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क्या यूपी में फिर कोई ब्राह्मण बन पायेगा मुख्यमंत्री?

यूपी में राजपूत और ब्राह्मणों के बीच राजनीतिक दुश्मनी किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ पर बार-बार ठाकुर राजनीति चलाने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस ने 2009 में 21 सीटें जीती थीं, जिनमें से 18 पूर्वी उत्तर प्रदेश से थीं जिसके सात ज़िलों में ब्राह्मण प्रभावी हैं और शायद इसीलिए प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव बनाया गया।
विजय त्रिवेदी

उत्तर प्रदेश की राजनीति में इन दिनों नारा चल रहा है – 2017 में राम लहर और 2022 में परशुराम लहर। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी इन दिनों यूपी में ब्राह्मणों को मनाने में लगी हैं। समाजवादी पार्टी ने भगवान परशुराम के नाम का सहारा लिया है तो अब बीएसपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अपना ब्राह्मण कार्ड खेल दिया है। बीएसपी ने 23 जुलाई से यूपी के 18 मंडलों में ब्राह्मण सम्मेलन करने का ऐलान किया है। इन सम्मेलनों की ज़िम्मेदारी पार्टी ने महासचिव सतीशचन्द्र मिश्र को सौंपी है और शुरुआत होगी अयोध्या से। बीजेपी में अभी ब्राह्मण बनाम ठाकुर राजनीति का विवाद चल रहा है।

मायावती ने कहा कि बीजेपी सरकार में ब्राह्मण दुखी हैं जबकि पिछले चुनाव में उन्होंने बीजेपी को एकतरफ़ा वोट दिया था। इस बार दलित ब्राह्मण फिर एक बार साथ आएँगे। कांग्रेस से बीजेपी में आए जितिन प्रसाद की वजह से हुए राजनीतिक हंगामे का कारण भी जितिन प्रसाद का ब्राह्मण होना है। वरना अपने पिता जितेन्द्र प्रसाद के निधन के बाद राजनीति में आए जितिन लगातार दो लोकसभा चुनाव और एक विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। 

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यूपी की राजनीति में ठाकुर बनाम ब्राह्मण का टेंशन तो चलता ही है, अभी यह माहौल बनाया गया कि यूपी के ब्राह्मण मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ठाकुर राजनीति से नाराज़ हैं। ख़ुद जितिन प्रसाद पिछले साल जुलाई से ब्राह्मण चेतना मंच बना कर योगी सरकार का विरोध कर रहे थे।

वैसे, योगी सरकार में एक उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के अलावा 8 ब्राह्मण मंत्री हैं। इनमें रीता बहुगुणा, ब्रजेश पाठक और श्रीकांत शर्मा जैसे नाम शामिल हैं। संभावित मंत्रिमंडल में भी कुछ नए ब्राह्मण नाम जुड़ सकते हैं।

यूपी का राजनीतिक इतिहास देखें तो इसे दो हिस्सों में बाँट सकते हैं 1950-1989 तक ब्राह्मण राजनीति और 1990-2017 मंडल के बाद दलित-पिछड़ा राजनीति रही। इस दौरान राज्य में पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री और पांच राजपूत मुख्यमंत्री रहे। 

आज़ादी के बाद से 1989 तक 39 साल में से 19 साल ब्राह्मण सीएम रहे, यदि इसे 1937 से शुरू करें तो 52 में से 32 साल ब्राह्मणों का राज रहा यानी 1937 से 1989 तक 62 फ़ीसदी वक़्त ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे।

फिर 1989 से 2017 तक दो मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह (1 साल 131 दिन और रामप्रकाश गुप्त (351 दिन) के अलावा 27 में 22 साल चार ओबीसी, दलित मुख्यमंत्री रहे। इनमें कल्याणसिंह (क़रीब साढ़े तीन साल), मुलायम सिंह क़रीब सात साल, मायावती क़रीब सात साल और अखिलेश यादव पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद साल 2017 से योगी आदित्यनाथ सीएम हैं।

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ब्राह्मण बीजेपी के साथ?

साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के बाद हुए सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक़ 2017 में 80 फ़ीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया, इससे पहले 2014 के आम चुनाव में 72 फ़ीसदी और 2019 में 82 फ़ीसदी ब्राह्मणों का वोट बीजेपी को मिला। जबकि 2007 में जब बीएसपी ने ब्राह्मणों के साथ नया तालमेल कर सरकार बनाई थी तब बीजेपी को 40 फ़ीसदी ब्राह्मणों के वोट मिले और 2012 में मुलायम सिंह के वक़्त 38 फ़ीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया।

1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले ज़्यादातर ब्राह्मण कांग्रेस के साथ रहते थे।

ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस बार यूपी की राजनीति बहुजन से ब्राह्मणों की तरफ़ जा रही है और प्रयाग से वाराणसी तक की गंगा यात्रा करने वाली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा से लेकर अखिलेश यादव और मायावती तक हर कोई ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश कर रहा है। विकास दुबे की हत्या ने इस राजनीति को हवा दी है। ग़ुस्से का एक बड़ा कारण कहा जा रहा है कि प्रदेश में पहले मुसलमानों के फर्जी एनकाउंटर होते थे, अब ब्राह्मण इसके शिकार हो रहे हैं।

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/प्रियंका गांधी

साल 2007 में जब बीएसपी ने सरकार बनाई तब उसे 206 सीटें मिलीं। उस वक़्त उसके 51 में से 20 ब्राह्मण उम्मीदवार विधानसभा पहुँचे थे। तब उसे तीस फ़ीसदी वोट मिले थे। 2012 में 51 में से सिर्फ़ 7 और 2017 में 52 में से सिर्फ़ 4 ब्राह्मण विधायक बने, और पार्टी सत्ता से बहुत दूर रही।

अब बीएसपी अकेली पार्टी है जिसके लोकसभा और राज्यसभा दोनों में नेता ब्राह्मण हैं। इसने लोकसभा में दानिश अली को हटा कर आम्बेडकर नगर से सांसद रितेश पांडे को नेता बनाया, जबकि सतीश मिश्रा राज्यसभा में नेता हैं।

बीजेपी ने साल 2019 के चुनावों में हिन्दी बेल्ट के 199 उम्मीदवारों में से जिन 37 ब्राह्मणों और 30 राजपूतों को टिकट दिया उनमें से 33 ब्राह्मण और 27 राजपूत लोकसभा पहुँच गए।
वीडियो चर्चा में सुनिए, प्रियंका गांधी के दौरे से कितनी ताक़त मिलेगी कांग्रेस को?

यूपी में राजपूत और ब्राह्मणों के बीच राजनीतिक दुश्मनी किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ पर बार-बार ठाकुर राजनीति चलाने का आरोप लगता रहा है। कांग्रेस ने 2009 में 21 सीटें जीती थीं, जिनमें से 18 पूर्वी उत्तर प्रदेश से थीं जिसके सात ज़िलों में ब्राह्मण प्रभावी हैं और शायद इसीलिए प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी महासचिव बनाया गया।

ब्राह्मणों और सवर्णों को खुश करने के लिए बीजेपी ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण में कमजोर आर्थिक लोगों के लिए 10 फ़ीसदी जगह दे दी। कांग्रेस और बीएसपी ने भी इस संवैधानिक संशोधन का समर्थन किया था लेकिन सवर्णों ने माना कि यह बीजेपी की वजह से मुमकिन हो पाया।

विचार से ख़ास

कांग्रेस ने 2007 में रीता बहुगुणा को ब्राह्मण चेहरे के नाम पर पार्टी का यूपी अध्यक्ष बनाया साल 2012 तक, लेकिन वो 2016 के अक्टूबर में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गईं। साल 2017 के चुनावों से पहले कांग्रेस ने दिल्ली की तीन बार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को भी ब्राह्मण चेहरा होने की वजह से मुख्यंमत्री पद का उम्मीदवार बनाने की कोशिश की, लेकिन फिर चुनावों के बीच में ही कांग्रेस को राहुल और अखिलेश का साथ पसंद आ गया और अखिलेश चेहरा बन गए।

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कांग्रेस के सबसे ताक़तवर मुख्यमंत्रियों में से एक यूपी में कमलापति त्रिपाठी 1971 से 1973 तक रहे, फिर उनके ख़िलाफ़ बग़ावत करके हेमवती नंदन बहुगुणा 1973 से 1975 तक सीएम रहे और जब संजय गांधी से नाराज़गी के कारण उन्हें हटना पड़ा तो इमरजेंसी के वक़्त तीसरे ब्राह्मण नारायण दत्त तिवारी बने। तीसरी और अख़िरी बार तिवारी को जून 1988 से दिसम्बर 1989 तक मुख्यमंत्री बनाया गया। तिवारी को तो कांग्रेस ने फिर से 2002 से 2007 तक उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया।

फ़िलहाल यूपी में ब्राह्मण सीएम की संभावना तो नहीं है, लेकिन वे चाहते हैं कि उन्हें सम्मान तो मिलना चाहिए।

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