कुछ समय पहले एक फ़िल्म आई थी – ‘हेराफेरी’। परेश रावल, अक्षय कुमार और दूसरे कलाकारों के साथ। उस फ़िल्म की सबसे ख़ास बात यह थी कि हर नया सीन, हर नया डॉयलाग और हर बार एंट्री करता नया कलाकार, एक नया कन्फ्यूजन पैदा करता था। इस सुपर हिट फ़िल्म की याद मुझे आज 68 दिनों के लॉकडाउन खुलने के बाद हुए अनलॉक के पहले दिन आ रही है। देश भर में कुल मिलाकर हर जगह फ़िल्म ‘हेराफेरी’ जैसा सीन महसूस किया जा सकता है, ख़ासतौर से उत्तर भारत के राज्यों में और सरकारों के स्तर पर। लगता है मानो राज्य सरकारों, मुख्यमंत्रियों और केन्द्र सरकार के बीच कोई कॉम्प्टीशन चल रहा है, कन्फ्यूजन पैदा करने को लेकर।
लॉकडाउन-4 जब 31 मई को ख़त्म होना तय सा था तब भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने शाम तक कोई तसवीर साफ़ नहीं की थी। फिर सिलसिला शुरू हुआ केन्द्र से लेकर डीएम तक। केन्द्र सरकार ने मुख्यमंत्रियों पर छोड़ दिया कि वे तय करेंगे किस तरह अनलॉक किया जाए और मुख्यमंत्रियों ने बहुत सी जगहों पर इसकी ज़िम्मेदारी डीएम यानी ज़िला प्रशासन पर छोड़ दी। सत्ता या प्रशासन का विकेन्द्रीकरण नहीं था, यह तो ज़िम्मेदारियों को एक-दूसरे पर टालने की रणनीति जैसी रही है। इसलिए आज सवेरे से ही कई राज्यों और ख़ासतौर से राज्यों की सीमाओं पर बहुत परेशानियों का सामना आम आदमी को करना पड़ा है।
हरियाणा सरकार दिल्ली से जुड़े ज़िलों यानी फरीदाबाद, गुरुग्राम में अपनी सीमाएँ नहीं खोलना चाहती क्योंकि हरियाणा में बीजेपी सरकार को लगता है कि दिल्ली में बैठी आप की सरकार के कोरोना के मरीज़ वहाँ पहुँच कर हालात ख़राब कर रहे हैं। यही हाल दिल्ली से जुड़े यूपी के गाज़ियाबाद और नोएडा ज़िलों का रहा जहाँ सवेरे से ही गाड़ियों की लंबी कतारें लगने लगीं क्योंकि नोएडा के डीएम साहब को लगता है कि दिल्ली से ही सारे कोरोना मरीज़ नोएडा में घुस रहे हैं। नोएडा डीएम साहब की चिंता तो इसलिए भी समझ आती है कि उनसे पहले उस कुर्सी पर बैठे अफ़सर को सीएम योगी की डाँट से कुर्सी छोड़नी पड़ी थी तो वो दूध छोड़िए छाछ को भी फूँक फूँक कर पीना चाहते हैं।
अभी यह संकट टला भी नहीं था कि पड़ोसी राज्यों से इस मसले को अपनी किरकिरी समझने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री ने दोपहर में दिल्ली के सारे बॉर्डर सील करने का एलान कर दिया। वैसे तीनों राज्यों में सरकारों ने अपने-अपने सरकारी दफ्तर, प्राइवेट दफ्तर और उद्योग, कंपनियों के दफ्तर खोल दिए हैं। दिल्ली सरकार इस मामले में सबसे सयानी है। उन्होंने बॉर्डर एक हफ्ते के लिए सील करने के बाद दिल्ली की जनता से राय माँगी है कि क्या बॉर्डर सील रखे जाने चाहिए यानी आपकी राय के बिना भी एक हफ्ते तो दिल्ली में बाहर से आवाजाही बंद रहेगी ही। अंतरराज्यीय बस सेवाओं को लेकर फ़िलहाल तसवीर साफ़ नहीं है।
एक ज़माने पहले देश की राजधानी दिल्ली पर आबादी और उद्योंगों के बोझ को कम करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी सीमा क्षेत्र बनाया गया था। इसका विकास का प्लान भी यह सोचकर बनाया गया कि इससे दिल्ली का बोझ कम होने के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों के शहर भी विकसित होंगे।
आज गुड़गाँव, फरीदाबाद, नोएडा, गाज़ियाबाद और मेरठ तक से लाखों लोग दिल्ली में कामकाज और व्यवसाय के लिए सफ़र करते हैं। दिल्ली से भी लाखों लोग इन इलाक़ों में हर सवेरे जाते हैं क्योंकि अब बहुत-सी कंपनियों के ऑफ़िस इन इलाक़ों में हैं।
मुझे लगता है कि इसकी जानकारी तीनों राज्य सरकारों को भी होगी। यूपी सरकार ने अपने दफ्तरों में 100 फ़ीसदी कर्मचारियों के लिए इजाज़त दे दी है। दिल्ली में भी बाज़ार, उद्योग और कंपनियों के साथ सरकारी दफ्तर खुल गए हैं। तीनों सरकारें जानती हैं कि दिल्ली में काम करने वाली एक बड़ी आबादी इस वक़्त गाज़ियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद और गुरुग्राम में रहती है तो यदि इन इलाक़ों में बॉर्डर सील कर दिए जाएँगे तो लोगों का आना जाना कैसे होगा और सरकारी पास के आधार पर देख कर यदि एंट्री दी जाने लगी तो फिर अनलॉक का मतलब ही बेमायने हो जाएगा और हर सीमा पर लंबा जाम मिलेगा। तो क्यों नहीं तीनों राज्यों की सरकारें या प्रशासन बैठकर इस का रास्ता नहीं निकालतीं? या फिर यह राजनीतिक नाक का सवाल बन गया है क्योंकि यूपी और हरियाणा में बीजेपी की सरकारें हैं और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की।
प्रवासी मज़दूरों पर राजनीति
इससे पहले कांग्रेस ने प्रवासी मज़दूरों को भेजने के लिए जिन बसों का इंतज़ाम करने की बात की थी उससे मज़दूरों का तो कोई फ़ायदा नहीं हुआ, अलबत्ता कांग्रेस और बीजेपी के बीच की राजनीतिक रस्साकशी ज़रूर सामने आ गई। प्रवासी मज़दूरों को लेकर चलाई गई स्पेशल रेलगाड़ियों को लेकर भी राज्य सरकारों और रेल मंत्रालय के बीच हास्यास्पद राजनीति होती रही। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने इलाक़े में ट्रेन मंगाना नहीं चाहतीं और रेल मंत्रालय अपनी काबिलियत बताने के लिए रात को दो बजे तक ट्वीट करने के लिए जाग रहा है। यह अलग बात है कि हज़ारों हज़ार मज़दूर सड़कों पर निकले हुए थे, अपनी कोशिशों से अपने घर पहुँचने में लगे थे, उस पर किसी सरकार ने वक़्त रहते ध्यान नहीं दिया।
यदि इन प्रवासी श्रमिकों को कोरोना संकट के दौरान यहीं रहने के लिए किराया और भोजन दे दिया जाता तो शायद वो अपने गाँव नहीं लौटते लेकिन किसी सरकार ने हिम्मत नहीं दिखाई कि वह यह पूछे कि जिन उद्योगों में ये प्रवासी श्रमिक काम कर रहे थे, उन्होंने इन श्रमिकों के लिए क्या किया।
राजस्थान से मेरे एक मित्र ने बताया कि श्रमिकों को घर भेजने का दबाव ज़्यादातर उद्योग मालिकों की तरफ़ से था और वे सरकारों पर उन्हें अपने घर भेजने के लिए ज़ोर दे रहे थे ताकि उन्हें कामगारों को दो-तीन महीने की तनख्वाह नहीं देनी पड़े और उनके लिए कोई इंतज़ाम नहीं करना पड़े। यह किसी हद तक सच भी हो सकता है क्योंकि जिनके पास रोज़गार बच गया होता वो तो अपने गाँव या घर नहीं लौटेंगे।
अपनी राय बतायें