पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की चर्चा अब कोई नहीं करता। पर कोरोना और लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था में गिरावट की जो चर्चा होती थी वह भी नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के नए आंकड़े आने के बाद और तेज हो गई है। तब जीडीपी की गिरावट को ज्यादा से ज्यादा दस फीसदी तक माना जाता था। अब जब सरकारी आंकड़े के अनुसार पहली तिमाही में गिरावट लगभग चौबीस फीसदी है तो बाकी अनुमान तेजी से बदल रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय एजेंसी फिच का नया अनुमान 10.5 फीसदी गिरावट (उसका जून का अनुमान 5 फीसदी का ही था) का है जबकि गोल्डमैन सैक्स का अनुमान तो 14.9 फीसदी पर पहुंच गया है। एक ही दिन में आई तीसरी रिपोर्ट इंडिया रेटिंग्स की है जो 11.8 फीसदी गिरावट की भविष्यवाणी करती है।
सरकारी अर्थशास्त्री ज़रूर तेज रिकवरी की बात करते हैं लेकिन सारी दुनिया में उतार पर आने के बावजूद अपने यहां जिस तरह कोरोना का कहर जारी है और केन्द्रीय स्तर पर लॉकडाउन कम होने के बावजूद राज्यों में सख्ती और बन्दी जारी है (जो जरूरी भी है) उससे इन अनुमानों का भी भरोसा नहीं है।
कहां गए अच्छे दिन?
पर मामला आंकड़ों की गिरावट और अर्थव्यवस्था के दुनिया में लहराने के झूठे दावों भर का नहीं है। मामला हर हिन्दुस्तानी के जीवन से जुड़ा है। और अम्बानी-अडानी की सम्पत्ति में वृद्धि की रफ्तार बढ़ने या दवा, अस्पताल और काढ़ा वगैरह जैसे धन्धे की तेजी को छोड़ दें तो हर किसी को आर्थिक तकलीफ महसूस होने लगी है। जो सरकार अच्छे दिन लाने और गरीबी कम करने के दावे करती थी वह खुद अस्सी करोड़ गरीबों को राशन और राहत देने के दावे करने लगी है।
गरीबों की संख्या बढ़ना यही बताता है कि हमारी आबादी का एक बड़ा वर्ग अभी भी हाशिए पर है। रोज नब्बे हजार बीमार और हजार से ज्यादा की मौत में इसी हाशिए वाले वर्ग की ज्यादा हिस्सेदारी है।
काम न आया आर्थिक पैकेज
अब बीमारी की भविष्यवाणी करना तो मुश्किल है लेकिन अर्थव्यवस्था में क्या कुछ हो सकता है वह समझना मुश्किल नहीं है। सरकार को दो-तीन स्तरों पर काम करना था- लोगों को राहत, स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा खर्च और अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के प्रयास। पहले दो काम कितने हुए हैं उस पर भी सवाल हैं।
जहां अमेरिका जैसे देश ने अपनी जीडीपी का 20 फीसदी राहत पैकेज घोषित किया वहीं, अपने यहां लगभग डेढ़ फीसदी की घोषणा भर हुई और उसमें से भी लघु और सूक्ष्म उद्यमों को कुछ सीधा लाभ हो सकता था पर सब के लिए यह बीस-इक्कीस लाख करोड़ झुनझुना बनकर ही रह गया है। अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र (खासकर होटल, पर्यटन, विमानन, बैंकिंग) रो ही रहा है।
असली समस्या अर्थव्यवस्था अर्थात राजकोषीय नीति और मौद्रिक नीति के टकराव की आ रही है जो बढ़ती जाने वाली है। मोदी सरकार जब रघुराम राजन, उर्जित पटेल, विरल आचार्य जैसे कुशल मौद्रिक प्रशासकों को विदा कर रही थी तब उसका सामान्य ढर्रा ही रिजर्व बैंक और बैंकिंग प्रणाली को भारी पड़ रहा था। अब जबकि एकदम मनचाहे अधिकारी समेत सारा कुछ अनुकूल हो गया है तो राजकोषीय अनुशासन ही नहीं पूरी बैंकिंग प्रणाली खतरे में है।
बैंकों के एनपीए में डरावनी वृद्धि और हर तीन महीने में वित्तीय समायोजन के नाम पर कर्जों को ‘इधर-उधर’ करना जारी है। कोरोना ने सूद माफी और किश्त माफी का दबाव अलग से बढ़ा दिया है।
विरल आचार्य का आरोप
रिजर्व बैंक से जबरिया मुक्त हुए विरल आचार्य ने हाल में एक लेख में यह बात रेखांकित की है कि इस सरकार का रवैया शुरू से यही रहा है कि राजकोषीय अनुशासनहीनता का शिकार बैंकिंग व्यवस्था को बनाया जाए और उस पर अनुचित दबाव से उसके अनुशासन को भी भंग किया जाए।
जीएसटी के पैसे पर पेच
इसी से जुड़ा दूसरा खतरा केन्द्र-राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों से पैदा हो रहा है। केन्द्र जीएसटी में राज्यों का लगभग ढाई लाख करोड़ रुपया दबा गया है और अब वह राज्यों को सलाह दे रहा है कि वे रिजर्व बैंक से उधार लेकर अपना खर्च चलाएं।
लम्बी बक-झक के बाद राज्य मजबूर होकर उधार मांगने की तरफ बढ़ते दिख रहे हैं क्योंकि वे अपने कर्मचारियों की तनख्वाह से लेकर कोरोना की रोकथाम जैसे खर्चों को ज्यादा समय तक टालने की स्थिति में नहीं हैं।
यह सही है कि केन्द्र की आमदनी कम हुई होगी और खर्च उसके भी हैं लेकिन जीएसटी का मामला खास है क्योंकि एक देश, एक टैक्स के नाम पर जब राज्यों से तरह-तरह की टैक्स वसूली छोड़ने के लिए पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सहमति ली तो यह वायदा भी किया कि राज्यों को उनका पूरा हिस्सा देने के साथ पांच साल तक हर साल 14 फीसदी की वृद्धि भी दी जाएगी।
कमाई के रास्ते बंद
अब भले ही जीएसटी को सरकार अपनी शान बताने में हिचके लेकिन शुरू में इसे सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिनवाया जाता था और जिस को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म का उदाहरण बताया जाता था, वह भी अब कम ही सुनाई दे रहा है। कहना न होगा कि राज्यों की, खासकर शराबबन्दी वाले राज्यों की हालत वैसे ही खराब है। उनकी आमदनी का एक बड़ा स्रोत- सिनेमा टिकटों का मनोरंजन कर वैसे ही शून्य हो गया है। उनके लिए मंडियों की कमाई का रास्ता भी बन्द हो गया है।
दूसरी ओर, केन्द्र के खर्चों में कोई फर्क नहीं दिख रहा है। प्रधानमंत्री के लिए हजारों करोड़ का खास विमान खरीदना हो या दिल्ली में नया प्रधानमंत्री निवास और संसद भवन समेत पूरे सेंट्रल विस्टा का निर्माण- किसी पर आमदनी घटने, आर्थिक संकट आने और कोरोना का कोई असर नहीं दिखता। प्रधानमंत्री जी की अपनी ‘सादगी’ और मंत्रियों की ‘कॉस्ट कटिंग’ की चर्चा ना ही की जाए तो अच्छा है।
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