊ मानने से इंकार करती है वह कैसे निष्पक्ष जाँच होने देगी? और क्या गारंटी है कि एक ख़ास तबके को निशाना नहीं बनाया जायेगा?
न्यायपालिका को भी नहीं बख़्शा
बीजेपी के सांसदों ने खुलेआम जजों की तीखी आलोचना की है। मीनाक्षी लेखी और संजय जायसवाल ने साफ़ इशारा किया कि क्या जज तय करेंगे कि दंगों में सरकार कब और कैसे काम करेगी?किसी ने चुपके से मुझे कहा है -
अंधेरा बहुत गहरा है। सूरज कहीं दूर छिप गया है।
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