loader
फ़ोटो साभार: ट्विटर/राजाबाबू सिंह

दिवाली: दीपों से मशाल जलाओ, जंग जारी है...

इस भूमंडल पर जब से बर्बर पशुओं ने विकसित होकर एक मानव के रूप में सोचना प्रारंभ किया, तब से ‘ज्ञान के मसीहाओं’ व ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ के बीच जंग जारी है। प्राचीनकाल में ही इसी जंग के दौरान भारतीय सभ्यता में ‘ज्ञान के मसीहाओं’ ने दिवाली नामक इस त्योहार की परिकल्पना कर ली थी। जिसका उद्देश्य एक आदर्श राज्य-व्यवस्था के लिए यह देखने का अवसर प्रदान करना था कि अभी भी उसके राज में कितने घरों में ग़रीबी के कारण दीये नहीं जलाए गए हैं। इसके जवाब में ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने मानवता के इस त्योहार को धर्म से जोड़कर इसको इसके पावन उद्देश्य से भटकाने में सफलता पा ली। दुष्यंत ने ठीक ही लिखा था। 

“कहां तो तय था चरागां हरेक घर के लिए, 

कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए” 

सम्बंधित ख़बरें

यह जंग आज भी न केवल जारी है बल्कि इसने 1939 से 1945 तक चलनेवाले महाविनाशकारी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक बार फिर इस मानव सभ्यता को ‘कोरोना’ नामक महामारी जैसे मानवनिर्मित कथित महाविनाश की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसका एकमात्र उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राजनैतिक उपनिवेशवाद से मुक्त हो चुके भारत जैसे प्राकृतिक और मानव संसाधनों में अपार समृद्ध समाजों को एक बार फिर आर्थिक लूट के मकड़जाल में फंसा कर अपने प्राकृतिक रूप से विपन्न समाजों के आर्थिक अस्तित्व को सुरक्षित बनाए रखना है। 1757 में जब पहली बार भारत उपनिवेशवाद के चंगुल में फँसा था, तब बंगाल के अमीचंद जैसे मुनाफाखोरों ने ही इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद की थी। उसी अमीचंद के वंशज आज भी इस कथित महामारी के दौर में उन विदेशी कंपनियों की मदद में जी-जान से जुटे हुए हैं।

अज्ञानता के इन्हीं वर्तमान तानाशाहों ने एक बार फिर इस उदारता पसंद पूरे सहिष्णु भारतीय समाज को उसी प्रकार आतंकित कर दिया है जैसे शोषकों व शोषितों के मध्य होने वाली प्राचीनतम क्रांति को मिथकीय धार्मिक ‘देवासुर संग्राम’ का नाम देकर नस्ली संघर्ष के आतंक में झोंक दिया गया था। 

इस पूरे षडयंत्र का एकमात्र उद्देश्य इस पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक बार फिर धर्म, संप्रदाय, नस्ल और जाति के नाम पर युद्ध का मैदान बनाकर संहारक हथियारों के निर्माताओं के लिए बाज़ार तैयार करना और बदले में अकूत दलाली खाना है।

इस षड्यंत्र की सफलता संदिग्ध ही रह जाती, यदि भारतीय समाज औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का शिकार न होता। लेकिन उत्तर-औपनिवेशिक भारत के काले अंग्रेज शासकों ने औपनिवेशिक राजनैतिक व्यवस्था, औपनिवेशिक प्रशासनिक व्यवस्था और औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था को जारी रखते हुए उनका काम आसान कर दिया, और आज का भारतीय समाज आज भी विदेशी तकनीकों और विदेशी संहारक हथियारों की खरीद के लिए विदेशी कंपनियों पर पूरी तरह निर्भर बना हुआ है।

आमजन विरोधी कुशिक्षा व्यवस्था

1970 के दशक के बाद के रट्टामार, स्थायी और निरंकुश नौकरशाही द्वारा तैयार इस रट्टामार और आमजन विरोधी कुशिक्षा व्यवस्था का ही परिणाम है कि विश्व के दो सौ उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। होगा भी कैसे जब हमारी उच्च शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य, आज़ादी के बाद भी उपनिवेश कालीन नौकरशाह और सरकारी अधिकारी पैदा करना बना हुआ है, न कि ज्ञान को समर्पित वैज्ञानिक, दार्शनिक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री, राजनीतिविज्ञानी, मनोवैज्ञानिक व साहित्यकार। इसके साथ-साथ भारत की औपनिवेशिक राजनैतिक व्यवस्था ने इस पूरे सहिष्णु समाज को नफरत पर आधारित हिंदू-मुसलमान सांप्रदायिकता और सवर्ण-अवर्ण जातिवादी विरोधी खेमों में इस प्रकार विभाजित कर दिया है कि कभी भी यह सहिष्णु समाज उन आयातित संहारक हथियारों और तकनीकों का आपस में ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ प्रयोग करने को मजबूर हो जाए।

इस पूरे षड्यंत्र में जो कमी थी उस कमी को पूरा करने के लिए, इन शासक वर्गों ने इस ‘कोरोना काल’ के नामपर ‘आतंक का बनावटी साम्राज्य’ बनाकर पूरा कर दिया है, जिसमें आम आदमी अपने मानवाधिकारों के प्रयोग के लिए आवाज़ भी नहीं उठा सकता है।

इंसानी लाशों के व्यापार पर निर्मित अज्ञानता के इन अंतरराष्ट्रीय तानाशाहों ने इस अवसर का प्रयोग शासित समाजों की बची-खुची शिक्षा-व्यवस्था को भी पूरी तरह नेस्तनाबूद करने के लिए एक नए प्रकार की ‘अशिक्षा व्यवस्था’, प्रत्येक विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल व अन्य शिक्षा संस्थानों में भी ‘ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था’ लागू कर पूरा कर दिया है। अब भविष्य में भी लंबे समय तक भारतीय समाज अंतरराष्ट्रीय स्तर के ज्ञान उत्पादन के मार्ग से च्युत कर दिया गया है, जबकि इसका दोष इस कोरोना नामक शक्तिहीन वायरस के सर पर ही मढ़ा जाएगा जिसका निर्माण भी प्रकृति ने नहीं, ख़ुद इन ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने ही किया है।

‘अज्ञानता के इन तानाशाहों’ ने विकास के नाम पर स्वयं अपने समाजों के खान पान की संस्कृति में ऐसा आमूल-चूल परिवर्तन (फास्ट फूड) कर दिया है कि उनकी प्रकृतिजन्य शारीरिक रक्षा व्यवस्था (इम्यूनिटी) पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है।

इसका नतीजा है कि उनके नागरिक अविकसित समाजों की यात्रा के दौरान मात्र ‘तकनीकी जल’ (मिनरल वाटर) के प्रयोग के लिए ही मजबूर रहते हैं। इस कोरोना काल में यही हाल भारत के उन नकलची नव-धनाढ्यों का भी हुआ है, जो अपने अपने घरों में इसी तकनीकी जल के संयंत्र लगाकर इसके आदी हो चुके हैं। भारत में भी इस महामारी के सबसे अधिक शिकार इसी वर्ग के लोग हुए हैं।

deepawali celebration a festival of lights - Satya Hindi

 ‘अज्ञानता के तानाशाह’ 

समस्त मानव इतिहास में मानव की सबसे पहली वैज्ञानिक क्रांति आग जलाने की कला थी, जिस कला का निर्माण प्रत्येक मानव समाज के ‘ज्ञान के मसीहाओं’ ने किया था, अपने भोज्य पदार्थों को भूनने के लिए। लेकिन ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने उसी आग का प्रयोग अपने पड़ोसियों की हत्या और उनके नगरों को जलाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया था। ‘ज्ञान के मसीहाओं’ ने अगर अजस्र ऊर्जा के स्रोत के रूप में अणु का आविष्कार किया तो ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने इसका प्रयोग संहारक आणविक अस्त्र शस्त्र बनाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया। इन दोनों के बीच की यह जंग तभी से आज तक जारी है। इस दुनिया के प्रत्येक मानव समाज में उनके ‘ज्ञान के मसीहाओं’ ने अपने आदर्श मूल्यों को सतत जीवित रखने के लिए सांस्कृतिक त्योहारों का निर्माण किया तो ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने उन्हीं त्योहारों को धार्मिक स्वरूप प्रदान कर आपसी सांप्रदायिक, जातीय व नस्ली घृणा का औजार बना दिया। 

लेखन कला के ज्ञान ने यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानवीय मूल्य को जन्म दिया तो मानवाधिकार के हत्यारों ने इसी को मानव हत्याओं का धार्मिक कारण बना दिया।
कृषि के ज्ञान के उद्भव के साथ ही इस भूमंडल के समस्त मानव समाजों के ‘ज्ञान के मसीहाओं’ ने अपने-अपने समाजों में विभिन्न फ़सलों के तैयार हो जाने पर प्राकृतिक रंगों व रोशनियों पर आधारित विभिन्न सांस्कृतिक त्योहारों व उत्सवों की परिकल्पना की, जिनका एकमात्र उद्देश्य सभी को प्रसन्न रखना और उनके बीच सुख शांति को बनाए रखना था। लेकिन ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ ने इन सभी मिथकों का बनावटी निर्माण कर नफरती धार्मिक स्वरूप प्रदान कर दिया। 
विचार से और ख़बरें
ऐसे में वर्तमान ‘कोरोना काल’ के इन दीपों या रोशनी के बीच इन दीपों के या रोशनी के त्योहार ने यह आवश्यक सवाल खड़ा कर दिया है कि हम किसकी तरफ़ खड़े हैं, मुनाफाखोर, नफ़रती ‘अज्ञानता के तानाशाहों’ की तरफ़ या सहिष्णु ‘ज्ञान के मसीहाओं’ की तरफ़? इस कोरोना काल में दोनों के बीच न केवल जंग जारी है, बल्कि आम आदमी का पूरा अस्तित्व ही महाविनाश की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। इसीलिए एक-एक दीप को ज्ञान की मशाल में बदल देने का समय आ चुका है।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रो. प्रमोद कुमार

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें