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कोविड-19 से गुजरात में दरक रही है बीजेपी की ज़मीन?

प्राचीनकाल से गुजरात उद्योग का बड़ा केंद्र रहा है। प्राचीन काल से ही गुजरात से विदेश व्यापार होता रहा है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद गुजरात को एक औद्योगिक राज्य के रूप में विकसित किया गया। महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में जहाँ कुछ ज़िलों में औद्योगिक क्लस्टर बने हुए हैं, वहीं गुजरात का हर ज़िला औद्योगिक शहर है, जो किसी न किसी उद्योग के लिए जाना जाता है। न सिर्फ़ भारत में, बल्कि विदेश में बड़े पैमाने पर गुजरात से क़ारोबार होता है। गुजरात से विदेश में विस्थापन भी बड़े पैमाने पर हुआ है और विकसित देशों में गुजराती समुदाय बड़े पैमाने पर हैं। ऐसे में कोविड-19 के प्रसार की संभावना गुजरात में बहुत ज़्यादा है। हालाँकि अभी तक के संक्रमितों और मौतों के आँकड़ों में गुजरात तीसरे स्थान पर दिखाया जा रहा है। साथ ही अब यह भी चिंता सताने लगी है कि विस्थापित श्रमिकों के राज्य छोड़ने के बाद क्या गुजरात में क़ारोबार पूरे दमखम के साथ पटरी पर आ सकेगा?

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देशबंदी और गुजरात

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 मार्च से 21 दिन की देशबंदी की घोषणा कर दी। महाभारत का उद्धरण देकर कहा कि 18 दिन में महाभारत का युद्ध ख़त्म हो गया था, 21 दिन में कोरोना ख़त्म हो जाएगा। बीच बीच में थाली बजाकर, बत्ती बुझवाकर देश की जनता का मनोरंजन भी कराते रहे। लेकिन 21 दिन पूरा होते-होते सरकार को साफ़ हो गया कि देशबंदी से भारत में कोरोना नहीं रोका जा सकता है। इसकी बड़ी वजह यह है कि औद्योगिक शहरों में दो कमरे में पूरा परिवार रहते हैं और कहीं-कहीं तो एक ही बड़े कमरे में दर्जन भर मज़दूर रहते हैं जो काम की शिफ्ट के मुताबिक़ सोते हैं। इसके अलावा देशबंदी के पहले दिन से ही भगदड़ मच गई और लाखों की संख्या में भूखे मज़दूर अपने गाँवों की ओर चल पड़े।

गुजरात के औद्योगिक शहर सूरत में दंगे जैसी स्थिति पैदा हो गई और ख़ासकर सूरत और अहमदाबाद में मज़दूर घर जाने के लिए आंदोलन पर उतर आए। सरकार को भी साफ़ हो गया कि अगर मज़दूरों को औद्योगिक क्लस्टरों से न हटाया गया तो ये कोरोना बम बन जाएँगे, क्योंकि ऐसे इलाक़ों में शारीरिक दूरी बनाए रख पाना संभव नहीं है। साथ ही उनके खानपान का प्रबंधन भी नहीं किया जा सकता है। सरकार ने रेल चलाकर श्रमिकों को उनके घर पहुँचाने की घोषणा की। अन्य राज्यों में जहाँ भगदड़ मची रही, सरकार ने बड़ी चालाकी से गुजरात के विभिन्न मेगा औद्योगिक क्लस्टरों से मज़दूरों को निकाल दिया। 22 मई 2020 तक सिर्फ़ उत्तर प्रदेश के लिए 507 ट्रेनें गईं, जिनमें क़रीब सात लाख दस हज़ार लोग गुजरात के अलग-अलग ज़िलों से उत्तर प्रदेश पहुँच गए। 

उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, ओडिशा सहित अन्य राज्यों के लिए भी ट्रेनें चलाई गई हैं, जिसके ज़रिये बड़े पैमाने पर गुजरात को खाली कराया गया, जिससे भीड़ वाले इलाक़ों में आंशिक सोशल डिस्टेंसिंग बहाल की जा सके।

वहीं महाराष्ट्र के मुंबई, तमिलनाडु के चेन्नई और दिल्ली से बहुत कम या नहीं के बराबर स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं। मुंबई से ट्रेन चलाने में इतनी अफरातफरी हुई कि ट्रेन में ही मज़दूरों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया। रेलवे के मुताबिक़ करीब 80 ट्रेनों का रूट डायवर्जन किया गया, जबकि इस समय सामान्य ट्रेन नहीं चल रही हैं और सभी रूट खाली हैं। वहीं गुजरात से चली ट्रेनों में न तो कोई रूट डायवर्जन हुआ, न ही कोई ट्रेन भटककर दूसरे राज्य में पहुँची। देश के सबसे सघन औद्योगिक क्षेत्र मुंबई से मज़दूरों को निकालने के लिए आज तक कोई गंभीर कवायद नहीं की गई, जिससे यथासंभव शारीरिक दूरी बनाई जा सके। इसका नतीजा यह हुआ है कि मुंबई शहर में सबसे ज़्यादा मौतें हो रही हैं।

गुजरात की राजनीति

गुजरात के उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल ने 29 फ़रवरी को अहमदाबाद में उमिया देवी की सबसे बड़ी मूर्ति स्थापित करने लिए शिलान्यास किया। इस शिलान्यास कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश में कुर्मी समुदाय की बड़ी नेता अनुप्रिया पटेल भी शामिल हुईं। ऐसा माना जाता है कि कडवा पाटीदार उमिया देवी के वंशज हैं। इस शिलान्यास के मौक़े पर नितिन पटेल ने कहा कि हर कोई जानता है कि आज मैं जो कुछ भी हूँ, माँ उमिया देवी के आशीर्वाद से हूँ। नितिन के इस भाषण को उनका दर्द माना गया। कांग्रेस के एक नेता ने पेशकश भी कर डाली कि वह 15 विधायक लेकर बीजेपी से अलग हों और हम मुख्यमंत्री बनने में उनका समर्थन करेंगे

इससे संकेत मिलते हैं कि राज्य की राजनीति में सब कुछ सही नहीं चल रहा है। राज्य के विधानसभा चुनाव के पहले व्यापक रूप से चले पाटीदार अमानत आंदोलन ने बीजेपी की स्थिति ख़राब कर दी थी। 

प्रधानमंत्री के धुआंधार प्रचार, भारी निवेश और शहरी इलाक़ों में आरएसएस की पकड़ ने बीजेपी को चुनाव जिताने में मदद की थी। वहीं कांग्रेस में शामिल हो चुके आरक्षण आंदोलन के प्रमुख हार्दिक पटेल की उम्र चुनाव लड़ने योग्य भी नहीं थी। इस साल के अंत में गुजरात में स्थानीय चुनाव होने जा रहे हैं। पटेलों की नाराज़गी और कोविड से उपजा संकट स्थानीय निकाय चुनाव में अहम मसला बनने जा रहा है, जिसे गुजरात विधानसभा चुनाव के एक दिवसीय मैच के पहले का ट्वंटी-20 माना जा रहा है। गुजरात सरकार इसे देखते हुए जातीय समीकरण बिठाने में जुट गई है।

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औद्योगिक चिंता

गुजरात में हीरे की तराशी हो, या कपड़ा उद्योग या तमाम तरह के एमएसएमई का काम। दूसरे राज्यों से आए विस्थापित मज़दूरों पर सारा दारोमदार होता है। गुजरात से बड़े पैमाने पर इन सस्ते मज़दूरों को निकाल दिया गया है, जो विभिन्न राज्यों से आए थे। ऐसे में अब यह चिंता स्वाभाविक रूप से उठ रही है कि काम किस तरह से शुरू कराया जाए, जब श्रमिक ही नहीं हैं। ऐसे श्रमिकों को भले ही अकुशल या अर्धकुशल श्रमिक कहकर कम भुगतान दिया जाता है, लेकिन चाहे हीरे की तलाशी का मसला हो, या सिर पर ईंट रखकर चलने और गिट्टी-बालू-सीमेंट मिलाने का काम, श्रमिकों के अलावा कोई भी कुशल व्यक्ति यानी डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर या वैज्ञानिक यह काम नहीं कर सकते।

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य यह दिखावा कर रहे हैं कि वे अपने राज्यों में श्रमिकों को काम दे देंगे। केंद्र सरकार ने मनरेगा का दायरा बढ़ाया है और उसके लिए एक लाख करोड़ रुपये बजट का प्रावधान भी किया है। लेकिन क्या मनरेगा के दम पर श्रमिकों को रोका जा सकता है?

मनरेगा संभवतः सिर्फ़ इस काम के लिए कारगर हो पाएगा कि बड़े पैमाने पर अपने गाँवों में पहुँचे मज़दूर भूखे न मरने पाएँ। मनरेगा श्रमिक की 15 दिन की कमाई महज़ 3,000 रुपये होती है, जबकि गुजरात में एक श्रमिक को औसतन 20,000 रुपये महीने मिलते हैं। ऐसे में मनरेगा जैसी योजनाएँ कभी भी बेरोज़गारी का समाधान नहीं हो सकतीं, क्योंकि उससे किसी व्यक्ति के परिवार की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करना भी मुश्किल है।

ऐसे में गाँवों में लौटे श्रमिक एक बार फिर औद्योगिक शहरों में लौटने को मजबूर होंगे। नीतीश या आदित्यनाथ सरकार के बूते के बाहर है कि वे अपने राज्य के श्रमिकों को भूखे मरने से बचा पाएँ। यह सवाल ज़रूर बना हुआ है कि औद्योगिक शहरों व राज्यों में कितने महीने में श्रमिकों की वापसी होगी और कब तक कामकाज सामान्य हो पाएगा। स्वाभाविक है कि एक विकसित औद्योगिक राज्य होने के कारण गुजरात की राजनीति पर भी इसका व्यापक असर पड़ने जा रहा है।

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प्रीति सिंह

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