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राजनीतिक पैंतरेबाज़ी में मोदी से आगे निकल गए केजरीवाल

अगर कोई यह पूछे कि भारत में सबसे ज़्यादा पैंतरेबाज़ राजनीतिज्ञ कौन है तो शायद कुछ लोग लालू यादव का नाम लें तो कुछ मायावती या फिर मुलायम सिंह यादव को भी याद कर सकते हैं। हालाँकि इन सबकी पैंतरेबाज़ी अब धरी की धरी रह गई है। कुछ एंटी मोदी कह सकते हैं कि आज पीएम नरेंद्र मोदी जैसा पैंतरेबाज़ कोई नहीं है लेकिन जिस नेता ने पैंतरेबाज़ी में सबको पीछे छोड़ दिया है, उसका नाम है अरविंद केजरीवाल। सोमवार को दिल्ली में दो आयोजन हुए। पहला आयोजन था सीवर में काम करने वाले सफाई कर्मचारियों में जागरूकता पैदा करने का जिसका उद्घाटन केजरीवाल ने किया। दूसरा आयोजन था आम आदमी पार्टी की प्रेस कांफ्रेंस का जिसे डिप्टी सीएम मनीष सिसोदया ने संबोधित किया। दोनों ही आयोजनों का एक ही उद्देश्य था और वह था किस तरह वोटरों को आकर्षित किया जाए। वह केजरीवाल जो दिल्ली नगर निगमों को इतना फंड भी नहीं दे कि सफ़ाई कर्मचारियों की सैलरी बाँटी जा सके, वही केजरीवाल अगर अपने आपको सफ़ाई कर्मचारियों का मसीहा बनाकर पेश करने की कोशिश करे तो फिर इसे पैंतरेबाज़ी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है।

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दूसरे आयोजन की बात करें तो फिर बात खुलकर सामने आ जाती है। प्रेस कांफ्रेंस में एलान किया गया कि दिल्ली में मैथिली और भोजपुरी को बढ़ावा देने के लिए आप सरकार हर संभव प्रयास करेगी। नवंबर में पाँच दिन का उत्सव मनाया जाएगा, ढाई लाख के ईनाम बाँटे जाएँगे और आठवीं से 12वीं क्लास तक मैथिली और भोजपुरी को एक भाषा के रूप में विषय पढ़ाया जाएगा। दिल्ली की सारी भाषाएँ एक तरफ़ और मैथिली-भोजपुरी दूसरी तरफ़। जिस दिन यह एलान होता है, उसी दिन यह ख़बर भी आती है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में उर्दू और पंजाबी टीचर्स के 60 फ़ीसदी से ज़्यादा पद खाली पड़े हैं और उन पर नियुक्तियाँ ही नहीं हो पा रही हैं। भाषाओं के प्रति जिस सरकार का यह रवैया हो, वह मैथिली और भोजपुरी के प्रति इतना मोह दिखाए तो फिर समझा जा सकता है कि माजरा क्या है। यह माना जाता है कि दिल्ली की 40 फ़ीसदी आबादी यूपी और बिहार से आए लोगों की है जिनके लिए मैथिली और भोजपुरी मातृभाषा है। उनकी भाषा के प्रति मोह दिखाकर सीधे-सीधे वोट बैंक की राजनीति की जा रही है। एक ही दिन सफ़ाई कर्मचारियों को बाँधने की कोशिश भी हो रही है और पूर्वांचल के लोगों को भी। क्या इससे ज़्यादा पैंतरा कभी किसी और राजनेता ने खेला है।

सच्चाई यह है कि जब से लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की हार हुई है, वे हर क़दम गुणा-भाग करके उठा रहे हैं। इस हार के बाद सबसे पहले केजरीवाल ने महिलाओं के वोट बटोरने के लिए मास्टर स्ट्रोक खेलने की कोशिश की। हालाँकि वह दाँव अभी चल नहीं पाया क्योंकि केंद्र सरकार मेट्रो की मुफ्त सवारी में काफ़ी अड़ंगे लगाए हुए है। इधर डीटीसी के अफ़सरों ने भी अकेले ही महिलाओं का बोझ उठाने से इनकार कर दिया है लेकिन केजरीवाल ने यह क़दम भी इसलिए उठाया कि महिलाओं में वाह-वाही बटोर लें और फिर उनके वोट आप की झोली में आ जाएँ। वोट खरीदने का उनका अनुभव किसी से छिपा नहीं है। ‘बिजली हाफ और पानी माफ’ के नारे के बल पर ही तो दिल्ली में 67 सीटें जीत पाए। दिल्ली के खजाने से कभी महिलाओं को मुफ्त सफर कराने का पैंतरा चलते हैं तो कभी बुजुर्गों के लिए श्रवण कुमार बनने की कोशिश करते हैं। जिस राज्य में बच्चों की मौत भुखमरी से हो जाए, उस राज्य में अगर तीर्थ यात्रा के नाम करोड़ों रुपए ख़र्च कर दिए जाएँ तो फिर सवाल उठेंगे ही।

क्या केजरीवाल ने बदली राजनीति की धारा?

दरअसल, केजरीवाल के इन पैंतरों पर इसलिए सवाल उठते हैं कि उन्होंने राजनीति की धारा को बदलने के वादे के साथ राजनीति में प्रवेश किया था। उन्होंने यह वादा भी किया था कि मैं दूसरे राजनीतिक दलों की तरह कभी भी धर्म, जाति, भाषा, राज्य या फिर वर्गों की राजनीति नहीं करूँगा। लोकसभा चुनावों के दौरान केजरीवाल के मुख से नकाब पूरी तरह उठ गया था। चुनावों से कुछ दिन पहले उन्होंने यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि बीजेपी ने दिल्ली में वैश्य समाज, पूर्वांचल और मुसलिम समुदाय के लोगों के वोट कटवा दिए हैं। हालाँकि सभी को पता है कि वोट काटने या जोड़ने का काम चुनाव आयोग का है लेकिन घर-घर फ़ोन करके कहा गया कि मोदी जी ने वोट कटवा दिए हैं और केजरीवाल जुड़वा रहे हैं। बहुत-से ऐसे लोगों को फ़ोन गया जिनके नाम कटे ही नहीं थे और बहुत-से ऐसे लोगों को भी फ़ोन गया जो इस संसार में भी नहीं हैं लेकिन कहा गया कि केजरीवाल ने उनका नाम जुड़वा दिया है। वह खेल था जातियों के नाम पर वोट बटोरने का। केजरीवाल का वह पैंतरा नहीं चला। और तो और, केजरीवाल ने वोटिंग के बाद ख़ुद मान लिया कि मुसलिम वोट कांग्रेस के पक्ष में चला गया है। इसके अलावा कांग्रेस के नंबर-दो पर आने से यह बात भी साबित हो गई कि अनुसूचित जातियों के वोट भी कांग्रेस की तरफ झुक गए हैं।

अब केजरीवाल को इन सभी वोटरों की चिंता हो रही है। वह सफ़ाई कर्मचारियों के मसीहा बनने की कोशिश कर रहे हैं और भोजपुरी-मैथिली भी उन्हें अब अपनी ही लगने लगी है।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कांग्रेस के राज में मुसलिम तुष्टिकरण की राजनीति हुई और अब बीजेपी हिंदूवाद की सहानुभूति के दम पर खड़ी है। केजरीवाल तो इन सभी का पर्दाफाश करने आए थे लेकिन असल में वह भी इस हमाम में नंगे हो गए हैं। चुनाव नज़दीक आ रहे हैं तो उन्हें हर वादे की याद आ रही है। सीसीटीवी भी अब चुनाव से पहले लागू हो रहा है और वाई-फाई भी उन्हें अब ही याद आ रहा है। बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा कराने की योजना दो साल तक सिर्फ़ इसलिए कागजों में घूमती रही कि चुनाव से पहले इसे लागू करके वोट बटोरने हैं। स्कूलों में जिस क्रांति का नारा लगाया गया, वह अब 25 लाख के एक कमरे के कारण संदेह के घेरे में है। जिन मोहल्ला क्लीनिकों को पूरे संसार में दिल्ली का मॉडल बताया जा रहा हो, वे पिछले चार सालों में कुल मिलाकर 191 ही खुल पाए हों और उनमें से भी सिर्फ़ 30 फ़ीसदी ही ठीक-ठाक काम कर रहे हों तो फिर एक हज़ार मोहल्ला क्लीनिकों के दावे की हवा निकलती ही नज़र आती है। दिल्ली में पाँच साल में एक भी बस डीटीसी के बेड़े में नहीं आई। हालत यह है कि आज दिल्ली में एक लाख लोगों के लिए सिर्फ़ 17 बसें हैं। ऐसे में केजरीवाल कहें कि हमने दिल्ली के लिए ट्रांसपोर्ट के लिए भी बड़ी योजना बना दी है तो हँसी आती है। 

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वोट बटोरने की ‘योजना’

जब मॉनसून आ गया तो यह योजना आई कि दिल्ली में यमुना में बाढ़ के पानी को रोकने के लिए तालाब बनाए जाएँगे यानी चुनावों से पहले पानी की समस्या को हल करने का भी एक नया पैंतरा फेंका गया है। बिजली की सब्सिडी के नाम पर पिछले पाँच सालों में दस हज़ार करोड़ रुपये और पानी की सब्सिडी के नाम पर पाँच हज़ार करोड़ से ज़्यादा की रक़म सरकारी खजाने से दे दी गई है। कभी एक हज़ार करोड़ महिलाओं की मुफ्त सवारी के नाम पर देने का एलान किया जाता है तो कभी बुजुर्गों की तीर्थ यात्रा के नाम पर। जो लोग वाक़ई ज़रूरतमंद हैं और उन्हें ऐसी मदद की ज़रूरत है तो सरकार उनकी मदद के लिए ज़रूर आगे आए। इससे किसी को ऐतराज़ भी नहीं होगा लेकिन सिर्फ़ वोट बटोरने के लिए कभी जाति, धर्म, वर्ग, राज्य भाषा की राजनीति खेली जाए तो फिर हर कोई उसे पैंतरेबाज़ी ही कहेगा। जब कोई व्यक्ति इन सबसे मुक्ति दिलाने के नाम पर राजनीति में आया हो और वह ऐसा छल करे तो फिर अफसोस भी होता है, गुस्सा भी आता है और निराशा भी होती है।

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दिलबर गोठी

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