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अदृश्य दलित बिरादरियों के दम पर बनती है हिंदू वोटों की एकता

पिछले लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जातियों के एक विशेष हिस्से ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया था। दरअसल, इस मतदान के बिना यह पार्टी उत्तर भारतीय हिंदू समाज की अपने पक्ष में व्यापक राजनीतिक एकता की मज़बूत दावेदारी नहीं कर सकती थी। आँकड़ों की दृष्टि से देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि जाटव समाज को छोड़ कर उत्तर प्रदेश में अन्य दलित समुदायों की पहली प्राथमिकता बीजेपी बन चुकी है।

बिहार में तो लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के पासवान नेतृत्व के बावजूद 2014 में सबसे ज़्यादा दलित वोट (28 प्रतिशत) बीजेपी को ही मिले थे, और उत्तर प्रदेश में ग़ैर-जाटव दलितों के सबसे अधिक वोट (बसपा के 30 फ़ीसदी के मुक़ाबले 45 फ़ीसदी) बीजेपी के हिस्से में गए थे। 

प्रश्न यह है कि किसी भी नज़रिये से दलित गोलबंदी की राजनीति न करने के बावजूद बीजेपी जैसी पार्टी (जिसकी आम छवि ब्राह्मण-बनिया पार्टी की रही है) अनुसूचित जातियों के वोटों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने में कैसे सफल हो जाती है?
इस प्रश्न का एक अनुमानित उत्तर 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी की दलित रणनीति से मिल सकता है। इस चुनावी संघर्ष में बीजेपी ने प्रदेश के ग़ैर जाटव दलित समुदायों को यह दलील दे कर अपने पक्ष में कर लिया था कि आरक्षण और बहुजन राजनीति के ज़्यादातर फ़ायदे केवल जाटवों को ही मिले हैं, और बहुजन समाज पार्टी को वोट देने का मतलब आगे भी यही निकलने वाला है। बीजेपी का यह चुनावी प्रचार ग़ैर-जाटव दलित समुदायों को तर्कसंगत लगा। 
यह इस बात का सबूत है कि सामाजिक न्याय की राजनीति यथार्थ की ठोस ज़मीन पर उस तरह से समतामूलक समाज की रचना नहीं कर पा रही है, जैसा कि किताबी दावा किया जाता है। अगर हाँडी के एक चावल को परखने के ज़रिये दलित-बहुजन राजनीति के इस पहलू को देखा जाए तो बहुत कुछ साफ़ हो जाता है।
मुसहर समुदाय की जीवन-स्थितियों पर ग़ौर करने से पहली नज़र में यह पता चल जाता है कि बीजेपी की दलीलें ग़ैर-जाटव या ग़ैर-पासवान दलित समुदायों द्व‍ारा क्यों ग्रहण की जा रही हैं।

दलित समाज में ऊँच-नीच 

बिहार में महादलित की श्रेणी के निर्माण से ही साफ़ हो जाता है कि दलितों में समाज के स्तर पर आंतरिक ऊँच-नीच की स्थिति तक़रीबन वैसी ही है जैसी ग़ैर दलितों और दलितों के बीच देखी जाती है। ऊँच-नीच की यह परिघटना काफ़ी कुछ दलित समुदायों के आबादीमूलक आकार के आधार पर अपनी शक्ल-सूरत ग्रहण करती है। देश भर में क़रीब बीस करोड़ दलितों में मुसहरों की संख्या केवल तीस लाख ही है। यानी वे दलित समुदाय का केवल 1.5 फ़ीसदी ही हैं। संख्याबल की यह हीनता मुसहरों को राजनीतिक-सामाजिक जीवन में लगभग अदृश्य बना देती है और वे किसी भी किस्म के विमर्श में, सत्ता के बँटवारे में और प्रगति के अवसरों की होड़ में भाग ही नहीं ले पाते।

मुसहरों के अधिकार मारने की कोशिश केवल ऊँची जातियों या ताक़तवर समुदायों द्वारा ही नहीं की जाती, बल्कि दलितों में संख्याबल के धनी समुदायों (जैसे जाटव, पासवान या पासी) द्वारा भी की जाती है।
जब भी मुसहर जैसे किसी समुदाय की सामाजिक न्याय में हिस्सेदारी का प्रश्न उठता है, उसे दलित एकता में आने वाली संभावित बाधा क़रार दे कर ख़ामोश कर दिया जाता है। जबरन चुप्पी लादने के इस खेल में साम्प्रदायिकता विरोधी विमर्श और तथाकथित दलित विमर्श एक चतुराईपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
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ग़रीब और निरक्षर हैं मुसहर

ध्यान रहे कि मुसहरों के बीच बड़े पैमाने पर भूमिहीनता है। उनका 92.5 फ़ीसदी हिस्सा खेती-मज़दूरी करके जीवन-यापन करता है (केवल 13 फ़ीसदी के पास ही ज़मीन का छोटा टुकड़ा है लेकिन उन्हें भी दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता है)। मुसहरों की 79 फ़ीसदी आबादी निरक्षर है। दरअसल, उनके बीच साक्षरता की दर केवल 9 फ़ीसदी (स्त्रियों के बीच केवल 3.9 फ़ीसदी) है। 

आज के ज़माने में यह देख कर ताज्जुब हो सकता है कि मात्र 23.9 फ़ीसदी मुसहरों के पास ही साइकिल है और मात्र 10.1 प्रतिशत रेडियो के मालिक हैं।
शहरों में रहने वाले एक-दो परिवारों को छोड़ दिया जाए तो कोई भी ऐसा मुसहर परिवार नहीं है जिसके पास ख़ुद की मोटर साइकिल, कार, टेलीफ़ोन, फ़्रिज, टेलीविज़न जैसे साधन हों। मात्र 8 फ़ीसदी के पास बैंक अकाउंट हैं। 30 फ़ीसदी मुसहरों के पास पशुपालन के नाम पर केवल सुअर हैं। किसी के पास गाय, भैंस, बकरी, बैल जैसे दुधारू जानवर नहीं है।

दलित समुदायों का राजनीतीकरण मुख्यतः अंबेडकरवाद की विचारधारा के ज़रिये हुआ है। लेकिन आज अंबेडकरवादी राजनीतिकरण के उत्तर-औपनिवेशिक सत्तर सालों ने मुसहरों के साथ-साथ अहरिया, बैगा, बहेलिया, बालाहार, बंसफोर, धनगर, हेला, नट, सहरिया, साँसिया, धोबी, दुसाध, चेरो जैसी 60 से अधिक दलित जातियों को ज़रा भी स्पर्श नहीं किया है। 

सत्तर और अस्सी के दशक में बिहार के नक्सलवादी आंदोलन ने भूमिहीन खेत मज़दूर के रूप में इन महादलितों को अपने दायरे में संगठित किया था। उस प्रक्रिया ने इन समुदायों के एक हिस्से को भूमि-संघर्षों में उतार कर मार्क्सवादी-लेनिनवादी बनाया, लेकिन अंबेडकरवादी लोकतांत्रिक राजनीति ने अभी तक समाज के इस हिस्से पर ध्यान नहीं दिया है। नीतीश कुमार द्वारा बिहार में अतिदलित की श्रेणी बना कर महादलितों की राजनीतिक लामबंदी की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। चूँकि उत्तर प्रदेश में इनकी आबादी बिख़री हुई है, इसलिए वहाँ मुख्यधारा की दलित राजनीति के भीतर कट्टरता की प्रक्रिया से इन अदृश्य समुदायों को जोड़ने की परवाह न के बराबर ही दिखाई पड़ती है। 
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बिहार में भी महादलितों को राजनीति के क्षेत्र में आगे आने का जो मौक़ा मिला है, उसका श्रेय दलित आंदोलन को देना उचित नहीं होगा। वह तो ग़ैर-दलित जातियों के नेताओं द्वारा उनके वोटों को अपने पाले में ले जाने की रणनीतियों का परिणाम ही है।

अंबेडकरवाद की इस विफलता से मिली गुंजाइश में हिंदुत्ववादी राजनीति अपना हस्तक्षेप करती है। बस उसे ओमप्रकाश राजभर जैसे कुछ ग़ैर-जाटव दलित नेता चाहिए जो कटिबद्ध हो कर जाटव विरोधी प्रचार करने निकल पड़ें और अपनी हर जनसभा में मौजूद छोटी-छोटी नामालूम बिरादरियों को समझाएँ कि दलित एकता के महा-आख्यान में उनकी कोई जगह नहीं है, इसलिए अब उन्हें हिंदू एकता के महा-आख्यान का दामन थाम लेना चाहिए। बीजेपी ऐसे नेताओं का महत्व जानती है, इसीलिए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उसके रणनीतिकारों ने राजभर के असंतोष का शमन करके एक बार फिर उन्हें अपने साथ जोड़ लिया। 

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23 मई को आने वाले लोकसभा चुनाव के नतीजों में एक बार फिर दलितों की ये अदृश्य बिरादरियाँ उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह करेंगी। क्या एक बार फिर यह बिरादरियाँ हिंदुत्व के जाटव विरोधी प्रचार को ग्रहण करेंगी या इस बार प्राथमिकता बदल कर सपा-बसपा-रालोद के गठजोड़ का साथ देंगी, उनके इस निर्णय पर एक सीमा तक सत्रहवीं लोकसभा की शक्ल निर्भर करेगी।
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कंचन शर्मा

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