"योगी सरकार डरपोक और अलोकतांत्रिक है!" बीते शनिवार को यह कहकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा ने एक बार फिर बीजेपी की प्रदेश सरकार को ललकारा। उन्हीं के निर्देश पर इस दिन वाराणसी के कांग्रेस नेता अजय राय ने पुलिस के साथ झड़प में अपने सहयोगियों सहित गिरफ्तारी दी।
यूपी में पिछले 10-11 महीनों में प्रियंका गांधी की सक्रियता जिस तरह से बढ़ रही है, उससे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बीजेपी आलाकमान बेहद उत्साहित हैं लेकिन समाजवादी पार्टी (एसपी) और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) इससे बुरी तरह डरे हुए दिखते हैं। यही वजह है कि पहली बार इन तीनों दलों में बीजेपी विरोध की 'एका' की भावना का पूर्णतः लोप दिख रहा है।
लोकसभा चुनाव 2019 में मिली करारी हार के तत्काल बाद ही प्रियंका गांधी ने योगी विरोध की पताका उठाकर यूपी में अलख जगाने का काम शुरू कर दिया था।
लोकसभा चुनाव के 2 माह बाद ही प्रियंका मिर्ज़ापुर जा धमकीं। एक स्थानीय ग्राम प्रधान द्वारा सोनभद्र में ज़मीन पर क़ब्ज़े की लड़ाई में 10 आदिवासियों की हत्या के बाद, 19 जुलाई को वह उनके परिजनों से मिलने जब सोनभद्र जा रहीं थीं तो प्रशासन ने उन्हें बीच रास्ते में मिर्ज़ापुर में ही रोक लिया था। सारी रात उन्हें मिर्ज़ापुर के चुनार डाक बंगले में रोक कर रखा गया था।
इसी तरह लखनऊ में सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) का विरोध करने पर हुई गिरफ्तारियों को प्रियंका ने "अमानुषिक" बताया। वह महिला कार्यकर्ता सदफ ज़फर और रिटायर्ड पुलिस अधिकारी एस.आर. दारापुरी के आवास पर जाकर उनके परिजनों से भी मिलीं।
इसी दौरान सीएए का विरोध करने के कारण पुलिस की गोली से हताहत हुए युवकों के परिजनों से भी वह बिजनौर और मेरठ में मिलीं। फ़रवरी, 2020 में आज़मगढ़ के पार्क में सीएए को लेकर धरना दे रही महिलाओं पर हुए पुलिसिया 'दमन' के विरोध में भी प्रियंका उनसे जाकर मिलीं और हमदर्दी जताई। ग़ौरतलब है कि आज़मगढ़ एसपी नेता अखिलेश यादव का लोकसभा क्षेत्र है लेकिन वह वहाँ नहीं गए थे।
बसें लगाकर दिखाई सक्रियता
लॉकडाउन काल में यूपी के प्रवासी मज़दूरों को अन्य राज्यों से अपने प्रदेश में लाने से योगी को मिली वाहवाही में भी प्रियंका ने अच्छे से 'डेंट' लगा दिया। उन्होंने 1000 बसों को प्रदेश के बॉर्डर पर खड़ा कर योगी सरकार को कागज़-पत्तर की ‘हाँ-ना’ में बुरी तरह उलझा दिया। यद्यपि बसें उत्तर प्रदेश की सीमा के भीतर दाखिल नहीं हो पाईं लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति में सुषुप्तावस्था में पड़े अखिलेश और मायावती की तुलना में उनकी एक 'सक्रिय' राजनेता की तसवीर उभरी।
उत्तर प्रदेश के नौजवान शिक्षा जगत के ताज़ातरीन घोटाले को लेकर उनके अगले कदम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रियंका ने इसे "यूपी का व्यापमं घोटाला" बताया है।
योगी से बीजेपी विधायक नाराज़!
इसमें कोई शक नहीं कि सीएए विरोध को जिस तरह उत्तर प्रदेश में 'ठिकाने' लगाया गया है, उससे आलाकमान की निगाहों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी गिरती साख को सुधारा है, अन्यथा यह आम अवधारणा थी कि प्रदेश के 200 से ज़्यादा बीजेपी विधायक मुख्यमंत्री से "सख्त नाराज़" हैं और वे लगातार मुख्यमंत्री विरोध में पार्टी आलाकमान के 'कान खा' रहे थे।
कोरोना काल में भी बेशक 'पब्लिक हेल्थ सिस्टम' की चाहे जितनी पोल खुली हो लेकिन मुख्यमंत्री योगी तक़दीर वाले थे जो कोविड पॉज़िटिव मरीज़ों का आंकड़ा अभी तक महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली और तमिलनाडु जैसे भयावह स्तर तक नहीं पहुंचा है।
इस सबके बावजूद मुख्यमंत्री जानते हैं कि आखिरकर कोरोना कभी न कभी तो थमेगा ही। उनके आजू-बाजू वाले नौकरशाह उन्हें दिसम्बर तक पूरे तौर पर इससे मुक्त हो जाने की सांत्वना दिला रहे हैं। वह जानते हैं कि यह सब शांत होते ही भीतर दबा पार्टी कार्यकर्ताओं का असंतोष ऊपरी सतह पर आ जायेगा। उनके अत्यंत निकट के सहयोगियों को छोड़कर शायद ही कोई सांसद, कोई विधायक, कोई जिला परिषद प्रमुख और कोई मेयर ऐसा हो जिसने यह शिकायत नहीं की हो कि अधिकारी न उनकी सुनते हैं न उनका कोई काम करते हैं।
बीजेपी, एसपी-बीएसपी निजाम के 'यादववाद'- 'जाटववाद' के विरुद्ध सालों से नारा लगाती रही है। सत्ता में आने पर उसने तमाम केंद्रीय पदों पर सवर्णों को बैठाया।
25 जून, 2019 को सूचना के अधिकार के तहत सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर को दिए गए जवाब में माना गया कि अकेले लखनऊ ज़िले के 43 पुलिस थानों में थानेदार के 60% पदों पर ठाकुर (14) और ब्राह्मण (11), ओबीसी 20% (9) तथा अनुसूचित जाति के 18% (8), सामान्य मुसलिम 1 पद पर और पिछड़ा मुसलिम 1 पद पर तैनात हैं।
यह शासनादेश का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन तो है ही, स्वयं बीजेपी के सुनहरे सपनों का विरोध भी है। इस आंकड़े को प्रदेश के अन्य ज़िलों के अन्य थानों पर भी बिना किसी लम्बी-चौड़ी 'नाप-तौल' के लागू किया जा सकता है।
'बाभन-ठाकुर' पर मेहरबान सरकार
सरकार में आते ही पदों की छंटाई शुरू कर और सवर्ण नियुक्तियों का 'मार्ग प्रशस्त' करने के जुगाड़ ढूंढे जाने लगे। अपनी नियुक्ति के तत्काल बाद योगी सरकार ने 'लॉ अफ़सर' के छोटे-बड़े 312 पदों में से 152 पर ब्राह्मणों की नियुक्ति की और कुल पदों के 90% पर सवर्णों को बैठाया। इसी तरह जहां-जहां संभव हुआ, योगी सरकार 'बाभन-ठाकुर' को बैठाती दिखी। ज़ाहिर है इससे वे पिछड़े, अति पिछड़े और ग़ैर जाटव दलित भड़भड़ाये जिन्हें 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी अपने बाड़े में हांक लाई थी। उप मुख्यमंत्री से लेकर अनेक पिछड़े, दलित मंत्रियों ने बवाल काटा जो अभी भी चल रहा है।
आगे चलकर शिखर पर पहुँचने वाली सवर्ण गंगा और केंद्रित हुई। अब बेशक लखनऊ पुलिस प्रमुख और अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद पर ब्राह्मण अधिकारी हैं लेकिन बहुत सारे प्रमुख पदों पर छांट-छांट कर ‘बाबू साहबों’ की नियुक्तियाँ हुईं।
इस हड़बड़ी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उप लोकायुक्त से लेकर दूसरे अनेक शीर्ष स्थानों, स्थापित संस्थानों और पदों पर तो धड़ल्ले से ठाकुरों की नियुक्तियां की ही गयीं, 'अटल बिहारी वाजपेयी मेडिकल यूनिवर्सिटी', जिसकी स्थापना का विचार अभी कागज़ों तक सीमित था, वहां भी वीसी पद पर 'बाबू साहब' की नियुक्ति हो गयी। इन सब वजहों से न सिर्फ बीजेपी नेता और कार्यकर्ता क्षुब्ध हैं, बल्कि पूरे प्रदेश के उन ब्राह्मणों में (जो उसका सॉलिड वोटर था) यह संदेश गया कि सरकार उनकी नहीं है।
'सामाजिक न्याय समिति' का गठन
सन् 2000 में, अपने मुख्यमंत्रित्व काल में राजनाथ सिंह ने 'सामाजिक न्याय समिति' का गठन किया था ताकि ओबीसी में आरक्षण के बंटवारे को नए सिरे से आयोजित किया जा सके। वे मूलतः यादवों और लोधों पर 'हल्ला बोलना' चाहते थे। 2002 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इसकी सिफारिशों को लागू कर दिया गया लेकिन हाई कोर्ट ने स्थगन दे दिया और मामला खटाई में पड़ गया।
योगी सरकार के गठन के साथ ही उक्त 'समिति' को पुनर्गठित किया गया। रिपोर्ट सरकार के पास आ चुकी है और ऐसा माना जा रहा है कि इस 'समिति' ने क्रीमी लेयर में यादव और लोधों के साथ कुर्मियों को भी शामिल किया है और यह बीजेपी के लिए बड़ा सिरदर्द है क्योंकि प्रदेश के 8-9 ज़िलों में कुर्मी उनका बहुत बड़ा वोट बैंक हैं और उनके आधा दर्जन से ज़्यादा सांसद इसी जाति से आते हैं।
फ़िलहाल, पहले सीएए और फिर कोरोना संकट के चलते योगी जी समिति की रिपोर्ट पर कुंडली मार कर बैठे हैं लेकिन वह जानते हैं कि पिछड़ों और अति पिछड़ों की ज़बरदस्त मांग के चलते उन्हें चुनाव से पहले इसे लागू करना ही पड़ेगा।
यही स्थति उन ग़ैर-जाटव दलितों की है जो बीजेपी को 'पीर-पैग़म्बर' मानकर उसके पीछे हो लिए थे। न तो सरकारी पदों पर उनकी पूछ हुई, न टिकट बंटवारे में उनकी तादाद के मुताबिक़ उन्हें जगह मिल सकी। अब वे भी अपना 'हिसाब' मांगते हैं।
योगी के पास दिल्ली विधानसभा चुनाव से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तक चुनावी हार की लम्बी लिस्ट है, इसीलिये वह कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते और विपक्ष के वोट प्रतिशत को तहस-नहस कर डालना चाहते हैं।
2007 के विधानसभा चुनाव में 206 सीटों पर विजयी होकर सत्ता के दरवाज़े तक पहुँचने वाली बीएसपी का वोट प्रतिशत 30 था। इसी तरह 2012 में एसपी ने 224 सीटें जीत कर 29% वोट हासिल किए थे। योगी जानते हैं कि दोनों स्थितियों में ये दल अपने मूल प्रतिशत से 7-8 प्रतिशत ज़्यादा वोट लाये थे।
पीसीसी प्रमुख लल्लू को बनाया हीरो
बस इसी 7-8 प्रतिशत को वह एसपी/बीएसपी की जगह कांग्रेस की झोली में जाते देखना चाहते हैं। यही वजह है कि प्रियंका की पसंद के पीसीसी प्रमुख लल्लू को को वह ‘बेमतलब’ 3 हफ्ते से जेल में डाले हुए हैं ताकि छूटने के बाद वह भी पिछड़ों की छोटी-मोटी ‘हीरोशिप’ के हक़दार हो जाएं। उन्हें क़तई मंज़ूर नहीं कि उनके अंगने में एसपी या बीएसपी का कोई नर्तक आकर अपनी प्रदर्शन कला दिखाए। वैसे भी पिछले साल भर से ये दोनों पार्टियां ट्विटर कला में ही ज़ोर आज़माइश कर रही हैं।
प्रदेश में होने वाला छोटा या बड़ा कोई भी प्रदर्शन फ़िलहाल कांग्रेस के ही नाम है। यही वजह है कि अपने अंगने में मुख्यमंत्री योगी या बीजेपी को सिर्फ़ प्रियंका का आना ही सुहाता है। वे मानते हैं कि कांग्रेस के उभार का अर्थ है - बीजेपी की सत्ता में वापसी की श्योर-शॉट गारंटी। एसपी और बीएसपी अलबत्ता ज़रूर चिंतित हैं और कांग्रेस के उभार में वे अपनी हार देखते हैं।
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