loader

राजनीति का सच! ‘सत्यमेव जयते’ याने जो जीता वो सत्य

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कम से कम दस आम-चुनावों में जिस पार्टी या गठबंधन का मत-प्रतिशत ज़्यादा था उसकी सीटें कम आयीं और जिसको कम मिले उसे ज़्यादा सीटें मिलीं। सीट-शेयर और वोट-शेयर में कोई तादात्म्य न होने का सीधा मतलब है कि लोकसभा या विधान-सभाएँ जनमत का सही प्रतिबिम्ब नहीं हैं या जनता का सत्य वह नहीं है जो ईवीएम बताता है। 
एन.के. सिंह

‘सत्यमेव जयते’ (सत्य की ही जीत होती है)। मुण्डकोपनिषद के इस श्लोक (३-१-६) में ‘जयते’ नहीं ‘जयति’ था लेकिन संविधान-निर्माताओं ने अशोक स्तम्भ पर लिखे इबारत का ‘जयते’ शब्द ही लिया और इसे भारतीय संप्रभुता के प्रतीक चिन्ह में ध्येय वाक्य के रूप में उकेरा। मतलब है, ‘सत्य की ही जीत होती है’। संस्कृत व्याकरण में मूल रूप से क्रिया दो तरह की हैं- परस्मैपदी और आत्मनेपदी (कुछ ही क्रियाएँ उभयपदी होती हैं)। पहले में क्रिया दूसरों के लिए होती है जबकि दूसरे में अपने लिए। अंग्रेज़ी में इसे ट्रांजिटिव और इनट्रांजिटिव क्रिया के रूप में जाना जाता है। इस श्लोक में रचयिता ऋषि ने परस्मैपदी क्रिया रूप रखा था लेकिन सम्राट अशोक ने इसे आत्मनेपदी बनाया। कई विद्वानों ने यहाँ तक कहा कि ‘जयते’ में व्याकरणिक दोष भी है लेकिन इसे सरकार ने नहीं बदला। 

ख़ास ख़बरें

शायद उस ऋषि से अलग सम्राट अशोक सत्य को आत्मनेपदी भाव से देखना चाहते थे और उन्हें  ढाई हज़ार साल के बाद भारत की अवस्था कैसी होगी, उसमें सत्य कैसे तय होगा और किसका सत्य कब तक तय रहेगा, का ज्ञान था। उन्हें मालूम था कि हर समय का, हर परिस्थिति में और हर व्यक्ति- या व्यक्ति-समूह का सच बदलेगा। उन्हें यह भी भान था कि जनता का सच और सत्तावर्ग का सच अलग-अलग होता है। वह जानते थे कि चुनाव में जो जीता वह सत्य होता है, चाहे किसी तरह जीता हो। 

बिहार चुनाव में चिराग पासवान के अलग होने से नीतीश कुमार का दल कम सीटें पाता है तो यह उनकी पार्टी का एक सत्य है लेकिन मुकेश सहनी और मांझी के अचानक साथ आने से नीतीश की पार्टी को हीं नहीं पूरी एनडीए को लाभ मिला यह दूसरा सत्य है। ओवैसी और मायावती की पार्टियों के अलग लड़ने से राजद को ही नहीं महागठबंधन को घाटा हुआ है यह तेजस्वी का सत्य है लेकिन सबसे बड़ा सत्य है कि 125 सीटें जीत कर एनडीए ने सरकार बनाई।

प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘अपार जन समर्थन बताया’ जो उनका सत्य था जबकि दोनों गठबन्धनों के बीच कुल प्राप्त वोटों का अंतर मात्र 12270 मतों का था याने अगर हर विधानसभा क्षेत्र में 51 वोट ज़्यादा मिलते तो यही सत्य तेजस्वी का होता और वह युवा ‘अपार जनसमर्थन’ का दावा करता।

पूरे राज्य में  3.14 करोड़ वोट डाले गए। यही सत्य तब भी बदल जाएगा जब किसी मांझी या सहनी को मनपसंद विभाग नहीं मिले और वह महागठबंधन के पाले में चले जाएँ, आज नहीं तो कुछ दिन बाद।

defection in political parties and bihar poll alliances  - Satya Hindi

अदालतों में सत्य!

आत्मनेपदी क्रिया वाला ‘सत्यमेव जयते’ यहीं नहीं रुकता। देश की अदालतों में भी जजों के पीछे की दीवार पर ‘सत्यमेव जयते’ टंगा रहता है लेकिन लोअर कोर्ट का सत्य हाई कोर्ट में पलट जाता है जो देश की सबसे बड़ी अदालत –सुप्रीम कोर्ट – में जाने पर कई बार फिर पल्टी मार जाता है। शर्त एक ही है आप में कोर्ट-दर-कोर्ट सीढियाँ चढ़ने की कूवत कितनी है। चूँकि सत्य ही जीतता है लिहाज़ा सत्य यहीं नहीं रुकता। एक बेंच का सत्य उसी कोर्ट के दूसरे बेंच में बदल जाता है। देश का सबसे बड़ा फ़ैसला (सत्य)— केशवानंद भारती केस— है जिसमें सिद्धांत बना कि संसद में संविधान संशोधन की निर्बाध शक्ति है लेकिन संविधान की आधारभूत संरचना को बदलने का अधिकार नहीं है, 7—6 से तय हुआ। याने एक जज उस पाले में होता तो सत्य उलट जाता लेकिन फिर भी सत्य की ही जीत होती क्योंकि वह आत्मनेपदी क्रिया ‘जयते’ में है। लिहाज़ा सत्ताधारियों ने ‘सत्य की खोज’ में एक नया रास्ता निकाला। वे ईडी, आईटी, सीबीआई भेज कर सत्य तक पहुँचे तो उधर राज्य की गैर-भाजपा सरकारों ने अपनी पुलिस का सहारा लेना शुरू किया। सत्य जीतता रहा क्योंकि आत्मनेपदी था।

सत्य किसी मांझी या किसी सहनी के चुनाव-पूर्व पाला बदलने से ही नहीं बदलता बल्कि चुनाव के बाद ‘मन’ बदलने के कारण भी पल्टी मारता है, कुछ वैसे ही जैसे सन 2015 में नीतीश कुमार का सत्य लालू के सत्य के साथ जुड़ गया और जनता ने एक नया सत्य दिया।

लेकिन दो साल के बाद ही नीतीश का सत्य बीजेपी के सत्य से मिल कर नयी सरकार बनाता है क्योंकि सत्य आत्मनेपदी है भले ही प्रजातंत्र और भारत के संविधान ने उसे परस्मैपदी याने जनता का सत्य बनाया हो। महाराष्ट्र में भी जनता का सत्य चुनाव-परिणामों की घोषणा के बाद ठाकरे ने कुछ अन्य ‘सत्यान्वेषी’ दलों से मिलकर बदल दिया। 

defection in political parties and bihar poll alliances  - Satya Hindi

भारत एक अनेक पहचान-समूह वाला देश है जिसमें अक्सर एक पहचान-समूह दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ता है। संविधान-निर्माताओं ने गणतंत्र बनाकर फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (जो पहले खम्बा पार करे, वो जीता) वाली चुनाव-पद्धति की व्यवस्था की। नतीजा यह हुआ कि जाति, उप-जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और आर्थिक विषमता के आधार पर जनादेश खंडित होता रहा और अंत में 50 साल के लोकतान्त्रिक अभ्यास में राजनीतिक दल इन्हीं पहचान –समूहों के आधार पर बँटे और कई नए पैदा हुए। स्थिति यहाँ तक आ गयी कि गठजोड़ का एक ऐसा युग शुरू हुआ जिसमें सत्ता की लोलुपता का तांडव विकास की मूल भावना को नज़रअंदाज़ करता रहा। 

चुनाव के बाद सत्ता में मनचाही संख्या में और ‘मलाईदार’ विभाग न मिलने पर कोई दल गठबंधन से बाहर चला जाता है और सरकार गिरने की स्थिति में आ जाती है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कम से कम दस आम-चुनावों में जिस पार्टी या गठबंधन का मत-प्रतिशत ज़्यादा था उसकी सीटें कम आयीं और जिसको कम मिले उसे ज़्यादा सीटें मिलीं। सीट-शेयर और वोट-शेयर में कोई तादात्म्य न होने का सीधा मतलब है कि लोकसभा या विधान-सभाएँ जनमत का सही प्रतिबिम्ब नहीं हैं या जनता का सत्य वह नहीं है जो ईवीएम बताता है। साझा-सरकार के युग में इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि एक छोटी सी पार्टी, जिसके दो प्रतिशत भी वोट नहीं हैं, राज्य में सत्ता में आने वाली पार्टी या गठबंधन को ब्लैकमेल करना शुरू करती है। उपजातियों के नेता इसी सौदेबाज़ी के चलते राजनीति में नयी समस्याएँ (याने नए सत्य) पैदा करते हैं। और समाज अनेक टुकड़ों में बँटता जा रहा है। 

वीडियो में देखिए, तेजस्वी के हार के मायने

इसका एक और उदाहरण देखें। भारत के संविधान ने महादलित नाम की कोई जाति को नहीं पहचाना और अनुसूचित जाति को ही स्वीकार्यता दी लेकिन कालांतर में एक ‘सत्यशोधक’ नीतीश कुमार ने इस वर्ग में भी एक महादलित की श्रेणी बना दी। भारतीय चुनाव पद्धति की तासीर में ही समाज को बाँटना निहित है क्योंकि नए नेता पहचान समूह पैदा करते हैं, उसे रिजर्वेशन या कोई अन्य सुविधा दिलाने के नाम पर सत्ता में बंदरबाँट का नया रास्ता खोजते हैं। पंचायत-राज सिस्टम 73वें संविधान संशोधन के तहत लाया तो गया लेकिन किसी एक जाति की अधिकता वाले गाँव में उनके वोटों से जीतने वाला मुखिया विकास कार्यों में अन्य जातियों की खुली अनदेखी करने लगा। दोषपूर्ण चुनाव पद्धति के कारण अनेक ‘सत्यशोधक’ उभरते रहेंगे और जनता के सत्य का बलात्कार होता रहेगा।

जनता के सत्य को प्रजातंत्र का आधार बनाना है तो दल-बदल क़ानून में संशोधन कर परिणाम आने के बाद चुनाव-पूर्व के गठबंधन को एक राजनीतिक दल मानना होगा कम से कम विधायिकाओं में उन फ़ैसलों पर जिन से सरकार गिर सकती है। इससे जनता के सत्य को लोलुपता वाले राजनीतिक दलों का सत्य बदल नहीं पायेगा। अगर ऐसा गठबंधन विपक्ष में है तो भी यही बाध्यता की जानी चाहिए। तभी सत्यमेव जयते परस्मैपदी बन कर ‘सत्यमेव जयति’ बनेगा।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
एन.के. सिंह

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें